डा. श्रीनाथ सहाय
पश्चिम बंगालकी मुख्य मंत्री ममता बनर्जी इस बार अपने राजनीतिक जीवनके सबसे कड़े मुकाबलेसे गुजर रही हैं। दस साल पहले वामदलकी सरकारके शासनका अंत करके सत्तापर काबिज होनेवाली ममता चुनावी अखाड़ेमें खूब पसीना बहा रही है। ममताको कड़ी चुनौती भाजपासे मिल रही है। ममता भी भाजपाके हर हमलेपर पलटवार करनेसे चूक नहीं रही हैं और वह दावा कर रही हैं कि वह एक पैरसे बंगाल और दो पैरोंसे प्रचार करके दिल्लीकी कुर्सीपर काबिज हो जायंगी। ममताकी ऐसी बयानबाजी तृणमूलके नेताओं और कार्यकर्ताओंमें तो जोश भरती हैं। लेकिन वहीं पार्टीके कई छोटे-बड़े नेताओंके भाजपामें जानेसे उनकी ताकत काफी कम हुई है। वहीं मुस्लिम वोटोंके लिए दीदीको मुस्लिम मतदाताओंसे मंचसे अपने पक्षमें अपील करनी पड़ रही है। किसी जमानेमें मंचसे मुस्लिमोंको रिझानेके लिए कलमे पढऩेवाली दीदी इन दिनों मंचसे चण्डी पाठ करती दिख रही हैं। कुल मिलाकर भाजपा, फुरफरा शरीफ और ओवैसीकी पार्टीने ममताका चुनावी गणित बुरी तरह गड़बड़ा दिया है और सत्ता हाथसे निकलनेकी आशंकाके चलते ममताकी भाषा चुनावके हर चरणके बाद तीखी होती जा रही है।
२०१९ के लोकसभा चुनावसे ही बंगालकी राजनीतिक फिजा बदलने लगी थी। जब भाजपाके १८ सांसद बंगालसे जीते थे। वहीं विधानसभा चुनावके पहले उनकी पार्टी तृणमूलके ढेर सारे नेताओंका भाजपामें चला जाना उनके गुस्सेको बढ़ानेवाला रहा। लेकिन उनकी नाराजगी इस बातपर ज्यादा है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और स्वराष्टï्रमंत्री अमित शाहने बंगालमें भाजपाके प्रचारकी बागडोर संभाल रखी है। ममताने बाहरी बनाम बंगालवासीको मुद्दा बना रखा है। इसी मुद्देपर अपने चुनाव अभियानको केन्द्रित रखते हुए बंगालकी बेटीका नारा गुंजा दिया। तीसरे दौरके मतदानके एक दिन पहले उन्होंने तीखे शब्दोंमें ममता बनर्जीने कहा कि बंगालपर गुजरातके लोगों (मोदी-शाह) को राज नहीं करने देंगे। चुनाव परिणाम तो मतदाता तय करेंगे किन्तु प्रांतवादकी यह धारणा राष्टï्रीय एकताके लिए नुकसानदेह है। सवाल यह है कि क्या बंगाल सिर्फ बंगालियोंका है? इसी तरह क्या केवल मराठी भाषी महाराष्टï्र और तमिल बोलनेवाले तमिलनाडुमें रह सकते हैं? ममताकी अपनी पार्टीके तमाम प्रवक्ता गैर-बंगाली हैं। चुनाव जीतनेके लिए जिन प्रशांत किशोरकी सेवाएं उनके द्वारा ली जा रही हैं वह भी बाहरी हैं। बंगाल सहित पूरे पूर्वोत्तरमें मारवाड़ी व्यवसायी पीढिय़ोंसे रह रहे हैं और इस अंचलके औद्योगिक विकासमें उनकी महती भूमिका रही है। बंगालमें भले ही गुजराती मूलके लोग कम हों लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहारसे लाखों लोग वहां रोजगारके लिए आये और वहींके होकर रह गये।
बाहरी व्यक्तिको लेकर स्थानीय भावनाएं दरअसल रोजगारके अवसर छिन जानेकी आशंकासे उग्र होती हैं। लेकिन जिस संदर्भमें ममता बनर्जीने बंगालपर किसी गुजराती द्वारा राज नहीं किये जानेकी बात कही और उससे उनका मानसिक तनाव ही व्यक्त हुआ है। दूसरे चरणके मतदानसे ठीक एक दिन पहले ममता बनर्जीने गैर-भाजपा नेताओंको पत्र लिखकर सियासी हलचल मचा दी है। तृणमूल कांग्रेसकी मुखियाने इस पत्रके जरिये विपक्षी राजनीतिक दलोंसे भाजपाके खिलाफ एकजुट होकर लडऩेकी अपील की है। दीदीके इस पत्रके सामने आते ही भाजपाने इसे ममता बनर्जीकी हारका संकेत बता दिया है। भाजपाको बाहरी