सम्पादकीय

कांग्रेसी आलाकमानको मंथनकी जरूरत


 रवि शंकर

कांग्रेसकी सर्वोच्च नेता सोनिया गांधीके राजधानी स्थित बंगलेके बाहर सन्नाटेके लिए सिर्फ कोरोना महामारीके कारण उत्पन्न स्थितियां ही अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। इस सन्नाटे तथा उदासीके लिए मुख्य रूपसे पश्चिम बंगालके हालिया चुनावोंमें कांग्रेसकी करारी पराजय भी जिम्मेदार है। पश्चिम बंगाल और असम, केरल, पुडुचेरी विधानसभा चुनावके नतीजे आ चुके हैं। बंगालमें तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) ने केरलमें वाम मोर्चा और असम तथा पुडुचेरीमें भाजपाने सत्ताकी कमान संभाल लिया है। यानी कांग्रेसका सूपड़ा साफ। कांग्रेसके शिखर नेता राहुल गांधीने पश्चिम बंगालमें जहांपर भी रैलियांकी वहांपर कांग्रेसको मतदाताओंने सिरेसे नकारा। सभी क्षेत्रोंमें कांग्रेसकी जमानत भी जब्त हो गयी। कांग्रेसने विधानसभा चुनावोंमें परिणामत: अपना खाता भी नहीं खोला। उसे २९२ सदस्यीय विधानसभामें एक भी सीटतक नहीं मिली। यह अप्रत्याशित नतीजे हैं। पश्चिम बंगालमें कांग्रेसको सिर्फ ३.०२ प्रतिशत वोट ही मिल सके, जबकि पिछले चुनावोंमें पार्टीको यहां उसे १२.२५ प्रतिशत वोट मिले थे। उसका जनताके बीच ग्राफ लगातर गिरता ही जा रहा है। उसे रोकनेकी भी कहीं कोशिश होती नजरतक नहीं आ रही।

राहुल गांधीने १४ अप्रैलको मतिगारा-नक्सलबाड़ी तथा गोलपोखरमें रैलियां की। सब जगहोंमें कांग्रेसके उम्मीदवार बुरी तरह हारे। कांग्रेस आलाकमान हर बारकी तरहसे इस बार भी अपनी हारपर माथापच्ची तो करेगी, परन्तु निकलेगा कुछ भी नहीं। सोनिया गांधीने पश्चिम बंगाल चुनावोंमें पार्टीके बेहद खराब प्रदर्शनपर चर्चाके लिए कांग्रेस कार्य समितिकी बैठक बुलायी है। दरअसल देश कांग्रेसको लगातार खारिज करता जा रहा है। पश्चिम बंगालमें कांग्रेसने वामपंथी दलोंके साथ भी गठबंधन किया था, जिसे महाजोट कहा जा रहा था। जनता भी ध्यानसे देख रही थी कि जो दो दल राज्यमें दशकोंतक लगातार एक-दूसरेकी जानके दुश्मन रहे वह साथ कैसे आ गये। इनका मिलन जनताको समझमें नहीं आया और इस अवसरवादी महाजोटको जनताने सिरेसे नकार दिया। एक कारण यह भी रहा कि इस महाजोटमें घोर सांप्रदायिक मुस्लिम नेता शामिल थे, जिन्हें मतदाओंने नकार दिया।

