सम्पादकीय

स्वतन्त्र निवेशकोंके हितार्थ


 आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

स्वतन्त्रत निदेशकोंका मामला फिलहाल नियुक्तिके मुद्देपर नयी चुनौतियोंसे रू-ब-रू है। इनके चलते प्रमोटर्सका अधिकार अब पहले जैसा नहीं रहा। इस परिवर्तनकी चपेटमें पांच सौसे अधिक प्रोन्नायक आ गये हैं। इसके चलते पांच सौसे अधिक अधिसूचित कम्पनियोंके प्रमोटरोंकी अबतक चली आ रही निदेशक विषयक इजारेदारी खत्म हो गयी है। वैसे इससे कम्पनियों और उनके प्रमोटरोंके रिश्तोंमें एक तरहके नये दौरकी शुरुआत होगी, जिसके दूरगामी परिणाम भी सम्भव हो सकते हैं। इस सिलसिलेमें प्रतिभूति एवं एक्चेंज बोर्डका वैसे कहना है कि इस परिवर्तनके बाद नियुक्तियोंके लिए विशेष प्रस्तावकी जरूरत पड़ेगी। इसका व्यवहारमें मतलब यह है कि नियुक्तिके पक्षमें जो प्रेशहोल्ड है वह अब आगेसे ५० प्रतिशतकी बजाय ७५ काफी बड़ा अन्तर है। अब हम शेयरधारकोंके सवालको इस परिप्रेक्ष्यमें लेते हैं। शेयरधारक आंकड़ोंपर नजर दौड़ानेके क्रममें सम्भवत: इससे लगभग ७० प्रतिशत कम्पनियोंमें ऐसी नियुक्तियोंमें प्रमोटरोंका जो इजारेदारी है, वह हट जायगी। यह निष्कर्ष विश्लेषण-संश्लेषण ऐसी कम्पनियोंको ध्यानमें रखकर किया गया है जिनका बाजार पूंजीकरण कमसे कम एक हजार करोड़ रुपये है। कुल मिलाकर ८८४ कम्पनियोंपर यहां विचार किया गया है। खास कर इस तथ्यको ध्यानमें रखकर कि उनका शेयर होल्डिंग डेटा मार्च, २०२१ के आगेतक उपलब्ध है। इनमें ५२५ कम्पनियां ऐसी रहीं जिनमें प्रोन्नायककी होल्डिंग ५० से ७५ प्रतिशतके बीचमें थी। इस सिलसिलेमें विशेषज्ञोंके एक तबके द्वारा यह दलील दी जाती है कि लोग ७५ प्रतिशतपर ज्यादा सावधान एवं सतर्क रहेंगे। यह भी सम्भव है कि प्रोन्नायक एवं नामित व्यक्ति मतदानके दौरान अस्वीकृत होनेके चलते सतर्क और भयनीत रहें। अतीतमें दस प्रतिशतसे भी कम प्रस्तावोंको संस्थागत निवेशकोंके विरोधका सामना करना पड़ा है। ऐसा इसलिए भी सम्भव हुआ होगा कि प्रमोटर्स अपने उम्मीदवारोंको किसी न किसी रूपमें जितानेमें सक्षम साबित हो जाते हैं। इस लक्ष्यको हासिल करनेके लिए वह कई हथकंडे इस्तेमाल करते थे, जिनमें कई अशोभनीय थे।

