सम्पादकीय

एमएसपी व्यवस्थापर बाजारका कब्जा


डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

किसान आंदोलनका सबसे महत्वपूर्ण विवाद सरकार द्वारा एमएसपी व्यवस्था जारी रखनेकी गारण्टीको लेकर है। केन्द्र सरकार दावा कर रही है कि नये कानूनोंके लागू होनेसे एमएसपी व्यवस्था किसी भी तरहसे प्रभावित नहीं हो रही है और यह नये कानूनोंके बाद भी जारी रहेगी।

केन्द्र एवं राज्य सरकारें एमएसपी व्यवस्थाको फुलप्रूफ बनाना सुनिश्चित कर दे और सरकार द्वारा घोषित एमएसपीसे मण्डियोंमें भाव नीचे जाते ही तत्काल खरीद आरम्भ कर दे तो निश्चित रूपसे अन्नदाताको इस व्यवस्थाका पूरा लाभ मिल सकता है। साथ ही इस व्यवस्थामें जिस तरहसे सेंध लगायी गयी है उसे रोकनेके भी ठोस प्रयास होने आवश्यक हंै। फिरसे बाजार व्यवस्थाका भी अध्ययन करना होगा कि जबतक किसानकी पूरी फसल बाहर नहीं आ जाती तबतक क्या कारण है कि बाजारमें उस फसलके भाव एमएसपीके बराबर नहीं आते।

किसानोंमें दरअसल एमएसपी व्यवस्थाको लेकर एक भ्रमकी स्थिति बनी हुई है। आंदोलनकारी एमसएपीपर लिखित आश्वासन चाहते हैं तो सरकार भी लगभग इसपर तैयार है। ऐसेमें समस्या कहां है यह समझसे परे है। किसानोंको कमसे कम उनकी लागतका पूरा मूल्य मिल सके इसके लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्यकी घोषणा की जाती है। देशमें पहली बार १९६६-६७ में सबसे पहले गेहूंकी सरकारी खरीदके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यकी घोषणा की गयी थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्रीने एक अगस्त १९६४ को एलके झाकी अध्यक्षतामें इसके लिए कमेटी घटित की थी। गेहूंकी समर्थन मूल्यपर खरीद व्यवस्थाका एक विपरीत प्रभाव सामने आनेपर कि किसान अन्य फसलोंकी जगह गेहूंकी फसलपर ही केन्द्रित होने लगे तो ऐसी स्थितिमें सरकारने अन्य प्रमुख फसलोंके न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करनेकी और कदम बढ़ाये। केन्द्र सरकार द्वारा सीएसीपी यानी कि कृषि मूल्य एवं लागत आयोगकी सिफारिशपर कृषि जिंसोंके न्यूनतम समर्थन मूल्यकी घोषणा की जाने लगी। आज देशमें २३ फसलोंके न्यूनतम समर्थन मूल्यकी घोषणा की जाती है। इसमें सात गेहूं, धान आदि अनाज फसलें, पांच दलहनी फसलें, सात तिलहनी फसलों चार नकदी फसलोंके समर्थन मूल्यकी घोषणा की जाती है। नकदी फसलोंमें गन्नाके सरकारी खरीद मूल्यकी सिफारिश गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्नेकी खरीद भी सीधे गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरहसे कपासकी खरीद सीसीआई यानी कि कॉटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा की जाती है। मुख्य तौरसे अनाजकी खरीद भारतीय खाद्य निगमके माध्यमसे और दलहन एवं तिलहनकी खरीद नेफैड द्वारा राज्योंकी सहकारी संस्थाओं और अन्य खरीद केन्द्रोंके माध्यमसे की जाती है। केरल सरकारने १६ तरहकी सब्जियोंके बेस मूल्य तय कर सब्जी उत्पादक किसानोंको बड़ी राहत देनेकी पहल की है तो अब हरियाणा सरकार भी केरलकी तरह हरियाणामें भी सब्जियोंका बेस मूल्य तय करनेपर विचार कर रही है।

