सम्पादकीय

आन्दोलनका हिंसक स्वरूप


अवधेश कुमार
गणतंत्र दिवसपर हुई अराजकताको किसी भी परिस्थितिमें सही नहीं ठहराया जा सकता। पूरा देश जानता है कि गणतंत्र दिवसके अवसरपर ट्रैक्टर परेड न निकालनेके लिए सरकारने अपील की, दिल्ली पुलिसने भी कई प्रकारके कारण बतायें जिनके आधारपर कहा गया कि आप कृपया रैली न निकालें, अनेक बुद्धिजीवियोंने ट्रैक्टर परेडको अनुचित करार दिया। बावजूद वह डटे रहे। इनका कहना था कि एक ओर यदि जवान परेड कर रहे होंगे तो दूसरी ओर किसान भी परेड करेंगे। दिल्ली पुलिसने हिंसा और गड़बड़ीकी आशंका भी जतायी। वह टससे मस नहीं हुए। उन्होंने कहा कि हमारा ट्रैक्टर मार्च निकलकर रहेगा और निकाला। तो फिर हिंसाके लिए ये स्वयंको क्यों नहीं जिम्मेदार मानते। ध्यान रखनेकी बात है कि आन्दोलनरत ३७ संघटनोंने बाजाब्ता हस्ताक्षर करके पुलिसके सामने कुछ वादे किये थे। उदाहरणके लिए ट्रैक्टरोंके साथ ट्रालियां नहीं होंगी, उनपर केवल तीन लोग सवार होंगे, केवल तिरंगा और किसान संघटनका झंडा होगा, कोई हथियार डंडा आदि नहीं होगा, आपत्तिजनक नारे नहीं लगाये जायंगे, पुलिसके साथ तय मार्गोंपर अनुशासित तरीकेसे परेड निकाली जायगी आदि। जैसा कि देखा गया ट्रैक्टरोंके साथ ट्रौलियां भी थीं, जिनमें डंडे, रॉड और अन्य सामग्रियां भी भरी थी। ट्रैक्टरोंपर काफी लोग बैठे थे। आपत्तिजनक नारे भी लग रहे थे।
आखिर परेडमें शामिल होनेवाले लोग पुलिसके साथ किये गये वादेका पालन करें, इसे सुनिश्चित करनेकी जिम्मेदारी किसकी थी। जाहिर है इन नेताओंने प्राथमिक स्तरपर भी इसे सुनिश्चित करनेकी कोशिश नहीं की। ट्रैक्टर परेडमें आनेवाले लोगोंको यदि ऐलान करके बताया जाता कि हमने पुलिसके साथ क्या-क्या वादे किये हैं और उन सबका पालन करना जरूरी है तो संभव है स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। दूसरे, जब यह तय हो गया था कि गणतंत्र दिवसके परेड समाप्त होने यानी बारह बजेके बाद ही ट्रैक्टर परेड निकाली जायगी। इसके विपरीत ८.३० बजेसे ही ट्रैक्टर परेड निकालनेकी होड़ मच गयी। जगह-जगह पुलिसको उनको रोकनेके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही थी। तीन जगहसे ट्रैक्टर परेड निकलना था- गाजीपुर, सिंधु और टिकरी। तीनों जगह यही स्थिति थी। क्या इन नेताओंका दायित्व नहीं था कि वे तय समयका पालन करते। गणतंत्र परेडका सम्मान करना इनका दायित्व था। परिणाम हुआ कि गाजीपुरसे निकलनेवाले परेडके लोगोंने अक्षरधाम, पांडव नगर पहुंचते-पहुंचते स्थिति इतनी बिगाड़ दी कि पुलिसको आंसू गैसके गोलेतक छोडऩे पड़े। उन्हें काफी समझाया गया कि अभी गणतंत्र दिवस परेडका समय है, आपका परेड १२ बजेसे निकलना है। कृपया, अभी शांत रहें। जहां हैं, वहीं रहें। वह माननेको तैयार नहीं। इसमें पुलिस और सरकार कहां दोषी है।
विडंबना देखिये किसान नेता आरोप लगा रहे हैं कि दिल्ली पुलिसने उन मार्गोंपर भी बैरिकेट्स लगा दिये जो ट्रैक्टर परेडके लिए निर्धारित थे। राजधानी दिल्लीमें गणतंत्र दिवसके दिन परेड संपन्न होनेतक अनेक रास्तोंको पुलिस हमेशा बंद रखती है। उनपर बैरिकेड लगाये जाते हैं। जबतक परेड अपने गंतव्य स्थानपर नहीं पहुंच जाता यह बैरिकेट्स नहीं हटाये जाते। सुरक्षाकी दृष्टिसे प्रत्येक लोग इसका पालन करते हैं। गणतंत्र दिवस परेड करीब ११.