सम्पादकीय

गांधीकी दृष्टिमें पर्यावरण संरक्षण


डा. धनंजय सहाय
महात्मा गांधीने जिन समस्याओंसे हमें अवगत कराया था उनपर स्वतन्त्र भारतमें सत्तानशीं होनेवाली सरकारोंने ईमानदारीसे अमल नहीं किया। यही कारण है कि स्वच्छता जैसे मसलेपर आजादीके लगभग सात दशकों बाद मोदी सरकारको अभियान चलाना पड़ा। पर्यावरण प्रदूषण मुद्दा अत्यन्त गम्भीर है। इसपर गांधीजीके विचार अत्यन्त प्रासंगिक हैं। इस बातमें कोई सन्देह नहीं है कि ईश्वरकी एक अनुपम कृति है मनुष्य और इस मनुष्यने अपनी बुद्धिका प्रयोग कर विकासके नित नये कीर्तिमान स्थापित किये परन्तु साथ ही यह भी कहा जाता है कि अति किसी भी चीजकी अच्छी नहीं होती है। मनुष्यका विकासके प्रति यह अनुराग अब उसके लिए ही अभिशाप बनता जा रहा है। तथाकथित विकासकी अंधी दौड़में शामिल मानव जातिने पर्यावरणको जिस तीव्र गतिसे प्रदूषित किया है वह अपने पैरोंपर स्वमेव कुल्हाड़ी मारने सरीखा है। आ बैल मुझे मारवाली कहावत चरितार्थ करते हुए मनुष्योंने पर्यावरणको इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि अब मानव जातिके अस्तित्वको लेकर ही प्रश्न खड़े किये जाने लगे हैं। पर्यावरण प्रदूषणकी इस भयावह समस्याका पूर्वानुमान राष्टï्रपिता महात्मा गांधीने काफी पहले ही कर लिया था। उनकी इसी दूरदृष्टिïके कारण उन्हें महामानव कहा जाता है।
नि:सन्देह आज मनुष्य चांद और मंगलपर पहुंच गया है, दुर्गम पहाड़ोंको काटकर आज वहां कभी असम्भव-सी लगनेवाली सड़कें और रेल हैं, आकाशको चूमती अट्टïालिकाएं हैं परन्तु यह सब किसकी कीमतपर है। तेजीसे कटते जंगल, तापमानमें बेतहाशा हो रही वृद्धि, पिघलते ग्लेशियर एवं वायु, ध्वनि एवं जल प्रदूषण यह साबित करनेके लिए पर्याप्त हैं कि मानवने प्रकृतिके साथ बड़ा ही घिनौना मजाक किया है। अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिमें अंधे मनुष्यने प्रकृतिका जो गैर-जिम्मेदाराना दोहन किया है वह उसके लिए काफी भारी पडऩे जा रहा है। गांधीजीने कहा था कि प्रकृतिके पास हमारी आवश्यकताओंको पूरा करनेके लिए बहुत कुछ है परन्तु हमारे लालच एवं भोगवादको पूरा करनेके लिए बहुत कम है।
वायु प्रदूषण आज कई व्याधियोंका जनक है। वनोंका कटाव, तीव्र गतिसे हो रहा औद्योगीकरण एवं यातायातके साधनोंसे निकलनेवाली हानिकारक गैसोंसे आज मनुष्य स्वच्छ हवाके लिए तरस रहा है जबकि जीवनके लिए शुद्ध हवा अति आवश्यक है। गांधीजीने इसपर प्रकाश डालते हुए कहा था कि मनुष्यका भौतिक शरीर पृथ्वी, जल, आकाश, सूर्य और वायु नामके पांच तत्वोंसे बना है। यह तत्व पंच महाभूत कहलाते हैं। इनमें सबसे आवश्यक तत्व हवा है। मनुष्य बिना भोजन किये कई सप्ताहतक जीवित रह सकता है। पानीके अभावमें भी मनुष्य कुछ समय बिता सकता है लेकिन हवाके बिना तो कुछ ही मिनटोंमें उसकी जीवनलीलाका अन्त हो सकता है। इसलिए ईश्वरने हवाको सबके लिए सुलभ बनाया है। अन्न और पानीकी कमी पैदा हो सकती है, हवाकी कमी नहीं। ऐसा होते हुए भी हम बेवकूफोंकी तरह अपने घरोंके अन्दर खिड़की और दरवाजे बंद करके सोते हैं और ईश्वरकी प्रत्यक्ष प्रसाद जैसी ताजी और साफ हवाका फायदा नहीं उठाते। विचारणीय प्रश्न यह है कि ईश्वरने हवाके रूपमें जो जीवनदायी अनमोल उपहार हमें सौंपा है, अपनी नादानीके चलते हमने उसे इस कदर अशुद्ध कर दिया कि अब वह विषैली हो चली है। प्रश्न चाहे ध्वनि प्रदूषणका हो या जल प्रदूषणका आज वह चिन्ताजनक स्तरपर पहुंच गया है। ओजोन परतमें हुआ छेद कोढ़में खाज सिद्ध हो रहा है।
