सम्पादकीय

अफगानिस्तानमें शांतिका रास्ता


 विष्णुगुप्त

तजाकिस्तानकी राजधानी दुशांबेमें हर्ट आफ एशियाकी बैठक आतंकवाद और मजहबी घृणापर नियंत्रण स्थापित करनेके दृष्टिकोणसे और अफगानिस्तानमें शांति स्थापित करनेकी दृष्टिसे अति महत्वपूर्ण समझी जा रही है। पहली बार ऐसा हुआ है कि जब दुनियाकी महत्वपूर्ण देश, तालिबानके समर्थक और तालिबानके विरोधी इस बैठकमें शामिल रहे हैं। चीन, रूस, भारत और ईरान भी इस बैठकके हिस्सा बनें। खास कर भारतको इस बैठकका हिस्सा बनाना आश्चर्यजनक घटना मानी जा रही है। हालके वर्षोंमें पाकिस्तानकी आतंकवादी नीति और तालिबानकी बर्बरताको तुष्ट करनेके लिए चीन और रूसने संरक्षण और सहयोग देना शुरू कर दिया है। इससे तालिबान और पाकिस्तानको अफगानिस्तानमें नयी शक्ति मिली है। तालिबानको खड़ा होनेका अवसर मिला है। अमेरिकी कूटनीति कहती रही है कि चीन और रूसने तालिबानको अप्रत्यक्ष मदद कर अफगानिस्तानमें शांतिको स्थापित करनेके खिलाफ गुनहगार बन गये हैं। चीन और रूस अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिमें अमेरिका और भारतकी परेशानियां बढ़ानेके लिए तालिबानको एक मोहरेकी तरह प्रयोग करनेकी इच्छा रखते हैं। चीन और रूसके निशानेपर सीधे तौरपर भारत था। हर्ट ऑफ एशियाकी बैठकमेें किसी भी परिस्थितिमें भारतको शामिल करनेके लिए रूस, चीन, पाकिस्तान विरोध कर रहे थे जबकि तालिबान चुप तो जरूर था परन्तु वह अंदरसे भारतको इस बैठकमें शामिल करनेके खिलाफ था। परन्तु अमेरिका, तजाकिस्तान और अफगानिस्तानकी वर्तमान सत्ता यह चाहती थी कि इस बैठकमें भारत अनिवार्य तौरपर शामिल हो। अमेरिकाने अपने वीटोका प्रयोग किया और यह संदेश दिया कि यदि भारतको इसमें शामिल नहीं किया जायेगा तो फिर इस बैठकका कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। अतएव भारतको बैठकमें शामिल करनेपर सहमति बनीं।

भारतने जो सुझाव दिया है उससे अफगानिस्तानमें शांतिकी उम्मीद बनती है और दुनियाके बर्बर और अमानवीय मानसिकता रखनेवाले देशोंकी कुइच्छाएं अफगानिस्तानमें विध्वंसको प्राप्त होगी? भारतने अफगानिस्तानका सर्वागीण हितको देखा और शांतिकी संपूर्ण मापदंडोंको चुना, इसके बाद ही सुझाव दिये हैं। भारतने दोहरी शांतिकी व्यवस्थाकी बात की है। दोहरी शांतिकी व्यवस्थापर मंथन भी हुआ। दोहरी शांतिकी व्यवस्थापर चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देशोंका विरोध था परन्तु भारतकी दोहरी शांतिके सिद्धांतसे न केवल अमेरिका चमत्कृत हुआ, बल्कि अफगानिस्तानकी वर्तमान सरकार भी चमत्मकृत थी। ईरान और तजाकिस्तानकी इस्लामिक सरकार भी चमत्कृत थी। प्रश्न है कि भारतकी दोहरी शांति सिद्धांत है क्या? भारतका दोहरी शांतिका सिद्धांत यह है, पहली शांति अफगानिस्तानमें होनी चाहिए यानी कि अफगानिस्तानमें सत्ताके जितने भी दावेदार हैं उनके बीच सहमति बने और आतंकवादको नेस्तनाबूत करना है। दूसरा सिद्धांत अफगानिस्तानके पड़ोसी देशोंमें शांति स्थापित हो। यानी तालिबान अलकायदाका समर्थन देना बंद कर देनेसे है। साथ ही भारतने यह भी कहा कि अफगानिस्तानकी लोकतांत्रिक व्यवस्थाका हर हालमें संरक्षण दिया जाना चाहिए, लोकतांत्रिक व्यवस्थाका सक्रिय और गतिमान रखा जाना चाहिए। अबतक अफगानिस्तानमें शांति क्यों नहीं आयी। वह अपने पैरोंपर खड़ा क्यों नहीं हो पाया। जब हम इन तथ्योंकी ओर दृष्टि डालेंगे तो पायेंगे कि अफगानिस्तानके पड़ोसी देश ही इसके गुनहगार है। पडोसी देशोंकी करतूतकी ही सजा अफगानिस्तानकी जनता भुगतनेको बाध्य हो रही है। खासकर पाकिस्तान और चीन दोनोंके अपनी कुदृष्टि है। पाकिस्तानने विगतमें आतंकवादको कुचलनेके नामपर अमेरिका और यूरोपका भरपूर दोहन किया, अरबों-खरबों डालर वसूला। जबकि अफगानिस्तानकी अशांति और तालिबान-अलकायदाका हिंसक आतंकवाद पाकिस्तानकी कोखसे जन्मा हुआ है, संरक्षणकर्ता भी पाकिस्तान ही है। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्पने पाकिस्तानकी आतंकवादी नीतिकी गर्दन दबा दी, पाकिस्तानको दी जानेवाली राहत और सहायता राशि तथा डालरपर रोक लगा दी। फलस्वरूप पाकिस्तान कंगाल हो गया। फिर भी पाकिस्तान अफगानिस्तानको अपना गुलाम समझनेकी कृदृष्टि छोडऩेके लिए तैयार नहीं है। पाकिस्तानकी सेना और आईएसआईका तालिबानके साथ संबंध पहलेकी तरह ही कायम है। इसके अलावा चीन भी तालिबानको अपने पक्षमें रखनेके लिए संरक्षण दे रहा है। चीनकी कोशिश अफगानिस्तानमें भारतकी भूमिकाको रोकना है।