४५ बजे खत्म हुआ। उसके बाद ही किसानोंका ट्रैक्टर परेड निकल सकता था। यह पहले ही घुस गये और जगह-जगहसे निर्धारित मार्गोंको नकारकर दूसरे मार्गोंपर भागने लगे। आखिर आईटीओपर जबरन घुसनेकी जिदका क्या कारण था। आईटीओपर उधम मचाया गया, ट्रैक्टरोंसे पुलिसको टक्कर मारनेकी कोशिश हुई, उनका रास्ता रोकनेके लिए जो बसें लगायी गयी उनको एक साथ तीन-तीन, चार-चार ट्रैक्टरोंसे मार-मार कर पलटनेकी कोशिश हुई, लाठी-डंडों राडोंसे उनके शीशे तोड़े गये। ऐसा लगा जैसे दिल्ली पुलिस बेबस लाचार खड़ी है। पुलिस आरम्भमें अनुनय-विनय करती रही। पूरी दिल्लीमें जगह-जगह ऐसा ही दृश्य था। ट्रैक्टर ऐसे चल रहे थे मानो वह कोई तेज रफ्तारसे चलनेवाली कारें हों। ट्रैक्टरोंको तेज दौड़ा कर पुलिस और आम आदमियोंको खदेड़ा जा रहा था। भयभीत किया जा रहा था। क्या यही अनुशासनका पालन है। भारी संख्यामें लोग लालकिलेतक पहुंचे। अन्दर घुसकर किस ढंगसे खालसा पंथका झंडा लगाया गया, किस तरह पुलिसवाले घायल हुए, कैसे लोगोंको मारा पीटा गया, तलवारें भांजी गयीं, यह सब देशने देखा। गणतंत्रकी झांकियोंको भी नुकसान पहुंचाया गया। जहांसे १५ अगस्तको प्रधान मंत्री झंडा फहराते हैं उस स्थलपर तोडफ़ोड़ की गयी। ये सारे कृत्य डरा रहे थे। खालिस्तानी झंडा लालकिलेपर लगाकर देश और दुनियाको क्या संदेश देना चाहते थे। गणतंत्र दिवसके अवसरपर ऐसा करनेका क्या औचित्य हो सकता था। पूरा देश शर्मसार है। खालसा झंडेकी जगह लाल किला नहीं हो सकता। इन सबकी आशंका पहलेसे थी। क्या पुलिसने आगाह नहीं किया था। क्या मीडियाने नहीं बताया था कि किसान आन्दोलनके नामपर अनेक खालिस्तानी समर्थक तत्व अपना एजेंडा चला रहे हैं। पंजाबके मुख्य मंत्री बेअंत सिंहके सजायाफ्ता हत्यारेकी तस्वीरें लगाकर लंगर चलायी जाती थी। इसका पूरा विवरण अखबारोंमें छपा था। शहीद-ए-खालिस्तान नामक पुस्तकका वितरण हुआ, जिसमें भिंडरावालेको महिमामंडित किया गया था। पंजाबमें लुधियानाके कांग्रेसी सांसदने बताया कि खालिस्तानके नामपर जनमत संग्रह २०२० का समर्थन करनेवाले तत्व आन्दोलनमें शामिल हो गये हैं। उन्होंने अपराधी तत्वोंके भी इसमें शामिल होनेका आरोप लगाया। कोई उनकी बात सुननेको तैयार नहीं था। किसान नेता उल्टे कहते थे कि हमको तो खालिस्तानी कहा जा रहा है, देशद्रोही कहा जा रहा है। वे पूछते थे कि क्या हम खालिस्तानी समर्थक और देशद्रोही हैं। जो वास्तविक किसान संघटन, वास्तविक किसान नेता और वास्तविक किसान हैं उनको किसीने खालिस्तानी या माओवादी या अराजक हिंसक नहीं कहा था। लेकिन ऐसे तत्व उसमें शामिल थे। जो लोग इस आन्दोलनका नेतृत्व कर रहे हैं क्या उनको यह सब दिखाई नहीं दे रहा था। इससे आन्दोलनको अलग करनेके लिए उन्होंने क्या कदम उठाये। ट्रैक्टर परेड शांतिपूर्ण ढंगसे संपन्न हो, अलगाववादी, हिंसक तत्व लाभ उठाकर गणतंत्र दिवसको गुंडा तंत्र दिवसमें न बदले इसके लिए इन्होंने क्या पूर्व उपाय किये। आन्दोलनके नेतृत्वकर्ताओंको देशको बताना चाहिए कि उन्होंने क्या-क्या कदम उठाये। वास्तवमें निर्धारित समय और मार्गोंका पालन न करने, बैरिकेडोंको तोडऩे, पुलिसके साथ झड़प और अन्य गड़बडिय़ोंकी शुरुआत सिंधु बॉर्डरसे हुई लेकिन कुछ ही समयमें टिकरी और गाजीपुर सीमासे भी ऐसी ही तस्वीरें सामने आने लगी।
किसान नेता तीनों मार्गोंपर कहीं भी परेडमें शामिल नहीं दिखे। कायदेसे इन सबको अपने क्षेत्रोंमें परेडके साथ या उसके आगे चलना चाहिए था। जाहिर है, इन्होंने अपनी जिम्मेदारीसे पल्ला झाड़ा। यदि कोई आन्दोलन इस ढंगसे हिंसा और अलगाववादको अंजाम देने लगे तो उसकी जिम्मेदारी मुख्य रूपसे नेतृत्वकर्ताओंकी ही मानी जाती है। आन्दोलन नेतृत्वका श्रेय आप लेते हैंं तो फिर देशको शर्मसार करने आतंकका वातावरण बनाने, इतने लोगोंको घायल करने आदिका दोष भी आपके सिर जायगा। कायदेसे पुलिसको सबसे पहले इनके खिलाफ काररवाई करनी चाहिए थी। समयकी मांग है कि इस आन्दोलनको तुरन्त समाप्त किया जाय। वैसे भी तीनों कृषि कानूनोंका मामला इस समय सर्वोच्च न्यायालयमें है। वहांकी समिति इसपर बातचीत कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय फैसला देगा। इस तरहकी हठधर्मिता और झूठका परिणाम ऐसा ही होता है। किसान नेता अब देशसे क्षमा मांगे तथा स्वयंको कानूनके हवाले करें। ऐसा नहीं करते तो फिर कानूनी एजेंसियोंको ऐसा करना चाहिए।