डा. प्रदीप कुमार सिंह
मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनोंका दोहन, संसाधनों के लिए बढ़ता संघर्ष व अन्य प्राणियों के लिए बढ़ती संवेदनहीनता, आदि पर्यावरण के लिए खतरा बन चुके है। पौराणिक इतिहास में उल्लेख है कि जब-जब ऐसा हुआ, पृथ्वीने गाय का रूप धारण कर ब्रह्मा, विष्णु, महेशके समक्ष अपनी पीड़ा प्रस्तुत करते हुए उनसे हस्तक्षेप करने की प्रार्थना की। जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक होने से भारत की स्थिति दिन-प्रति-दिन दयनीय होती जा रही है। हम सभी श्भारत मां की जय के नारे लगाते हैं, परन्तु भारत मां जनसंख्या नियंत्रण हेतु संवैधानिक संस्थाओंकी ओर आशा भरी दृष्टि से देख रही है।
स्वतंत्रता प्राप्तिके समय देश की जनसंख्या लगभग ३४ करोड़ थी, वर्ष-२०११ में लगभग १२५ करोड़ हो गयी, औरइस समय लगभग १३९ करोड़ दर्शायी जा रही है। जनसंख्या नियंत्रण हेतु राजनीतिक दलोंने कभी गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया। उल्टे बढ़ती जनसंख्यापर भी अपनी पीठ थपथपाते रहे और चीनके प्रयासोंका मजाक उड़ाते रहे, कि हमारी ६५ प्रतिशत आबादी युवा है और ड्रैगन बूढ़ा हो गया है। यद्यपि जनसंख्या नियंत्रण हेतु विभिन्न दलोंके जागरूक सांसदों द्वारा अबतक संसद में ३७ विधेयक लाये गये, पर सफ ल नहीं हुए। श्रीमद्भगवतगीताके अनुसार श्कर्मणि एव अधिकारस्ते मा फ लेषु कदाचन। समाज इन सभी सांसदों के प्रयासोंका सम्मान करता है। बार-बार विधेयकोंका असफ ल होना लोकतान्त्रिक ब्यवस्था, राजनीतिक दलों की कार्य-प्रणालीपर बड़ा प्रश्नचिह्न है। असम सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण की पहल की है और उत्तर प्रदेश सरकार इस दिशामें काम कर रही है। इन प्रयासों को प्रभावी बनानेमें सहयोग देने के बजाय कई राजनेता तर्कहीन सवाल उठाकर विरोध कर रहे हैं। कुछ साम्प्रदायिक दृष्टकोण से देखते हुए इसे मुस्लिम समाज के विरुद्ध ठहरा रहे हैं, कुछ चुनावी लाभ हेतु सियासी मंशा बता रहे हैं। कुछ इसे अनावश्यक बता रहे हैं, कुछ बच्चों के जन्मको अल्लाह की मर्जी बतारहे हैं। जब भी जनसंख्या नियंत्रण की पहलहोती हैं, नकारात्मक शक्तियां सक्रिय हो जाती हैं।
देखा गया हैं किवैरि, बल्स की संख्या बढऩे परमैथमेटिकल मॉडलको हल करने में कठिनाई बहुत तेजी से बढऩे लगती है। यही स्थिति जनसंख्या के विषय में है। जनसंख्या बढऩे से मानव जीवन पोषण, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्यए पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध, आदिद्ध की गुणवत्ता प्रभावित हो चुकी है। प्राय: खाद्यान्न फ ल व सब्जियां रसायनों की मदद सेएव गन्दे पानी में उगाये जाते हैं। स्वच्छ पेयजल भी मिलना कठिन है। समाज का बड़ा वर्ग दुर्गम स्थानों पर रहने के लिए विवश है, और प्रकृतिक आपदाओं, तूफ ान, बाढ़, भूस्खलन से तबाही झेलता है। बड़े शहरोंमें एक कमरेमें ५.६ लोग रहते हैं। समूह-घ की भर्ती में भी हजारों ग्रेजुएट, पोस्ट-ग्रेजुएट, व डॉक्ट्रेट उम्मीदवार आवेदन करते हैं। शैक्षणिक उपाधियां तो मात्र कागजका टुकड़ा है, असली शिक्षा तो ब्यवहार में झलकती है। कुछ अस्पतालोंमें तो समान्य दिनोंमें भी रोगियोंको साझा-बिस्तर ही मिल पाता है। कोरोनाकालमें लोगोंके डीएनएकी पोलपट्टी खुल गयी, कि यहां आक्सीजन, जीवनरक्षक दवाइयोंकी भी कालाबारी होती है, व आपदामें एम्बुलेंस व आटो चालक भी ग्राहक से मनमाना किराया वसूलते हैं। प्राय: समाचार, आपराधिक घटनाओं से भरे रहते हैं, न्यायालयोंमें मुकदमोंके अंबार लगे हुए हैं। जब मानवका अपने समाज में यह हाल है, तो प्रकृति व पर्यावरणके साथ ब्यवहार की कल्पना करना कठिन है। निरंतर बढ़ती जनसंख्या से प्रति-व्यक्ति संसाधनोंकी कमीके कारण ऐसा हो रहा है। कुछ राजनीतिक दल मानते हैं कि परिवारमें बच्चों की संख्या पति-पत्नीपर निर्भर करती है परन्तु विचारणीय है कि वाहन-चालकोंको हेल्मेट पहनना व सीट-बेल्ट लगाना अनिवार्य बनायागया है, विवाह करने व मदिरापान करनेके लिए न्यूनतम उम्र निर्धारित की गयी है, कोरोनाकालमें मास्क लगाना अनिवार्य किया गया है। महत्वपूर्ण निर्णय जनताकी मर्जीपर नहीं छोड़े जा सकते। जनसंख्याबृद्धि देश की सबसे बड़ी समस्या है, इससे प्रति-व्यक्ति प्राकृतिक संसाधन निरंतर कम हो रहे हैं।इस पर तटस्थ रहना लापरवाही माना जायेगा।