हैरानी तो यह है कि मुशर्दिबाद और मालदा जिलोंकी सीटोंपर भी कांग्रेस हारी। इन क्षेत्रोंको तो परम्परागत रूपसे कांग्रेसका गढ़ माना जाता था। कांग्रेस तथा लेफ्टकी पश्चिम बंगालमें विशाल रैलियां तो हुईं, लेकिन इन्हें एक भी सीट नहीं मिली। दोनों पार्टियां ही पराजित हो गयीं। दोनोंने अलग-अलग समयोंमें राज्यमें एकछत्र लम्बे समयतक राज किया है। पश्चिम बंगालमें जो लड़ाईमें थे वही नतीजोंमें भी हैं। यदि पिछले राज्य विधानसभा चुनावोंकी बात करें तो कांग्रेस तथा लेफ्टको कुल मिलाकर ७६ सीटें मिली थीं तो इस बार क्या हो गया। एक बात तो यह भी लगती है कि कांग्रेसकी हारके लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधीके साथ पार्टीके कुछ दूसरे नेताओंको भी जिम्मेदारी लेनी होगी। कांग्रेसमें कपिल सिब्बल, पी. चिदंबरम, मनीष तिवारी, अभिषेक मनु सिंघवी, समेत दर्जनों इस तरहके कथित नेता हैं जिनका जनतासे कोई संबंधतक नहीं है। यह लुटियन दिल्लीके बड़े विशाल सरकारी बंगलोंमें रहकर राजनीति करते हैं। यह सब बड़े मालदार कमाऊ वकील हैं। वकालतसे थोड़ा बहुत वक्त मिल जाता है तो सियासत भी करने लगते हैं। इन्हें लगता है कि चैनलोंकी डिबेटमें आनेसे वह पार्टीकी महान सेवा कर रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि पश्चिम बंगालमें कांग्रेस प्रचारके शुरूसे ही कहीं नहीं थी। राज्यमें मुख्य लड़ाई तो तृणमूल कांग्रेस और भाजपाके बीच ही थी। कांग्रेस तो सिर्फ अपनी मौजूदगीभर दिखा रही थी। परन्तु लड़ाईमें आनेकी कांग्रेसने कभी कोशिश भी कहां की। कांग्रेसके नेताओं और कार्यकर्ताओंको भी यह पता था कि उनके लिए इस बार कोई उम्मीद नहीं है। परन्तु यह भी तो किसीने नहीं सोचा था कि उसका खाता ही नहीं खुलेगा। कांग्रेसमें केन्द्रीय नेतृत्व पिछले दो दशकसे लगातार कमजोर हो रहा है, क्योंकि वह पार्टीको कहीं विजय नहीं दिला पा रहा है। केन्द्रीय नेतृत्व तब ताकतवर होता है जब उसकी जनताके बीचमें कोई साख होती है। इसलिए माना जा सकता है कि उसके खिलाफ भी आवाजें अब और मुखर तरीकेसे उठने लगेंगी। पिछले यानी २०१९ के लोकसभा चुनावको जरा याद कर लेते हैं। तब ही केरल और पंजाबको छोड़कर कहीं भी कांग्रेसका प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा था। कांग्रेसका मतलब पंजाबमें राहुल गांधी नहीं हैं। वहांपर पूर्व पटियाला नरेश कैप्टन अमरिंदर सिंहके अपने जलवे है। उसी कैप्टन अमरिंदर सिंहके खिलाफ राहुल गांधीने कभी नवजोत सिंह सिद्धूको खड़ा किया था। सिद्धू राहुल गांधीके प्रिय हैं। कैप्टनके न चाहनेके बाद भी सिद्धूको कांग्रेसमें एंट्री मिली थी। राहुल गांधीने सिद्धूको सारे देशमें प्रचारके लिए भेजा था। सिद्धूने सभी जगहोंमें जाकर भाजपा और मोदीके खिलाफ अपनी भाषाका इस्तेमाल किया। यह सब जनता देख रही थी। सिद्धू जहां भी गये वहांपर उनकी पार्टी परास्त ही हुई। वैसे लोकतंत्रमें वाद-विवाद-संवाद तो होते ही रहना चाहिए। संसदमें भी खूब सार्थक बहस होनी चाहिए। यह लोकतंत्रकी मजबूतीके लिए पहली शर्त है। परन्तु लोकतंत्रका यह कबसे अर्थ हो गया कि आप अपने राजनीतिक विरोधीपर लगातार अनर्गल मिथ्या आरोप लगाते रहें। कांग्रेसके साथ एक बड़ी समस्या यह भी है कि अब उसकी दुकानोंमें इस तरहकी कोई चीज नहीं ही है जिसके चलते जनतारूपी ग्राहक उससे जुड़ें। कांग्रेसके पास युवा नेताओंका नितांत अभाव नजर आ रहा है। देशका युवा उससे अपनेको जोड़कर नहीं देखता। यही कांग्रेसके लिए बड़ी समस्या है। यदि उससे नौजवान ही दूर हो जायंगे तो फिर उससे अपनेको जोड़ेगा कौन। कांग्रेस आलाकमानको अपनी गलतियोंको देखना होगा और देशहितमें पार्टीको खड़ा करना भी होगा। देश कांग्रेससे सशक्त विपक्षकी भूमिकाको निभानेकी उम्मीद करता है। लोकतंत्रमें विपक्षकी भूमिकाको कम करके नहीं आंकी जा सकती है। जुझारू विपक्ष सरकारके कामकाजपर नजर रखते हुए उसे उचित मुद्दोंपर घेर सकता है। परन्तु कांग्रेसने तो अपनी स्थिति स्वयं बेहद दयनीय कर ली है। यह भारतीय लोकतंत्रके लिए चिंतनीय है।