अवधेश कुमार
कोरोनाकी भयावहता खत्म होनी चाहिए, परन्तु हममेंसे कोई यह सोचनेको शायद ही तैयार है कि क्या यह सब कोरोना संकटको दूर करनेका कारण बन सकते ह। विश्व एवं भारतमें जिस तरह कोरोना बार-बार धमक रहा है उससे जीवनका एक-एक पहलू दुष्प्रभावित है। केवल राजनीति नहीं, व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक। संपूर्ण जीवन पहलू कोरोनाकी चोटसे मर्माहत हैं। तो सोचना होगा कि आखिर जीवनके कितने पहलुओंको और कितने दिनोंतक हम स्थगित या विरामकी अवस्थामें रख सकते हैं। राजनीतिक नजरियेसे आप किसी दल या कुछ दलोंको कटघरेमें खड़ा कर दीजिए उससे कोरोनाका निदान नहीं निकलेगा। चुनाव हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाका सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। कोरोना १०-२० दिन या महीनेभरका संकट अब नहीं रहा जिससे कुछ दिनोंके लिए बहुत कुछको स्थगित रखकर आगे फिर प्रारंभ करनेपर विचार कर सके। भारतमें हर समय कोई न कोई चुनाव चलता रहता है। आगरा कोरोनाका प्रकोप ऐसे ही आगे कुछ समयतक बार-बार सामने आता रहा तो हम कितनी चुनाव प्रक्रियाको बाधित करेंगे। चुनाव प्रणाली ऐसी है जिसमें प्रचारकी संपूर्ण गतिविधियोंको रोक देना संभव नहीं होता। बड़ी रैलियां आप रोक देंगे तब भी उम्मीदवार और उनके समर्थक वोट मांगनेके लिए लोगोंतक पहुंचेंगे। जब पहुंचेंगे तो उनके साथ छोटा-बड़ा समूह भी होगा। छोटी-छोटी बैठकें करेंगे। जिसे चुनाव लडऩा है और जीतनेकी उम्मीदसे लडऩा है वह मतदाताओंतक पहुंचनेका कोई न कोई तरीका अपनायगा।
यदि चुनाव प्रक्रिया चलनी है तो प्रतिस्पर्धी पार्टियां एवं उम्मीदवारको जनताके बीच जाकर अपना पक्ष और विरोधीका विपक्ष रखना आवश्यक है या तो चुनाव स्थगित कर दीजिए या चुनाव प्रचार होने दीजिए। कोई एक पार्टी या नेता किसी एक राज्यमें कुछ समयके लिए अपनी रैलियां स्थगित कर सकता है लेकिन दूसरे राज्यमें फिर चुनाव होंगे तो वह ऐसा ही करेगा इसकी गारंटी नहीं। जहां जिसको जीतनेकी उम्मीद होगी वहां वह हर कवायद करेगा और करना भी चाहिए। एक बार कोरोनाके कारण हमने चुनाव स्थगित कर दिया या सारी चुनावी सभाएं रोक दीं तो भविष्यके लिए भी यही उदाहरण बनेगा। हां राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, मीडिया, बुद्धिजीवियों सबको इस प्रश्नका उत्तर अवश्य तलाशना चाहिए कि यदि कोरोनाका संकट लंबा खींचता है तो हम किस तरीकेसे अपने लोकतंत्रको सुचारू रूपसे चलाये रखनेके लिए चुनाव प्रक्रियाका संचालन करें। वर्चुअल सभाएं, सोशल मीडिया या मीडियाके माध्यमसे भारत जैसे विविधताओंवाले देशमें कोई पार्टी या नेता सभी मतदाताओंतक अपनी बात नहीं पहुंचा सकता है तो रास्ता निकालना होगा।
कोरोना संघातका भय केवल चुनावी सभाओंतक ही सीमित नहीं है। भारत एक उत्सवधर्मी देश है। हमारे यहां धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्म भी उत्सवके साथ आबद्ध हैं। यदि नवरात्रि है तो दुर्गा प्रतिमा स्थापित होंगी और नौ दिनोंकी आराधनाके बाद उनका विसर्जन होगा। स्थापना और विसर्जनमें भीड़ न जुटे तो भी कुछ लोगोंको साथ आना ही पड़ेगा। ऐसा कौन-सा पर्व त्यौहार है जिसमें हमारे यहां सामूहिकता शामिल नहीं। होलीमें घरोंमें ही सीमित रहनेकी अपील की गयी। भारतमें ऐसा कोई समय नहीं जब पूरबसे पश्चिम और उत्तरसे दक्षिण अलग-अलग क्षेत्रोंमें कोई पर्व-त्यौहार या उत्सव नहीं होता हो। पता नहीं कितने वर्षोंकी स्थापित परंपराएं हैं। इन सबको पूरी तरह स्थगित करना संभव नहीं हो सकता। रमजानके महीनेमें रोजा और उसके साथ इफ्तारका प्रचलन आज तो शुरू हुआ नहीं है। आखिर इसे कबतक कितने दिनोंके लिए रोकेंगे। कुंभ और महाकुंभ जैसे आयोजनोंकी प्रतीक्षा लोग लम्बे समय करते हैं और संबंधित नदीमें डुबकी लगानेकी आकांक्षाएं भी प्रबल होती हैं। ऐसे ही अनेक प्रकारकी धार्मिक यात्राएं, तीर्थ यात्राएं, मंदिरोंके कर्मकांड आदि भिन्न-भिन्न समयपर आयोजित होते हैं। आप