२००४ में एमएस स्वामीनाथन आयोगने अपनी सिफारिशमें न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करनेका एक फार्मूला सुझाते हुए सुझाव दिया कि उत्पादन लागतसे कमसे कम ५० प्रतिशत अधिक एमएसपी घोषित की जाय। एमएसपीकी सिफारिश करते समय सीएसीपी द्वारा देशके अलग अलग हिस्सोंमें फसलके अनुसार प्रति हैक्टेयर लागत, खेतीके दौरान अन्य खर्चों भण्डारणकी स्थिति, विदेशोंमें उपलब्धता आदि पैमानेपर आकलन कर प्रत्येक फसलकी एमएसपीकी सिफारिश करता है। २००४ में स्वामीनाथन आयोगकी सिफारिशको ध्यानमें रखते हुए केन्द्र सरकारने २०१८-१९ में उत्पादन लागतसे कमसे कम डेढ़ गुणा अधिक मूल्य घोषित करनेका निर्णय किया। उल्लेखनीय है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा एमआईएस यानी कि बाजार हस्तक्षेप योजनाके तहत एमएसपीके दायरेंमें नहीं आनेवाली फसलोंकी खरीदकी व्यवस्था करती आयी है। राजस्थानमें लहसुन-प्याजकी खरीद आदि इसका उदाहरण है। देशके अधिकांश प्रदेशोंमें एमएसपीपर खरीद व्यवस्थाका विश्लेषण किया जाय तो कुछ दशकों पहलेतक स्थितियां बिल्कुल अलग रही है। यह तो साफ है कि गेहूं और धानकी खरीद सरकार द्वारा व्यापक स्तरपर की जाती रही है और इसका प्रमुख कारण सार्वजनिक वितरण प्रणालीके तहत वितरण व्यवस्थाके सुचारु संचालन और बाजारपर नियंत्रण रखना रहा है। अन्य फसलोंका जहांतक सवाल है देशके अधिकांश प्रदेशोंमें खाद्यान्नोंकी खरीद एफसीआई द्वारा राज्योंके मार्केटिंग फैडरेशनोंके माध्यमसे सहकारी संस्थाओंके माध्यमसे एवं तिलहनों और दलहनोंकी खरीद नैफड द्वारा भी इसी व्यवस्थाके तहत किया जाता रहा है। राजस्थान प्रमुख सरसों उत्पादक प्रदेश होनेके कारण प्राय: एक साल छोड़कर दूसरे साल एमएसपीकी खरीदकी आवश्यकता महसूस होती थी। बाजार व्यवस्थाका अध्ययन करें तो यह सामान्य धारणा एवं वास्तविकता थी कि बाजारमें जब भी किसी फसलके भाव एमएसपीसे नीचे आने लगते तो राज्योंके मार्केटिंग फैडरेशनों द्वारा खरीदकी घोषणा करते हुए बाजारमें भावोंमें हल्की तेजी तो तत्काल देखनेको मिल जाती थी। इसी प्रकार यह धारणा थी कि एमएसपीपर खरीद शुरू करनेके समय यह माना जाता था कि अधिकतम २५ से ३० प्रतिशततक खरीद होते होते बाजारमें उस फसलके भाव एमएसपीके बराबर या अधिक आ जायंगे और वास्तविकता तो यह रही कि दससे १५ प्रतिशततक खरीद होते होते मण्डियोंमें भाव लगभग एमएसपीके आसपास आ ही जाते थे। परन्तु करीब एक दशकसे स्थितियोंमें तेजीसे बदलाव आया है। काफी हदतक एमएसपी खरीद व्यवस्थामें अब निजी खरीददारोंकी भागीदारी बढ़ गयी है। इस आरोपको सिरेसे नकारा नहीं जा सकता कि छोटे किसानोंसे उनकी फसलोंको कम दामोंमें खरीदकर उनके नामसे एमएसपीपर खरीद केन्द्रोंपर बेचकर किसानके नामपर उसका लाभ बिचैलिये लेने लगे है। यही कारण है कि इस तरहके उदाहरण आम है कि कई स्थानोंपर उस क्षेत्रमें कुल पैदावारसे भी अधिककी खरीद एमएसपीपर देखनेको मिल जाती है। दरअसल पंजाब, हरियाणा आदिकी तरह अब कुछ स्थानोंपर अन्योंके माध्यमसे खरीद होने लगी है और इस दखलका सीधा परिणाम आये दिन शिकायतोंके रूपमें देखा जा सकता है।

सवाल यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें एमएसपी व्यवस्थाको फुलप्रूफ बनाना सुनिश्चित कर दे और सरकार द्वारा घोषित एमएसपीसे मण्डियोंमें भाव नीचे जाते ही तत्काल खरीद आंरभ कर दे तो निश्चित रूपसे अन्नदाताको इस व्यवस्थाका पूरा पूरा लाभ मिल सकता है। इसके साथ ही इस व्यवस्थामें जिस तरहसे सैंध लगायी गयी है उसे रोकनेके भी ठोस प्रयास किये जाने आवश्यक है। कहीं न कहीं एक बार फिरसे बाजार व्यवस्थाका भी अध्ययन करना पड़ेगा कि जबतक किसानकी पूरी फसल बाहर नहीं आ जाती तबतक क्या कारण है कि बाजारमें उस फसलके भाव एमएसपीके बराबर नहीं आते। इसके पीछे जो बाजार ताकते सक्रिय हुई है उनसे भी किसानोंको बचानेका समय आ गया है। असलमें अन्नदाताको एमएसपीका लाभ दिलाना सरकारोंका दायित्व है तो व्यवस्थाको प्रभावित करती बाजार ताकतोंको भी व्यवस्थासे हटानेका दायित्व सरकारोंका हो जाता है।