इसी क्रममें स्वतन्त्र निवेशककी नियुक्तिको भी दोषपूर्ण पाया गया है। ऐसा माना जाता है कि स्वतन्त्र निवेशक अल्पमतवाले निवेशकोंके हितोंकी रक्षा करेंगे। विशेषकर ऐसे लोगोंसे जो उन्हें नियुक्त करते और भुगतान करते हैं। ऐसा सोचा जाता है कि सेबी द्वारा उठाये गये इस कदमसे हितोंके टकरावके मुद्देका कुछ हदतक समाधान सम्भव हो सकेगा। यहां यह तथ्य काबिलेगौर है कि नियुक्तिके लिए प्रत्याशियोंके चयनके लिए प्रक्रियाको विस्तार दिया गया है तथा उसे अधिक पारदर्शी बनानेका प्रयास किया गया है। मिसालके लिए स्वतन्त्र निदेशकके पदके लिए नियुक्ति प्रक्रियाको अधिकाधिक पारदर्शिता प्रदान करनेका प्रयास किया गया है। इसी क्रममें नामांकन और पारिश्रमिक समितिके गठनमें भी परिवर्तन किया गया है। मिसालके लिए स्वतन्त्र निदेशकोंकी संख्याका ५० प्रतिशत के स्थानपर ६६ प्रतिशत कर दिया गया है। नियामकने अन्य कई कदम भी उठाये हैं। इनमें निवर्तमान स्वतन्त्र निदेशकके त्याग-पत्रको सार्वजनिक करना भी शामिल है। यह संशोधन १ जनवरी, २०२२ से प्रभावी होंगे। इन प्रस्तावित परिवर्तनों एवं संशोधनोंको लेकर निरपेक्ष मतैक्यका अभाव सहज, स्वाभाविक एवं प्रत्याशित है। विशेषज्ञोंके एक तबकेका कहना है कि यदि सुझाये गये संशोधनोंको लागू किया गया तो बेहतर परिणाम सम्भव है। लेकिन ऐसे विचारक भी हैं जो इस मतसे असहमत है। उनका कहना है कि इन परिवर्तनोंसे कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसा तबतक रहेगा जबतक गुणात्मक परिवर्तनकी शक्तियोंकी भूमिकामें व्यापक एवं गहन परिवर्तन नहीं लाया जाता।

ऐसा विचारक भी हैं जो सुझाये गये परिवर्तनों एवं संशोधनोंको व्यापक यथार्थसे जोड़कर देखने-दिखानेके पक्षधर हैं। इतना तो कहा ही जायगा कि समूचे मुद्देपर बुनियादी चिन्तनका दौर शुरू हो चुका है। अब यह देखना है कि यह किस हदतक हमें आगे ले जानेका प्रयास करता है और उस प्रयासमें स्थायित्व कितना है। किसी भी प्रयासके वैये कई चरण होते हैं। महत्वपूर्ण बात इनके अंत:सम्बन्धों एवं विकास सूत्रोंको समझना है। यदि ऐसा नहीं होता तो लफ्फाजी एवं सच्चे प्रयासोंके बीच विभाजन-रेखा खींच पाना मुश्किल ही नहीं, लगभग असम्भव हो जायगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पब्लिक संघटनोंको लफ्फाजसे मुक्त कर पाना एक बेहद मुश्किल काम है। ऐसा कई कारणोंसे सम्भव होता है लेकिन सबसे लफ्फाजोंकी भूमिका है। लफ्फाज अपनी भाषण कलाके प्रदर्शनसे लोगोंको गुमराह करनेमें महारथ रखता है। सामान्य श्रेणीके व्यक्तिके लिए ही नहीं, बल्कि विशेष श्रेणीके व्यक्तिके लिए भी वह चुनौती पेश करता है। इस चुनौतीके चलते प्राय: अच्छेसे अच्छे व्यक्ति भी गुमराह हो जाते हैं और गलत निष्कर्षपर जा पहुंचते हैं। ऐसे संघटनोंकी किसी भी देशमें कमी नहीं है जो लफ्फाजोंसे कुप्रभावित पाये जाते हैं। यदि लफ्फाज अच्छा वक्ता हुआ तब तो स्थितिके उलझ  जानेकी अधिक सम्भावना सामने आती है। लफ्फाजीके अलावा और भी ऐसे कारक हो सकते हैं जो पब्लिक संघटनोंको सत्यसे विपरीत दिशामें ले जा सकते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण एवं निर्णायक धन एवं सत्ताका दुरुपयोग है। हितोंके टकरावको यह तत्व घटिया रूप एवं आयाम प्रदान करते हैं।