बतानेवाली ममता बनर्जीको प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीने बाहरी पार्टियोंसे समर्थन मांगनेवाला बता दिया है। इस पत्रमें विधानसभा चुनावके बाद लोकतंत्र और संविधानको बचानेके लिए भाजपाके खिलाफ साझा प्रयासकी बात कही गयी है। यह प्रयास पहले भी हो चुका है और उसका नतीजा पिछले लोकसभा चुनावमें सबके सामने है। सवाल है कि ममता बनर्जीको चुनावके बीचमें इस पत्रको लिखनेकी जरूरत क्यों पड़ गयी? जानकारोंकी माने तो ममता बनर्जीके सामने भाजपाके स्टार प्रचारकोंकी फौज खड़ी है। कहा जा सकता है कि वह इस फौजके आगे अकेली पड़ गयी हैं। ममता बनर्जीको देशभरके कई विपक्षी दलोंने अपना समर्थन देनेकी घोषणा की है। इन नेताओंने तृणमूल कांग्रेसके पक्षमें रैलियां भी की हैं, लेकिन समर्थन देना और वोट मिलना दो अलग-अलग बात हैं। शिवसेनाने दीदीको बंगालकी शेरनी बताते हुए समर्थन जताया था, लेकिन शिवसेनाका बंगालमें कितना वोट है, इसपर भी ध्यान देना होगा। हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव आदिने ममता बनर्जीके पक्षमें प्रचार किया है। सीमांत लोकसभा सीटोंपर भाजपाका दबदबा है। इस स्थितिमें यह नेता टीएमसीको कितने वोट दिला पायंगे, ये देखनेवाली बात होगी।
ममताकी बेचैनी भाजपाकी साथ-साथ फुरफुरा शरीफने बढ़ा रखी है। फुरफुरा शरीफ पश्चिम बंगालके हुगली जिलेके जंगीपारामें स्थित एक गांवका नाम है। यहां स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह बंगाली मुसलमानोंकी आस्थाका केंद्र है। यहां होनेवाले सालाना उर्समें बंगाली और उर्दू भाषी मुसलमान बड़ी संख्यामें आते हैं। इस दरगाहका बंगालकी सौसे ज्यादा सीटोंपर असर है। हालांकि सिद्दीकी परिवारके बाकी सभी सदस्य ममता बनर्जीका सपोर्ट कर रहे हैं, लेकिन अब्बास सिद्दीकीने लेफ्ट-कांग्रेसके साथ मिलकर संयुक्त मोर्चेका गठन किया है और चुनावी मैदानमें हैं। बंगाल चुनावके चंद दिनों पहले इंडियन सेक्युलर फ्रंट नामकी पार्टी बनानेवाले और फुरफुरा शरीफके पीरजादा अब्बास सिद्दीकीका कहना है कि जिस तरह कांग्रेस, लेफ्ट और हिंदु-मुस्लिमसे वोट मांगे और सरकारें चलायीं, उसी तरह वह भी हिंदू बहन-भाइयोंसे वोट मांग रहे हैं और उनकी सेवा करना चाहते हैं। उनका कहना है, हमारी पार्टीको जो लोग कम्युनल बता रहे हैं, असलमें वह खुद कम्युनल हैं।
बंगालमें यदि वोटोंमें कोई गड़बड़ नहीं की गयी तो संयुक्त मोर्चा ही सरकार बनायगा। ममताकी बिगड़ी भाषासे ऐसा आभास हो रहा है कि क्या नंदीग्राममें दीदीके चुनावी समीकरण उलट-पुलट हो गये? क्या खुद मुख्य मंत्रीका ही ‘खेलाÓ खराब हो गया? क्या मतदान हिंसाकी लपटोंमें और सांप्रदायिक रूपसे बंटे माहौलमें संपन्न नहीं हो सका, जैसा कि ममताने रणनीति बुनी होगी? किसी भी पक्षकी जीत-हारका दावा कोई नहीं कर सकता, लेकिन नंदीग्रामकी घटनाओंसे स्पष्टï है कि ममता दबावमें हैं। पैरमें चोट लगने, पट्टी बांधकर चुनाव प्रचार करनेसे लेकर राजनीतिक दलोंको पत्र लिखनेतक ममता सहानुभूति जुटानेकी हर संभव कोशिशमें लगी हैं। वह अपने प्रयासमें कितना कामयाब होती हैं, यह तो चुनावी नतीजे ही बतायंगे। लेकिन सहानुभूति बटोरनेके फेरमें दीदी एकके बाद एक गलती करती दिख रही है। खासकर पत्र लिखना उनकी बड़ी गलती है। ऐसेमें कहना गलत नहीं होगा कि दीदीने पश्चिम बंगालके चुनावी नतीजोंको लेकर अपना डर जाहिर कर दिया है।