विगत दशकोंमें जनसंख्या नियंत्रण हेतु सरकारीप्रयास भी हुए। परन्तु वर्ष-१९७६ में आपातकाल के समय केंद्र सरकारके निर्देशपर परिवार नियोजन कार्यक्रममें सरकारीतंत्रके दुव्र्यवहार से समाज त्रस्त हो गया। परिणाम स्वरूप वर्ष-१९७७ के लोकसभा चुनावमें कुछ राज्योंमें प्रतिकूल प्रभाव पडऩे से सरकार बदल गयी। तब से किसी भी राजनीतिक दल ने इस पर कोई ठोस पहल नहीं की। यहां समझना आवश्यक हैए कि वर्ष-१९७६ का परिवार नियोजन कार्यक्रम आपातकालीन जबर्दस्ती नसबन्दी अभियान था। विरोध करने वालोंपर अत्याचार हुए। अभियानमें व्यापक लापरवाही हुई। नसबन्दीकराने वालों के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखा गयाए जिससे संक्रमण होने पर मौतें भी हुई। इसलिए जनता का आक्रोश उचित था।
फ रवरी-२०२० में मध्य प्रदेश सरकार ने भी जनसंख्या नियंत्रण की पहल की, परन्तु परिवार नियोजन हेतु समाज को जागरूक करने की जिम्मेदारी स्वास्थ्य कर्मियोंपर डाल दी। विचारणीय है कि अनुयायी तो राजनेताओं व राजनीतिक दलों के होते हैं, और उन्हीं के इशारे पर हाईवे जाम, रेलवेट्रैक जाम, चक्काजाम, भारत बंद, सरकारी सम्पत्तियों की बरबादी व राजनीतिक हिंसा जैसी अलोकतांत्रिक घटनाओं को अंजाम देते है। परन्तु परिवार नियोजनके लिए समाज को समझाने का काम स्वास्थ्य कर्मियों को सौंप दिया जाता है। जनसंख्या नियंत्रण अत्यंत महत्वपूर्ण है। परिवार नियोजनके साधन अपनाने हेतु जागरूकता फैलानेमें जनप्रतिनिधियोंको स्वयं भी भूमिका निभानी चाहिए।
जनसंख्या बृद्धि राष्ट्रीय समस्या है। आवश्यकता है दलगत सियासत से ऊपर उठकर संसद द्वारा जनसंख्या नियंत्रण हेतु सार्थक चर्चाकर एक-समान प्रभावी कानून बनाया जाय। प्राय: दो प्रकार की नीतियां अपनायी जाती है, प्रोत्साहक, अर्थात परिवार नियोजन अपनाने वालोंको विशेष लाभ देकर व हतोत्साहक, अर्थात परिवार नियोजन न अपनाने वालोंको सरकारी योजनाओंके लाभ से बंचित कर। यह नीतियां गरीब-अमीर की खाई बढ़ा सकती हैंए और देर-सबेर मीडियाके दबाव में, या राजनीतिक अथवा संवैधाननिक कारणों से परिवार नियोजन न अपनाने वालोंके सहायतार्थ सरकार को विवश होना पड़ सकता है। इसलिए इन नीतियों से अपेक्षित सफ लता मिलने में सन्देह है।
प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण नीतियां दो से अधिक बच्चोंके माता-पिताओंको सरकारी पदों व पंचायतों और नगर निकायोंके चुनावके लिए अयोग्य बनाती है। अच्छा होगा यदि संसद द्वारा सांसदों, विधानमंडल सदस्योंसहित सभी संवैधानिक पदोंकी योग्यता भी इसी आधारपर निर्धारित की जाय। प्राय: समाज, माननीयजनों के आचरणका अनुसरण करता है। श्रीमद्भगवतगीता के अनुसारश्यत् यत् आचरति श्रेष्ठ:ए तत् तत् एव इतर: जन:। स: यत् प्रमाणम् कुरुते, लोक: तत् अनुवर्ततेश्।
संख्याबल का राजनीति में विशेष महत्व है। इसलिए जनसंख्या-बृद्धिका राजनीतिक कारण भी हो सकता है। इसलिए जनसंख्या नियंत्रण हेतु हतोत्साहक नीतिके तहत तीसरे बच्चेके जन्मदाता माता-पिताके मताधिकार समाप्त करने पर भी विचार किया जा सकता है। जन्मदर कम रखनेके लिए दूसरे बच्चेके लिए आवश्यक सरकारी अनुमति का प्रावधान भी उपयोगी हो सकता है।
यह समझना आवश्यक है कि जन्मदर घटने से युवाओं-बजुर्गोंका अनुपात अवश्य घटेगा, पर इससे विचलित हुए बिना लक्ष्यपर ध्यान केंद्रित कर आगे बढऩा होगा। गाड़ी स्टार्ट करने पर हेड-लाइट हल्की पड़ जाती हैए और बीमारी का इलाज करनेपर दवाइयों के दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) अवश्य होते हैं। जनसंख्या-बृद्धि का कैंसर कई अवस्थाएं पार कर चुका है, प्रभावकारी इलाज से ही राहत मिल सकती है।