सम्पादकीय

चुनौतियोंके बीच कोरोना टीकाकरण


पूरन चंद
यह देशके लिए गर्व, वैज्ञानिकोंके लिए उपलब्धि और राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा नागरिकोंके संयम की जीत है कि एक ओर अनदेखी, अंजान बीमारी धीरे-धीरे कम हो रही है और दूसरी ओर राहत मिल रही है कि अब सब कुछ पटरीपर लौट रहा है। परन्तु इससे यह समझना भूल होगी कि बीमारी खत्म हो जायेगी, इसका फैलाव रुक जायेगा और हम पहलेकी तरह रहने लगेंगे। पहली बात तो यह है कि कोई भी टीका हो, वह कभी किसी बीमारीका इलाज नहीं होता क्योंकि ज्यादातर बीमारियोंके बारेमें यह संशय रहता है कि वह होती कैसे हैं, संक्रमण कैसे होता है और जब इस बारेमें पक्की जानकारी नहीं है तो उन्हें न होने देनेके लिए सौ प्रतिशत गारंटी कैसे दी जा सकती है।
इस बीमारीसे बचावके लिए टीकाकरणकी प्रक्रिया और प्रभाव वैसा ही है जैसा कि जन्म लेनेसे पहले माता और उसके बाद शिशुका टीकाकरण होता है ताकि जीवनभर अनेक बीमारियोंके हमलेसे बच कर रहा जा सके। महामारीकी तरह आयी यह बीमारी भी टीका लगनेसे रुक जायेगी लेकिन यदि कोई समझे या कहे कि यह समाप्त हो जायेगी तो यह गलत होगा, इसलिए इससे बचे रहनेके उपाय जो अबतक किये जा रहे हैं और हम उनके अभ्यस्त हो गये हैं तो उन्हें जारी रखनेमें ही भलाई है। टीकाकरणकी शुरूआत पूरे विश्वमें हो चुकी है। यह एक सकारात्मक कदम तो है ही साथमें विश्वास भी है कि अब इसके संक्रमणसे बचाव हो जायेगा। यहां यह समझना भी जरूरी हो जाता है कि अबतक जितने भी टीकाकरण हुए हैं उनका लक्ष्य सीमित आबादी वाला रहा है लेकिन इस बीमारीका टीका तो सबको लगवाना ही होगा क्योंकि इसका शिकार बालक, युवा, अधेड़, वृद्धमेंसे कोई भी हो सकता है। टीकाकरणसे इतना होता है कि इसके लगनेके बाद शरीर इस काबिल हो जाता है कि बीमारीका आक्रमण झेल सके और उसे दूरसे ही नमस्ते कर भगानेमें सफल हो जाया जाये। इसका मतलब यह है कि हमारी प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी इतनी अधिक हो कि हम उससे बचे रहनेमें सफल हों और बीमार न पड़ें। इसका एक अर्थ यह भी है कि जो भी वायरस है वह मनुष्यके शरीरमें घुसनेसे पहले ही अपना शिकार न मिलनेसे इतना कमजोर हो जाये कि अपनी मौत खुद मर जाय।
अभी केवल स्वास्थ्य कर्मियों, जरूरी सेवाओंको प्रदान करनेवाले व्यक्तियोंको टीका लगेगा और उसके बाद पचाससे अधिक उम्रवालों की बारी आयगी। इस काममें कितना समय लगेगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है, निश्चित तौरपर कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर भी उनमिान है कि छह माहसे एक वर्षकी अवधि तो अपने देशकी जनसंख्याके आकारको देखकर लग ही सकती है। उसके बाद अन्य लोगोंकी बारी आयेगी। इस अवधिमें यह भी पता चल जायेगा कि टीकाकरणकी सफलताकी औसत दर क्या है और यह भी कि इस दौरान हो सकता है कि वैज्ञानिक कोई नयी खोज करनेमें भी सफल हो जायें जिससे अधिक असरदार चिकित्सा पद्धति निकल सके। इस टीकाकरणके असरके बारेमें शोधकत्र्ताओंकी ओरसे दो बातें कही गयी हैं। एक, इसके लगनेपर व्यक्ति स्वयं तो बच जायगा लेकिन अगर उसके शरीरमें वायरस है तो वह उससे दूसरों यानी अपने संपर्कमें आनेवालोंको संक्रमित कर सकता है और दूसरी बात यह कि अगर वह अबतक संक्रमणसे बचा हुआ है तो अपने साथ दूसरोंको भी इस बीमारीसे बचानेके लिए कवच बन सकता है। ऐसा इसलिए है कि अभी तक यह बीमारी लक्षण और बिना किसी लक्षणके बढ़ती हुई देखी जाती रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें यह नहीं समझना चाहिए कि जिनका टीकाकरण हो गया है उनसे संक्रमण नहीं हो सकता और उनके संपर्कमें आने वाले पूरी तरह सुरक्षित हैं।
यह स्थिति केवल तब आ सकती है जब प्रत्येक व्यक्तिका टीकाकरण हो जाये जो कि वर्तमान परिस्थितियोंमें तुरंत संभव नहीं है। इसमें महीनोंसे लेकर कई वर्षतक लगने वाले हैं। इसलिए प्रत्येक नागरिकको इसके लिए मानसिक तौरपर तैयार रहना होगा कि अभी इस बीमारीसे बचकर रहनेके उपाय करते हुए ही जीना होगा। इसका अर्थ यही है कि हमने अपनी जिस जीवन शैलीको इन दिनों अपनी दिनचर्याका अंग बना लिया है, उसे आगे भी अपनाय रखना होगा और कुछ चीजें तो ऐसी हैं कि वे जीवनभर साथ रहें तो अच्छा ही है। इस बीमारीके कारण हमारी जीवनशैलीमें बहुतसे परिवर्तन हो गये हैं जिनमेंसे कुछको कायम रखा जा सकता है और कुछको छोडऩेके बारेमें सोचा जा सकता है। इनमें बातचीत, मीटिंग, काम-धंधे, रोजगार, प्रैजैंटेशन आदिके लिए आधुनिक संचार और संवाद साधनोंका इस्तेमाल सदाके लिए अपनाया जा सकता है। हमारे देशमें संक्रमणकी दर घटते जानेका एक कारण यह है कि इस बीमारीके दौरान अधिकांश लोगोंने अपनी इम्युनिटी बनाये रखनेके लिए अपने खानपानमें काफी बदलाव किये हैं। इन्हें भी इसी तरह जारी रखा जा सकता है क्योंकि पौष्टिकता हमेशा ही बनी रहनी चाहिए। यही सब चुनौतियां या अवसर हैं जिनके साथ हमें जीनेकी प्रैक्टिस हो ही गयी है तो फिर इन्हें अपनाये रखनेमें ही समझदारी है।