कहीं किसी आयोजनको कुछ समयके लिए स्थगित कर सकते हैं सबको नहीं किया जा सकता है। यह समय पूरे भारतमें शादियोंका भी है। यह कहना बहुत आसान है कि कुछ लोगोंके बीच ही शादीके आयोजनको पूरा कर लीजिए। हमारे यहां शादीके पहले अनेक राज्योंमें महिलाएं टोली बनाकर देवी-देवताओंके पूजनके लिए निकलती है, साथ बाजा होता है, कहीं-कहीं पुरुष भी निकलते हैं। कई प्रकारकी पूजा होती है, कई-कई दिनोंतक रात्रिमें गीत-संगीतका आयोजन होता है। परिवार, रिश्तेदार शादीको लेकर अनेक सपने संजोये होते हैं। इन सबको कोरोना फैलनेके भयसे अनिश्चित समयतकके लिए खत्म कर देना कैसे संभव होगा। अनेक क्षेत्रोंमें मृत्युके बाद शवदहन ही नहीं श्राद्धका भी लंबा कर्मकांड है। १२-१३ दिनोंसे लेकर एक महीनेका श्राद्ध कर्म होता है। यह तार्किक हो या अतार्किक आम धारणा यही है कि इन सबका पालन न करें तो मृतककी आत्माको कष्ट पहुंचता है और उसकी मुक्तिका मार्ग बाधित होता है। नयी फसल लगानेके साथ भी उत्सव जुड़े हुए हैं। रबी फसलोंकी बुवाई, धानकी रोपाई आरंभ करनेके दिन खेतोंमें पूजा, घरमें पूजा और आसपासके लोगोंको अपनी क्षमताके अनुसार भोजन करानेकी परम्परा है। ऐसे उत्सवधर्मी समाजको कोरोना आघातके भयसे बार-बार यह कहकर उत्सवसे दूर करना कि अभी कठिन समय है जब समय बेहतर होगा तब आप सारे आयोजन करेंगे संभव नहीं है।
कोरोनाने पूरी शिक्षा व्यवस्थाको अस्त-व्यस्त कर दिया है। सालभरसे छात्रोंके लिए भारतके ज्यादातर राज्योंमें नियमित रूपसे शिक्षालय जाना संभव नहीं रहा। परीक्षाएं खत्म की जा रहीं या स्थगित हो रहीं हैं। इन सब छात्रोंका भविष्य क्या होगा। कोरोनाके लम्बे संकट कालमें कबतक तदर्थताको जारी रखा जायगा। नौनिहालों, नवजवानोंके भविष्यको लेकर फैसला करना होगा। अर्थव्यवस्थाके बारेमें बतानेकी भी आवश्यकता नहीं। केंद्रसे लेकर राज्योंतकका आर्थिक ढांचा चरमरा रहा है। हमारे आपके घरकी भी आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हैं। लाखों रोजगारसे वंचित हुए तो लाखों रोजगार पानेसे वंचित हैं। छोटे-बड़े व्यापार सब प्रभावित हैं। स्वच्छंद रूपसे आवागमन नहीं हो रहा। इस स्थितिको लंबे समयतक जारी रखना संभव नहीं होगा। ऐसा हुआ तो कैसी विस्फोटक स्थिति होगी इसकी आसानीसे कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी बात कि क्या वाकई चुनावी सभाओं, सामूहिक धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनोंसे कोरोनाका प्रसार होता है। पिछले वर्ष चुनाव हुए बिहारमें और कोरोनाका बम फटा दिल्लीमें। इस बार भी चुनाववाले राज्योंमें कोरोनाका उतना भयानक प्रकोप अभीतक नहीं हुआ जितना कि दिल्ली, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदिमें। लाखोंके कुंभमें कुछको कोरोना हुआ तो यह अर्थ नहीं कि उसका कारण कुंभ ही हो। वह अपने मूल स्थानोंपर रहते तो उनको कोरोना नहीं होता इसकी गारंटी कौन दे सकता है। होली पूरे देशमें मना लेकिन कोरोना प्रकोप सब जगह नहीं।
कोरोनाको मात देना है, परन्तु ऐसे कदमोंसे तंत्र चरमरा सकता है। कुल मिलाकर कहनेका तात्पर्य कि कोरोना संकटपर तात्कालिक भय और घबराहटमें निर्णय करनेकी जगह अबतक उसके प्रसारकी गहन समीक्षा तथा जीवन पहलुओंपर पडऩेवाले समस्त प्रभावोंका व्यापक स्तरपर गहराईसे विचार करके तार्किक-व्यावहारिक निष्कर्ष निकालना होगा। कोरोना प्रसारको रोकना है, उसपर काबू भी करना है लेकिन न लम्बे समयतक राजनीतिक प्रक्रियाएं ठप कर सकते हैं, न प्रत्येक चुनावमें उम्मीदवारों, पार्टियों और नेताओंको संपर्क करनेसे वंचित रख सकते हैं। न धार्मिक आयोजनों, उत्सवों, पर्व-त्योहारोंको पूरी तरह सामूहिकतासे लम्बे समयतक वंचित रखा जा सकता है, न शिक्षा व्यवस्था ही ठप रखी जा सकती है। यह सब आवश्यक भी नहीं है। विचार करें कि कोरोनाका दैत्य लंबे समयतक बार-बार आघात करता रहा तो हम इसके फैलावको रोकनेके उपायोंको अपनाते हुए भी इन व्यवस्थाओंको कैसे संचालित करेंगे।