डा. प्रदीप कुमार सिंह
कई देश कोरोना महामारीकी दूसरी या तीसरी लहरसे गुजर चुके हैं। अधिकांश देशोंमें दूसरी लहरका प्रकोप पहली लहरसे तीव्र रहा है। भारतमें १५ जनवरीसे ८ मार्चतक ५२ दिनोंकी अवधिमें दैनिक संक्रमितजनोंके आकड़े न्यूनतम स्तरपर लगभग स्थिर दिखायी दिये एवं १ फरवरीको संख्या सबसे कम ८५८७ रही। जनवरीमें महामारी कमजोर पड़ चुकी थी परन्तु मार्चमें दूसरी लहरके आसार बनने लगे। महामारीने रफ्तार पकड़ी एवं २४ मार्चको आंकड़े पचास हजार पारकर ५३,४१९ दर्ज किये गये। वास्तवमें कोरोनाकालमें दृढ़ता एवं धैर्यपूर्वक अनुशासन पालन करते रहना अत्यंत आवश्यक था। यदि समाज प्रधान मंत्री द्वारा दिये गये मंत्र ‘जबतक दवाई नहीं, तबतक ढिलाई नहींÓ का पालन करता तो दूसरी लहरपर नियंत्रण पाया जा सकता था। कोरोना महामारीपर असफलताके विषयपर विचार करना आवश्यक है। अनुशासन पालनमें लापरवाहीकी कई बड़ी घटनाएं प्रकाशमें आयी हैं। नववर्ष दिन १ जनवरीपर लोग महामारीको भूलकर अतिउत्साहित दिखे, मानो वर्ष २०२० का समय बुरा था एवं आगे अच्छा समय आ गया हो। १६ जनवरीसे टीकाकरण प्रारम्भ होनेपर एक बार पुन: लोगोंमें आत्मविश्वास बढ़ गया। लोगोंने कोरोना दिशा-निर्देशोंका पालन बंद कर दिया। होलीपर भी अधिकांश लोगोंने सावधानी नहीं रखी। कई राजनेताओंको भी सभाओंमें लापरवाही करते देखा गया। अब भी दिल्ली सीमापर बैठे आन्दोलनकारी, सरकारके प्रयासोंके बावजूद वैक्सीन लेनेसे मना कर रहे हैं। अधिकांश भारतीयोंकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अन्य देशोंके नागरिकोंसे अच्छी हो सकती है, परन्तु इस आधारपर कोरोना विषाणुको चुनौती देना उचित नहीं। इस बार कोरोना विषाणु भी अधिक संक्रामक रूपमें आया है। अक्तूबर-नवम्बरमें कोरोना दिशा-निर्देशोंके साथ स्कूल खुलने लगे थे। विदेशोंमें भी स्कूल खुलना विवादास्पद रहा है, वहां दोबारा महामारीके प्रकोप बढऩेपर स्कूल बन्द करने पड़े एवं लाकडाउन लगाना पड़ा। लम्बे समयतक दिशा-निर्देशोंका पालन करना बच्चोंके लिए सम्भव नहीं होता, इससे बच्चे भी संक्रमित हुए एवं महामारीको प्रसारका अवसर मिल गया।
हालमें कुछ राज्योंमें विधानसभाके चुनाव हुए हैं। राजनीतिक दलोंने कोरोना महामारीकी अनदेखी करते हुए चुनाव प्रचारमें भारी संख्यामें रैलियां एवं रोड शो आयोजित किये। चुनाव आयोगने भी समयसे इनपर अंकुश नहीं लगाया। यह बहुत बड़ी लापरवाही हुई है। हालमें हरिद्वारमें कुम्भका आयोजन हुआ। भारतीय संस्कृतिमें इस आयोजनका विशेष महत्व है। तमाम सावधानियोंके बावजूद भारी संख्यामें लोग संक्रमित हुए। यद्यपि प्रधान मंत्रीकी अपीलके बाद साधु-संतोंने आयोजन समाप्त कर केवल प्रतीकात्मक रखनेका निर्णय लिया। महामारीके प्रसारके समय इन आयोजनोंसे समाजमें लापरवाहीका उल्लेखनीय संचार हुआ है। महामारीकी पहली लहरमें अधिकांश जनताने सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशोंका पालन किया था। प्रधान मंत्रीकी बातोंको गम्भीरतासे लिया था। परन्तु भारत सदियोंसे सियासत प्रधान देश रहा है। कोरोना महामारीपर भी बहुत सियासत हुई है। कुछ नेताओंने देशव्यापी लाकडाउन लगानेकी आलोचना की। केन्द्र सरकारपर देशकी आर्थिक स्थिति बरबाद करनेके गम्भीर आरोप लगते रहे। नि:सन्देह किसी राज्यमें राज्य सरकारें महामारीकी स्थितिका बेहतर आकलन कर प्रभावकारी उपाय कर सकती हैं। इसीलिए राज्योंको निर्णय लेनेके लिए अधिकार भी दिये गये। इस बार राज्य सरकारें आवश्यकतानुसार लाकडाउन लगा भी रही हैं, परन्तु ऐसा करनेमें देर हो गयी। मार्चमें जब दैनिक संक्रमितजनोंका आंकड़ा ५०,००० पार हो गया था, उसी समय प्रभावित राज्योंमें लाकडाउन लगाया जाता तो अच्छा होता। घातक महामारीके दौरमें अर्थव्यवस्थासे समझौता करनेमें कोई बुराई नहीं होती, भले ही इसके लिए आलोचना सहनी पड़े।