सर्वांगीण, समुचित और शांति सहमतिके बिना अफगानिस्तान वर्तमान हिंसा-आतंकवादके दंशसे मुक्ति नहीं पा सकता है। अब भी अफगानिस्तानमें पुलिस और सैनिक व्यवस्था नहीं बनी है जिससे तालिबानकी हिंसा बर्बर होकर शिकार बनाती है। भारतने अफगानिस्तानमें रचनात्मक प्रयास किये है, रचनात्मक विकासको नयी ऊंचाइयां दी है। अफगानिस्तानकी संसद भवन भारतकी देन है, सामरिक रूपसे कई महत्वपूर्ण सड़कोंका भी भारतने निर्माण किया है। अफगानिस्तानकी पुलिस और सैनिक व्यवस्था भी भारतने बनायी है। भारतने अफगानिस्तानमें अरबों-खरब डालर खर्च किये है। यही कारण है कि अफगानिस्तानकी वर्तमान सरकार ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तानकी जनताके बीच भारतकी छवि एक नायककी है। अफगानिस्तानकी जनता भारतको अपना मददगार मानती है। अफगानिस्तानकी वर्तमान सरकार, जनता और बर्बर तालिबानको भी यह मालूम है कि डालर कहांसे मिलेगा, आर्थिक सहायता कहांसे मिलेगी, भारत ही रचनात्मक विकासके लिए आर्थिक सहायता करेगा। पाकिस्तान, चीन और रूस तो सिर्फ आतंकवादी हिंसाके लिए प्रेरित करेंगे, यह डॉलर और आर्थिक सहायता थोड़े देंगे?  डोनाल्ड ट्रम्पकी अफगानिस्तान और तालिबान नीति बेजोड़ थी। डोनाल्ड ट्रम्प अफगानिस्तानसे निकलनेकी नीतिपर काम कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने तालिबानको वार्ताके लिए मजबूत किया था। अमेरिकाके नये राष्ट्रपति जो बाईडेन भी अफगानिस्तानमें अपनी सेना हटाना चाहते हैं। जो बाईडेन समय-समयपर सख्त संदेश भी दे रहे हैं। जो बाईडेनने भारतकी इस दोहरी शांति सिद्धांतपर अपनी सहमति दी है। अमेरिकाको अब सख्त संदेश देना होगा। खास कर तालिबानको संदेश यह देना होगा कि जबतक वह आतंकवादका सपना नहीं छोड़ता है तबतक वहां तालिबानकी भी कोई भूमिका स्वीकार नहीं हो सकती है। तालिबानको भी यह अहसास होना ही चाहिए कि जबतक अमेरिका और उसके सहयोगी देश नहीं चाहेंगे तबतक उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति अफगानिस्तानमें संभव ही नहीं हो सकती है, भारतके हितकी कीमतपर उसकी पाकिस्तानपरस्ती और भक्ति आत्मघाती ही होगी।