पर्यावरण प्रदूषणके मसलेको लेकर विश्वमें चिन्ताएं बढ़ती ही जा रही हैं परन्तु इसपर कोई कारगर अमल नहीं हो पा रहा है, क्योंकि विकसित और विकासशील देश एक-दूसरेपर तोहमत जडऩेमें ही जुटे हुए हैं। पर्यावरणके मुद्देपर अन्तरराष्टï्रीय सम्मेलन हो रहे हैं परन्तु नतीजा वही ढाकके तीन पात वाला है। दरअसल अब भी पर्यावरण संरक्षणके लिए ईमानदार एवं गम्भीर कोशिशोंका सर्वथा अभाव है। भारत जैसे विकासशील देशमेें तेजीसे बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण प्रदूषणमें सहायक साबित हो रही है। शायद इसीलिए गांधीजीने गांवोंको आत्मनिर्भर बनानेकी वकालत की थी। खादीके साथ ही अन्य ग्रामोद्योगपर बल देना उनकी दूरदर्शिता थी। खादीके प्रबल हिमायती गांधीजी यह जानते थे कि खादीके उत्पादनसे जहां ग्रामीणोंको रोजगार मिलेगा वहीं इससे पर्यावरण प्रदूषणका भी खतरा नहीं है। कम पूंजी, कम तकनीक कुशलता एवं कम ऊर्जाकी खपतके बावजूद यह गांवोंसे शहरोंकी तरफ मनुष्योंके पलायन रोकनेमें सक्षम है।
आज क्या शहर, क्या गांव, सभी जगह गन्दगीका अम्बार है कहीं कम कहीं अधिक। गांधीजीने सफाईपर भी काफी बल दिया। उनका मानना था कि करीब-करीब सभी गांवोंमें घुसते समय जो अनुभव होता है उससे दिलको खुशी नहीं होती और वहां इतनी बदबू आती है कि अकसर गांवोंमें जानेवालेको आंख मूंदकर और नाक दबाकर जाना पड़ता है। हमने राष्टï्रीय या सामाजिक सफाईको न तो जरूरी गुण माना है और न उसका विकास ही किया। कूड़ा निस्तारण भी आज एक बड़ी समस्या है। गांधीजीने इसका भी उपाय बताया था। कूड़ोंका वर्गीकरण कर उन्होंने कुछसे खाद बनानेकी तो कुछको जमीनमें गाडऩेकी सलाह दी। कपड़ोंके फटे-पुराने चिथड़ों तथा रद्दी कागजोंसे कागज बनानेका सुझाव भी उन्होंने दिया। आम जनताका आह्वïान करते हुए उन्होंने कहा कि आप जो पानी पियें, जो खाना खायें और जिस हवामें सांस लें, वह सब बिल्कुल साफ होने चाहिए। हमारी गलतीको रेखांकित करते हुए गांधीजीने कहा था कि जो आदमी जहां चाहे वहां और जिस तरह चाहे उस तरह थूककर, कूड़ा-करकट डालकर, गन्दगी फैलाकर या दूसरे तरीकोंसे हवाको गन्दी करता है, वह कुदरत और मनुष्यके प्रति अपराध करता है। मनुष्यका शरीर ईश्वरका मन्दिर है। उस मन्दिरमें जानेवाली हवाको जो गन्दी करता है वह मन्दिरको भी बिगाड़ता है। काश तथाकथित विकासकी अंधी सुरंगमें सरपट भागता मानव इस सत्यको समझ पाता। यदि हम गांधीजीके विचारपर अमल करते हुए हमें न सिर्फ भोगवादी एवं विलासी संस्कृतिका परित्याग करना पड़ेगा, विकसित एवं विकासशील सभी देशोंको कंधेसे कंधा मिलाकर पर्यावरण संरक्षण हेतु ईमानदार प्रयास करना पड़ेगा तभी हम अपनी भावी पीढ़ीको एक स्वच्छ एवं सुरक्षित विश्व दे सकेंगे।