कोरोना वायरसकी सुनामीसे देशकी स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह चरमरा गयी हैं। स्वास्थ्य सेवाएं स्वयं बीमार हैं और कोरोना वायरसकी भयावहताके आगे स्वास्थ्य सुविधाएं बौनी साबित हो गयी हैं। देशके मेट्रो शहरों, महानगरोंसे लेकर छोटे और कस्बाई शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रोंमें स्थित सभी अस्पतालोंकी स्थिति अत्यन्त ही कमजोर है, जिनपर कोरोना वायरससे बढ़े मरीजोंका बोझ बहुत भारी पड़ गया है। कोरोनाका कहर निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। संक्रमितों और मृतकोंका आंकड़ा तेजीसे बढ़ रहा है। लोगोंको स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। केन्द्र और राज्य सरकारोंकी ओर से निरन्तर प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रकी मौजूदा स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अपनी सक्षमता साबित कर सके। सबसे बदतर स्थिति ग्रामीण क्षेत्रोंकी है। अस्पतालोंका बुरा हाल है। वहां सरकारी अस्पतालोंमें न तो विशेषज्ञ चिकित्सक हैं और न ही आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं। वस्तुत: ग्रामीण भारतका एक बड़ा क्षेत्र डाक्टरोंकी कमीके संकटसे जूझ रहा है। ग्रामीण स्वास्थ्यके बारेमें स्वास्थ्य मंत्रालयकी २०१९-२० की रिपोर्टके अनुसार सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रोंमें डाक्टरोंकी ७६.१ प्रतिशत की कमी है। ग्रामीण सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रोंमें सर्जनकी ७८. ९ प्रतिशत, फिजिशियन की ७८.२ प्रतिशत और शिशु रोग विशेषज्ञोंकी ७८.२ प्रतिशतकी कमी है। कोरोनाके खिलाफ जंगमें कमी डाक्टरों तक सीमित नहीं है। पिछड़े जिलोंमें आक्सीजन और हास्पिटल बेडका भी संकट बढ़ता जा रहा है। जिससे असमय लोग दम तोड़ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रोंमें भी कोरोना महामारीका संकट गहराता जा रहा है। संसाधनोंकी कमीका संकट झेल रहे सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रोंसे क्या अपेक्षाकी जा सकती है। इससे स्थितियां काफी भयावह हो गयी हैं। देशकी विशाल आबादीकी तुलनामें डाक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियोंकी संख्या काफी कम है। आवश्यकताके अनुरूप न तो अस्पताल हैं और न ही मेडिकल कालेज। इस दिशामें सरकारको गम्भीरता से सोचनेकी जरूरत है। अस्पतालों और डाक्टरोंकी संख्या बढ़ायी जाय। यह अच्छी बात है कि पीएम केयर्स फण्डसे देशमें सौ नये अस्पताल बनानेका निर्णय किया गया है। इन अस्पतालोंमें आक्सीजन प्लाण्ट भी लगाये जायंगे जिससे कि आक्सीजन की उपलब्धता बनी रही। सरकारको स्वास्थ्य क्षेत्रके लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक रणनीति बनानेकी जरूरत है।
बाइडेनका अनुचित कदम
अफगानिस्तानसे अमेरिका और नाटो देशोंके सैनिकोंकी वापसीका निर्णय विश्वशांतिके लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि अफगानिस्तान और तालिबानके बीच अमेरिकाके तत्कालीन राष्टï्रपति डोनाल्ड ट्रम्पने जो शांति समझौता कराया था, वह पूरी तरह विफल रहा है। वहां अब भी अफगानिस्तान सरकारके सैनिकों और तालिबानी लड़ाकोंके बीच संघर्षकी बात आम है। ऐसेमें सेनाओंकी वापसीसे तालिबानके निरंकुश होनेका खतरा बढ़ जायगा और चुनी हुई सरकारका भविष्य दांवपर लग जायगा। तालिबानके मजबूत होनेका सीधा असर भारतपर पड़ेगा, क्योंकि तालिबान पारम्परिक रूपसे पाकिस्तान खुफिया एजेन्सी आईएसआईका अभिन्न अंग है, वह पाकिस्तानके कहनेपर भारतको नुकसान पहुंचा सकता है। भारतने अफगानिस्तानको विकसित करनेके लिए अरबों डालरकी मदद की है जिससे संसद भवन, सड़क और बांधोंका निर्माण किया गया है। भारत अब ११६ सामुदायिक विकासकी परियोजनाओंपर काम कर रहा है। ऐसेमें अमेरिकी राष्टï्रपति जो वाइडेनने सितम्बर तक अफगानिस्तानसे अमेरिकी सैनिकोंको वापसी की घोषणा करके भारतकी रणनीतिक चिन्ताएं बढ़ा दी है। वहां की अस्थिरता कश्मीरमें भी पाकिस्तानके मंसूबोंको हवा दे सकती है। यही वजह है कि चीफ डिफेंस स्टाफ जनरल विपिन रावतने अफगानिस्तानके बदले हालातको लेकर अपनी चिंता जाहिर की है और भारतने कूटनीतिक स्तरपर प्रयास शुरू कर दिया है। वहांकी ऐसी स्थिति नहीं है कि वहांसे सेना हटायी जाय, इसलिए अमेरिकाको अपने निर्णयपर पुनर्विचार करनेकी जरूरत है, क्योंकि अफगानिस्तान सरकारमें न्यायपूर्ण और टिकाऊ राजनीतिक समाधानके लिए इस्ताम्बुलमें २४ अपै्रलसे चार मई तक होने वाले शांति सम्मेलनसे तालिबानने अपनेको अलग कर लिया है, जिससे इस सम्मेलनको पूरी प्रासंगिकता संदिग्ध हो गयी है। तालिबानपर अंकुश लगा रहे ऐसी व्यवस्थाकी जानी चाहिए। यह सैनिकोंकी वापसीका उचित समय नहीं है, इसलिए इसपर पुनर्विचार आवश्यक है।