वैज्ञानिकोंने सस्ती एवं कारगर स्वदेशी वैक्सीन तैयार की, जो गर्वका विषय है। परन्तु कुछ राजनीतिक दलोंने इसकी उपयोगितापर भी सवाल उठाये। व्यवसाय एवं उम्र आधारित प्राथमिकतानुसार टीकाकरण जारी है। कहीं-कहीं वैक्सीनकी डोज बरबाद भी हुई है। भारत सरकारने कई अन्य देशोंको भी वैक्सीन उपलब्ध करायी है, जो भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम्ïके अनुरूप है, इसलिए गर्वका विषय है। परन्तु सरकारके इस कदमकी बहुत आलोचना हुई। विचारणीय है अन्तरराष्ट्रीय स्तरपर अधिकांश देश एक-दूसरेकी सहायता करते हैं। विदेश नीतिसे जुड़े मामलोंमें गम्भीरता बनाये रखना आवश्यक है। यह जानते हुए भी कि वैक्सीनकी उपलब्धता सीमित है एवं स्वास्थ्यकर्मी भी व्यस्त हैं, कुछ राजनीतिक दलोंने नियमोंसे हटकर १८ वर्षसे अधिक उम्रवालोंके टीकीकरणकी मांग की। परन्तु जब केन्द्र सरकारने राज्य सरकारोंके उत्तरदायित्वपर १ मईसे इस आयु वर्गके टीकाकरणका निर्णय लिया तो कई राज्योंको इसे अव्यावहारिक समझकर टालना पड़ा। देशमें चिकित्सकों एवं स्वास्थ्यकर्मियोंकी संख्या पहलेसे ही कम है। महामारीके दौरान संक्रमणसे मौतें भी हो चुकी हैं एवं कई इस समय भी संक्रमित हैं। कार्यभार बढ़ जानेसे अधिकांश तनावग्रस्त भी हैं। संसाधनोंकी कमी, मरीजोंकी अप्रत्याशित भीड़ एवं सियासतसे अव्यवस्था फैल सकती है। कोरोना महामारीकी दूसरी लहरने सुनामीका रूप ले लिया। २१ अप्रैलसे दैनिक संक्रमितजनोंका आंकड़ा तीन लाखसे अधिक हो रहा है। आंकड़ोंके तेजीसे बढऩेके कारण स्थिति नियंत्रणसे बाहर हो गयी। देशकी चिकित्सा व्यवस्था या सरकार, किसीको महामारीके इस भयावह रूपका पूर्वानुमान नहीं था। अस्पतालोंमें मरीजोंके लिए बिस्तर, दवाइयों एवं आक्सीजनकी कमीसे त्राहि-त्राहि मची हुई है। अवसरवादी तत्व दवाइयों एवं आक्सीजनकी जमाखोरी एवं कालाबाजारीमें लिप्त हैं। फिर भी सरकारों एवं राजनेताओंके बीच सियासी आरोप-प्रत्यारोप होते रहे। यह भारतीय लोकतंत्रका विलक्षण पहलू है। देशको महामारीसे बचानेके लिए सरकारोंमें सकारात्मक पहल एवं सामंजस्य आवश्यक है। वेक्टर विज्ञानके अनुसार जब कई वेक्टर एक बिन्दुपर एक ही दिशामें कार्य करते हैं तो परिणाम उसी दिशामें सर्वाधिक होता है, अन्यथा शून्य या उल्टी दिशामें भी जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालयने मामलेका स्वत: संज्ञान लिया। न्यायालयका आदेश सर्वमान्य है एवं न्यायालयका हस्तक्षेप राजनीतिक दलों एवं मीडिया द्वारा आलोचनाओंसे मुक्त है, इसीलिए यह प्रभावी होता है। आरोप-प्रत्यारोप आधारित सियासतमें कमी आयी है, सरकारें व्यवस्था बनानेपर ध्यान केन्द्रित कर रही हैं। स्वास्थ्यकर्मी, अस्पताल प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग, सरकारें सभी लाचार प्रतीत हो रहे हैं और मरीज एवं परिजन दर-दर भटक रहे हैं। चिकित्सा-व्यवस्था कितनी ही उत्कृष्टï क्यों न हो, उसकी क्षमता सीमित होती है। देशमें तो चिकित्सा-व्यवस्था भी पर्याप्त नहीं है। यदि मरीजोंकी संख्या क्षमतासे अधिक बढ़ जाय तो व्यवस्था लाचार हो जाती है। जहां महामारीपर भी सियासत होती हो, वहां तो भगवान ही रक्षा कर सकते हैं। महामारीकी लहरको प्रारम्भिक दौरमें ही नियंत्रित करनेका प्रयास करना था।