लगभग सभी देशों ने पिछले साल भर के दौरान कोविड-19 से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने की कोशिशें तो की हैं. ये कुछ हद तक सफल भी हुईं, मगर उसके साथ-साथ ऐसे भी कदम उठाए हैं, जिन्हें प्रेस की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा माना जा रहा है.
शुरू से ही यह साफ था कि कोई भी देश इस तरह की आपदा के लिए तैयार नहीं था. पर जब कोरोना वायरस तेजी से फैलने लगा और सरकारें चुनौती से निबटने में नाकाम रहीं तो ब्राजील से लेकर पाकिस्तान तक में उनकी आलोचना होने लगी.
एक तरफ समाचारपत्रों, रेडियो, टेलीविज़न चैनलों और वेबसाइटों पर आ रहे समाचार स्थिति की भयावहता और वास्तविकता का दिन-रात वर्णन कर रहे थे. दूसरी तरफ, सार्वजनिक स्तर पर निंदा बढ़ती जा रही थी. इससे न केवल अलोकतांत्रिक शासकों को बल्कि कई लोकतांत्रिक देशों में सत्तारूढ़ नेताओं में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई.
सच बताने की जगह इसे छिपाने का दबाव डाला गया
ऐसी परिस्थिति में मीडिया संगठनों को विश्वास में लेकर जनता को सही जानकारी देने की जगह, इन सरकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की. नतीजतन, समाचार संस्थाओं के खि़लाफ कानूनी कदम उठाए गए और पत्रकारों पर हमले होने लगे.
सार्वजनिक चर्चा को नियंत्रित करने के लिए कई देशों में, स्वतंत्र मीडिया के पत्रकारों को प्रेस ब्रीफिंग तक पहुंच से वंचित कर दिया गया. आधिकारिक सूचना तक पहुंच को सीमित कर दिया गया और मीडिया संगठनों को सरकारी आँकड़ों को ही प्रकाशित करने के लिए बाध्य किया गया.