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किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका स्वतंत्र क्यों होनी चाहिए?


सीबीपी श्रीवास्तव। अमेरिका में भारतवंशियों को संबोधित करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने राजनीतिक दलों की मंशा पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए एक बात बिल्कुल साफ कर दी है कि न्यायपालिका पूर्णत: स्वतंत्र संस्था है, जिसका कारण यह है कि वह केवल देश के संविधान के प्रति जवाबदेह है। मुख्य न्यायाधीश की यह बात भारत के संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए उसके कार्यो की ओर एक स्पष्ट संकेत है। वैसे भी जवाबदेही एक लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है, जो किसी संस्था को संवेदनशील बनती है। साथ ही पारदर्शिता जवाबदेही को सुगम बनाती है। कोई भी सार्वजनिक संस्थान या सार्वजनिक पदाधिकारी जवाबदेही से मुक्त नहीं है।

जहां तक न्यायिक जवाबदेही का प्रश्न है तो यह कार्यपालिका या विधायिका या किसी अन्य सरकारी संस्थान की जवाबदेही के समान स्तर पर नहीं है। आज के समय में खास कर विधायिका, कार्यपालिका और अधिकांश सरकारी संस्थानों की गुणवत्ता, अखंडता और दक्षता में लोगों का विश्वास कम हो गया है। केवल न्यायपालिका ही एक ऐसी संस्था है, जिसकी विश्वसनीयता पर हम सामान्यत: प्रश्न चिह्न नहीं लगाते। निश्चित रूप से इसका मुख्य कारण उसकी संवैधानिक जवाबदेही है।

स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व : किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका स्वतंत्र क्यों होनी चाहिए? विशेषकर यदि उस देश का राजनीतिक ढांचा परिसंघीय है तब स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व और भी बढ़ जाता है। भारत का राजनीतिक ढांचा इस रूप में विशिष्ट है कि इसमें संघ और परिसंघ, दोनों के गुण मौजूद हैं। इसका स्पष्ट उल्लेख संविधान के अनुच्छेद एक में है। इस ढांचे के अनुरूप यहां राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक, तीनों ही स्तरों पर शक्तियों का विकेंद्रीकरण है। संघ और राज्यों को संवैधानिक रूप से कानून बनाने के लिए तीन सूचियों का उल्लेख है। उनमें अलग-अलग विषय रखे गए हैं। इसका उद्देश्य कानून बनाने में किसी भी प्रकार के संघर्ष या विवाद को रोकना है। इसके बावजूद कई ऐसी स्थितियां आ सकती हैं जब टकराव की स्थिति बने। इससे बचाने के लिए ही उच्चतम न्यायालय को आरंभिक अधिकारिता दी गई है, ताकि वह ऐसे विवादों का निपटारा कर सके। उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 135 में परिसंघीय न्यायालय की शक्तियां भी दी गई हैं। यही उसकी आरंभिक अधिकारिता का आधार है। ऐसी स्थिति में यह अनिवार्य है कि न्यायपालिका पूर्णत: स्वतंत्र हो और विवाद का निपटारा करने के समय वह संघ और राज्य, दोनों के ही कानून बनाने के अधिकार की रक्षा कर सके।

दूसरी ओर लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के अधिकार सवरेपरि होते हैं। उनकी रक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका का है। इसमें राज्य के प्राधिकार और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाया गया है, ताकि दोनों के शक्ति संबंधों में संतुलन बना रहे और राजनीतिक-प्रशासनिक प्रणाली के कार्यो में कोई व्यवधान नहीं हो। तभी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा सही साबित हो सकती है और तभी संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति भी संभव है। इसके लिए संविधान ने राज्य और नागरिक, दोनों की ही शक्तियों के प्रयोग की सीमा का निर्धारण किया है। इस संकल्पना को ही संविधानवाद कहा जाता है। इसी कारण एक संविधानवादी सरकार को सीमित सरकार भी कहते हैं, जिसका उद्देश्य उसे स्वेच्छाचारी होने से रोकना है। राज्य-नागरिक शक्ति संबंधों को संतुलित करने के लिए भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता अनिवार्य है। यही स्वतंत्रता उसे निष्पक्ष और जवाबदेह बनाती है।

