सम्पादकीय

कोरोनाकालमें विकट परिस्थितियां


ऋतुपर्ण दवे     

कोरोना घातक है। पता है, कहीं कोई मर गया तो उसकी लाश पॉलीथिनमें पैक होकर मिलती है और सीधे शमसान या कब्रिस्तान भिजवाई जाती है। यह भी पता है। जब सब पता है तो यह क्यों नहीं पता है कि मास्क लगाना ही सुरक्षा है। बस यही वह सवाल है जिसका न तो लोग सही जवाब दे पाते हैं और न ही खण्डन कर पाते हैं। यही कारण है कि सब कुछ जानकर भी लोग अनजान बन आ बैल मुझे मारवाली स्थिति खुद ही निर्मित कर रहे हैं। दरअसल इसके पीछेकी सचाई यह है कि लंबे लॉकडाउन और कोरोनाकी पहली लहरके दौरान बेबसीका आलम झेल चुके लोग न तो कुछ समझ पानेकी स्थितिमें हैं और न ही कोई उन्हें सही-सही समझा पानेकी स्थितिमें है। कोरोनाको लेकर इतने तर्क और कुतर्क हो चुके हैं कि सचमें इससे संक्रमणको ही बढ़ावा मिला है वरना काफी हद इसपर भारतने काबू पा लिया था। इस सचाईको भले ही देरसे ही सही लोग मानने लगे हैं कि भारतमें सही समयपर लॉकडाउनका लिया गया फैसला ही वह वजह थी जो कोरोना तब पैर पसारते-पसारते रह गया। बस चूक यहीं हुई कि एक तो एकदमसे लॉकडाउन लगा और प्रवासी कामगार दूर-दराजसे काफी तकलीफोंसे लौट पाये वहीं अनलॉक होते ही वह ढिलाई हुई कि कोरोनाने दोबारा पूरी ताकत और चुनौतीके साथ मात दे दी। अब जिस तेजीसे इसके मामले रोजाना आने शुरू हो गये हैं उससे स्थितिकी विकटताका अंदाजा लगाया जा सकता है।

यह सच है कि कोरोनाका दुनियाका पहला मामला १७ नवंबर २०१९ को चीनके वुहानमें सार्वजनिक हुआ था। कोरोना कब फैलना शुरू हुआ सही-सही किसीको नहीं पता। लेकिन करीब डेढ़ सालमें ही इस महामारीका जो असर दिखा उससे दुनिया एक बार फिर इस महामारीको लकर सहमीं हुई है। यह तो नहीं पता कि हर सौ सालके ही बाद महामारीके आक्रमणका क्या संबंध है लेकिन इतिहासमें दर्ज महामारियां इस बातकी तस्दीक जरूर करती हैं। मानव सभ्यताके विकासके साथ ही महामारियोंका अपना इतिहास भी है। १४वीं सदीके पांचवें और छठे दशकमें प्लेग फिर १७२० में मार्सिले प्लेग, १८२० में एशियाई देशोंसे फैला कॉलरा १९२० में स्पैनिश फ्लू और २०१९ में कोविड-१९ महामारी। कोविड-१९ को अभी निगरानीमें मान भी लें तो बाकी महामारियोंके पैर पसारनेके साथ इनपर नियंत्रणका भी लंबा और अलग इतिहास है। अनेकों महामारियोंको काफी लंबे वक्तके बाद काबू किया जा सका। अब लगता है कि कहीं कोरोना भी तो कहीं इस सूचीमें न चला जाय। लेकिन कोरोनाको लेकर अबतक जो भी समझ आया है उससे यह तो सब जान ही चुके हैं कि यह हवामें ट्रांसमीट होकर सांसोंके जरिये फेफड़ोंपर अटैक करनेवाला वह वायरस है जिसे महज एक साफ-सुथरा मास्क और परस्पर दूरीसे काबू किया जा सकता है। लेकिन लोग हैं कि जानते हुए भी इस छोटेसे सहज और सुलभ जीवनरक्षकको लेकर ही बेफ्रिक्र हैं। आखिर क्यों। अप्रैलके दूसरे हफ्तेसे देशमें बन रहे नये-नये रिकॉर्डके बाद भी यदि आंखें नहीं खुलीं तो फिर तो कोई संदेह नहीं कि हम खुद महामारीको दावत दे रहे हैं। हो सकता है कि लोग समझ रहे हों कि कहीं एक बार फिर संपूर्ण लॉकडाउन जैसी स्थिति बन रही है।