न्यायिक जवाबदेही : यह समझना आवश्यक होगा कि न्यायपालिका किस रूप में और किसके प्रति जवाबदेह है। सबसे पहले, यहां हम न्यायिक जवाबदेही पर बात करेंगे। जवाबदेही के पहले स्वरूप को वैयक्तिक जवाबदेही कहा जा सकता है जिसमें प्रत्येक न्यायाधीश वैयक्तिक रूप से न्याय देने के लिए जवाबदेह है। चाहे न्याय का स्वरूप सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक हो, न्यायाधीश का यह दायित्व है कि वह निष्पक्षता के साथ न्याय उपलब्ध कराए और इस दौरान यह सुनिश्चित करे कि कानूनी न्याय देने में प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन नहीं हो।

दूसरी जवाबदेही निर्णयन से संबंधित है। यहां पहले प्रशासनिक और न्यायिक निर्णयन में अंतर स्पष्ट करना समीचीन है। प्रशासनिक निर्णयन सामान्यत: व्यक्तिनिष्ठता पर आधारित होता है, जिसका मूल कारण यह है कि प्रशासक द्वारा निर्णय करने के दौरान उसके लिए पूरी सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रखना आवश्यक होता है, विशेषकर जब विकल्पों की संख्या कम हो। इस कारण अधिकांशत: हमें ऐसा लगता है कि प्रशासनिक निर्णय पूर्वाग्रह से प्रेरित होता है। इसके विपरीत जब न्यायालय कोई निर्णय देता है, तब वस्तुनिष्ठता सवरेपरि होती है और तथ्यों तथा साक्ष्यों के आधार पर अलग-अलग मामलों में उसकी आवश्यकता के अनुरूप निर्णय लिए जाते हैं। उच्चतम न्यायालय ने स्वयं यह कहा है कि न्याय चाहे कानूनी हो या नैसर्गिक अंतिम रूप से व्यक्ति तक उपलब्ध होना चाहिए। और यदि किसी समय कानूनी न्याय सही अर्थ में न्याय उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हो तब नैसर्गिक (प्राकृतिक) न्याय को वरीयता दी जाएगी। स्वाभाविक रूप से इसके लिए वस्तुनिष्ठ निर्णयन अनिवार्य है।

जवाबदेही का तीसरा स्वरूप संस्थागत जवाबदेही का है। इसका अर्थ यह है कि न्यायपालिका के कार्यो में राजनीतिक या प्रशासनिक, किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इसी संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश की बात अत्यंत गंभीर है जब उन्होंने यह कहा कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल न्यायालय से यह अपेक्षा रखता है कि उसके सभी कार्यो को न्यायपालिका का समर्थन मिले और विपक्षी दलों की अपेक्षा यह होती है कि न्यायपालिका उनकी राजनीतिक स्थिति और अभिलाषाओं की पूर्ति में उनका सहयोग करे। ऐसी स्थिति में मुख्य न्यायाधीश ने यह बात साफ कर अच्छा ही किया कि न्यायपालिका केवल संविधान के प्रति जवाबदेह है। यही जवाबदेही न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करती है, जिसे हम संस्थागत जवाबदेही कह सकते हैं।