बीते दो-चार दिनोंसे देशके महानगरोंसे प्रवासी कामगारोंके तेजीसे घरवापसी भी हो रही है। यह उनकी समझदारी कहें या विवशता या नियोक्ताओंकी हिदायत इतना तो उन्हें समझ आ ही रहा है कि जान है तो जहान है। शायद इसीलिए पलायन जैसी स्थिति फिर बननी शुरू हो गयी है। आंकड़े बताते हैं कि देशमें महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, तामिलनाडु, मध्यप्रदेश, राजस्थान यानी आधेसे भी ज्यादा हिस्सोंमें कोरोना संक्रमण जाहिर तौरपर तो शेषमें गुपचुप फैल रहा है। दो राय नहीं कि पूरा देश ही इसकी जबरदस्त चपेटमें है। ऐसेमें सतर्कताके साथ वैक्सीनको लेकर भी लोगोंको सारे भ्रम तोडऩे होंगे और वैक्सीनेशनके लिए आगे आना होगा। भारतमें वैक्सीनेशनका प्रतिशत संतोषजनक कहा जा सकता है। लेकिन बीच-बीचमें कई जगहसे वैक्सीन खत्म होनेकी हकीकत चिन्ता पैदा करनेवाली है। जाहिर है १३० करोड़की आबादीमें ४५ वर्षसे ऊपरके लोगोंका प्रतिशत भी अच्छा-खासा है और सबके लिए व्यवस्था बड़ी चुनौती है। सरकार निश्चित रूपसे वैक्सीनको लेकर न केवल सजग है, बल्कि चिन्तित है जो हमारे देशके लिए सुकूनकी बात है। वैक्सीनेशनसे शरीरमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित होनेके दावे भी भरोसेमंद हैं। बस मास्क उतार फेंकना ही भारी पड़ गया। अब आगे ऐसा न हो इसपर एकमत जरूरी है। दबी जुबान ही सही यह कहा जाने लगा है कि लॉकडाउन ही कोरोनाको फैलनेसे रोकनेका वह विकल्प था जिसने पहली लहरको रोके रखा। हो सकता है पुरानी सख्ती या कई तरहके हादसोंके बाद इतना कड़ा फैसला ले पानेसे केन्द्र बच रहा हो और राज्योंपर छोड़ रहा है। राज्य जिला प्रशासनपर छोड़ एक तरहसे खुदको बरी कर रहे हैं। लेकिन इससे संक्रमण थमनेवाला नहीं क्योंकि काबू आया कोरोना खुद कई चरणोंमें अनलॉकके दौरान चेहरेसे मास्क हटते ही ऐसे मुक्त हो गया जैसा कोरोना गया। लेकिन वही उतरा मास्क अब और गुल खिला रहा है। कोरोनाके नित नये रूप या अटैककी तासीरको देखते हुए यह तो समझ आ गया कि मास्कने ही कई लोगोंको बचाया। लेकिन उसके बाद भी मास्क न पहनना किसी बहादुरीका परिचय नहीं है। यह हालात सिर्फ भारतमें ही नहीं दुनियामें कई जगह दिखे। कई देशोंमें तो मास्क और लॉकडाउन हटानेको लेकर आन्दोलन भी हुए। लेकिन जब कोरोनाकी कहीं दूसरी, कहीं तीसरी तो कहीं और भी अगली लहरने कहर बरपाया तो वापस लॉकडाउनने ही स्थितिको संभाला। सच तो यह है कि लॉकडाउनको लेकर एक केन्द्रीकृत निर्णय हो जो पूरे देशमें समानतासे लागू हो। राज्य, जिले, नगरके लिए अलग फैसलोंमें जहां लोगोंको असहजता दिखती है वहीं हवाके जरिये फैलनेवाले संक्रमणके लिए रात-दिनके अलग-अलग फैसले मजाकसे लगने लगते हैं। अब वजह जो भी नहीं मालूम लेकिन कोरोनाको लेकर वन नेशन वन डायरेक्शन जैसा फैसला ही हो जिससे इसे काबू किया जा सके। लेकिन महामारियोंका पुराना अतीत देखते हुए स्थिति सामान्य होनेके बाद भी संक्रमणके प्रवाहको रोकनेकी सख्ती यानी मास्ककी अनिवार्यता और दो गजकी दूरी हर किसीके लिए जरूरी हो।

इसी बीच तेजीसे बढ़ते मामले और बीते बुधवारको देशमें अबतकके सर्वाधिक १,२६,७८९ आये कोरोना मामले चिन्ताजनक हैं। संख्या निश्चित रूपसे कहीं ज्यादा ही होगी क्योंकि देखनेमें आ रहा है कि कई लोग जांचसे भी कतराने लगे हैं। ऐसेमें कैसे कोरोनाको मात दे पायंगे। देशभरमें तमाम अस्पतालोंकी कोरोना मरीजोंके बढऩेसे दबावमें दिख रही तस्वीरें किसीसे छिपी नहीं है। महाराष्ट्रके बीड जिलेके अम्बाजोगईसे सामने आयी एक तस्वीरने न केवल बेहद चौंका दिया,बल्कि कोरोनाके खौफसे वाकिफ भी करा दिया। जहां नगरके श्मसानमें लोगोंने अंतिम संस्कारका विरोध किया तो दो किमी दूर एक अस्थायी श्मशानमें एक ही चितापर कोरोनासे मृत आठ लोगोंके शवोंका मजबूरन एक साथ अंतिम संस्कार किया गया। कोरोनाके लेकर सारे सच सामने हैं, तस्वीरें गवाही दे रही हैं, आंकड़े सचसे सामना करा रहे हैं और हम हैं कि जानते हुए भी मानते नहीं। मेरा नहीं, देशका नहीं, दुनियाका नहीं, इनसानियतका सवाल है कोरोनाको मात देना है या नहीं तो फिर कोरोनाको देना है मात तो पहनें मास्क और बनायें आपसी दूरी दो हाथ।