शक्ति पृथक्कीकरण का सिद्धांत भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और उसकी निष्पक्षता बनाए रखने में सबसे अधिक योगदान देता है। हालांकि भारत में यह उतने कठोर रूप में प्रचलित नहीं है, क्योंकि भारत मूलत: संसदीय तंत्र है और अनिवार्य रूप से संघ है। इसकी स्थापना शक्ति संलयन या शक्ति समन्वय के सिद्धांत पर की गई है। इसी कारण दोनों में से किसी भी सिद्धांत का स्पष्ट उल्लेख सभी स्थानों पर नहीं है। शक्तियों के समन्वय के सिद्धांत के प्रचलन के लिए अनुच्छेद 75(3) में मंत्रिपरिषद को सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है, जो प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन है। दूसरी ओर अनुच्छेद 50 में प्रत्यक्ष रूप से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्कीकरण यानी बंटवारे का उल्लेख है। विधायिका और न्यायपालिका के बीच ऐसा पृथक्कीकरण अप्रत्यक्ष रूप से अनुच्छेद 121 और 122 में है, जिनमें क्रमश: न्यायाधीश के आचरण पर संसद में सामान्य रूप से चर्चा पर रोक और संसदीय कार्यवाहियों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप को रोकने का प्रविधान है। इस शक्ति पृथक्कीकरण से संविधान ने भारत में न्यायपालिका को निष्पक्ष और जवाबदेह बनाया है।

ध्यातव्य हो कि स्वतंत्र न्यायपालिका के निरंकुश हो जाने का भी अंदेशा होता है। संविधान निर्माताओं ने निश्चित रूप से इस पर गंभीर विचार किया होगा। तभी उसकी व्यवस्था की गई है। इस संदर्भ में संविधान के एक अति विशिष्ट गुण का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। संविधान में विधायी शक्तियां संसद और राज्य विधायिका में निहित हैं। इसी प्रकार कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति तथा राज्यपाल को सौंपी गई हैं, लेकिन इसके विपरीत समस्त न्यायिक शक्तियां न्यायपालिका के बदले संविधान में निहित हैं, ताकि न्यायिक कार्यो और न्यायपालिका के निर्णयन की प्रक्रिया पर संवैधानिक अंकुश लगा रहे। चाहे रिट संबंधी कार्य हों या अपीलीय अधिकारिता या परामर्शी अधिकारिता, सभी का उल्लेख स्पष्ट रूप से संविधान के अलग-अलग अनुच्छेदों में है। इसी प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति भी संविधान से ही मिलती है। हाल के वर्षो में जब न्यायपालिका ने स्वत: संज्ञान लेकर सक्रियता दर्शायी है तब कई बार उसके निर्णयों की आलोचना भी की गई है। यहां यह उल्लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है कि न्यायिक सक्रियता के लिए भी उसे अनुच्छेद 142 से ही शक्ति प्राप्त होती है, जिसमें पूर्ण न्याय देने के लिए उसे उत्तरदायी बनाया गया है। ऐसे सभी प्रविधान न केवल उसे निरंकुश होने से रोकते हैं, बल्कि उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करते हुए उसे केवल संविधान के प्रति जवाबदेह बनाते हैं। स्वयं उच्चतम न्यायालय ने एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ, 1997 मामले में यह स्पष्ट कर दिया है कि हालांकि समस्त न्यायिक शक्तियां संविधान में निहित हैं, लेकिन शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत के प्रचलन में होने के कारण उसकी स्वतंत्रता पूर्णत: सुरक्षित है।

जिस प्रकार संविधान ने न्यायपालिका को प्रतिष्ठित किया है, वह यह दर्शाता है कि लोकतांत्रिक अधिकारों और भारत के राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचे के संरक्षण के लिए उसकी जवाबदेही न तो किसी राजनीतिक दल के प्रति है और न ही किसी संस्था के प्रति। वह केवल संविधान के प्रति जवाबदेह है और इसी कारण उसके निर्णयों पर हमें विधायिका और कार्यपालिका के निर्णयों की तुलना में अधिक भरोसा है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे संवैधानिक प्रविधानों के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना आवश्यक है। इसके लिए सामान्य भाषा में संविधान की समझ विकसित करने की कवायद की जानी चाहिए।