कोरोना महामारीके भयावह कहरके बीच चार राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और केन्द्रशासित प्रदेश पुडुचेरी विधानसभाओंके सम्पन्न हुए चुनावोंके परिणामों और रुझानोंसे जो तस्वीर उभरकर सामने आयी है, उसके राजनीतिक निहितार्थ भी काफी महत्वपूर्ण है। सत्ता संग्रामकी केन्द्रीय भूमि पश्चिम बंगाल रही, जहां ममता बनर्जीके नेतृत्ववाली तृणमूल कांग्रेसने राज्यमें पुन: अपनी सरकार बनानेका मार्ग प्रशस्त कर लिया है वहीं असममें भारतीय जनता पार्टी पुन: सरकार बनाने जा रही है लेकिन मुख्य मंत्री सर्बानन्द सोनोवाल पुन: मुख्य मंत्रीकी कुर्सीपर आसीन होंगे, इसे लेकर संशय बना हुआ है। वहां भाजपा गठबन्धनकी सरकारकी पुन: वापसी आश्चर्यकी बात नहीं है। तमिलनाडुमें प्रमुख विपक्षी दल द्रमुक दस वर्षोंके बाद सत्तापर आसीन होने जा रहा है। एम.के. स्टालिनके नेतृत्ववाली पार्टी द्रमुकने राज्यमें शानदार प्रदर्शन कर सत्तारूढ़ एआईडीएमकेको करारा जवाब दिया है। पूर्व मुख्य मंत्री जयराम जयललिताके निधनके बाद एआईडीएमकेमें अन्दरुनी खींचतान बढऩेसे पार्टी कमजोर पड़ गयी। साथ ही तमिलनाडुमें सत्ता विरोधी लहर भी चल रही थी। पार्टीमें प्रभावशाली नेताकी कमीका भी द्रमुकको लाभ मिला। द्रमुकमें चुनावका प्रबन्धन काफी मजबूतीसे किया था जिससे जनता उसके पक्षमें हो गयी। दक्षिणके राज्योंमें केरलमें सत्तारूढ़ एलडीएफने न केवल बड़ी जीत दर्ज की, बल्कि लगातार दूसरी बार सत्तामें वापसीका मार्ग प्रशस्त कर चार दशकोंका मिथक भी तोड़ दिया। मुख्य मंत्री पिनाराई विजयनके कुशल नेतृत्वमें राज्यकी जनताने अपना भरोसा जताया है। केरलमें २०१६ में एलडीएफने १४० मेंसे ९१ सीटोंपर विजय पताका फहराकर सरकार बनायी थी। इसके पूर्व १९८० में केरलमें लगातार दूसरी बार एक ही पार्टीकी सरकार बनी थी। पुडुचेरीमें सत्ता कांग्रेसके हाथसे फिसलनेकी स्थितिमें है। इस पूरे चुनाव संग्राममें पश्चिम बंगाल सर्वाधिक चर्चामें रहा, जहां भारतीय जनता पार्टीने अति आत्मविश्वासके साथ चुनाव लड़ा लेकिन भारी जीत तृणमूल कांग्रेसके हाथों लगी। बंगालमें मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टीके बीच रहा। वामपंथी और कांग्रेस तो हाशियेपर आ गये। चुनाव परिणामोंके रुझानोंसे ममता बनर्जीका कद अवश्य बढ़ा है। कड़ी चुनौती और प्रतिकूल परिस्थितियोंमें चुनाव समरमें लगातार तीसरी बार विजय श्री प्राप्त करना आसान नहीं था लेकिन जनादेश ममता बनर्जी और उनकी पार्टीके पक्षमें रहा।
विदेशी नीतिको धार
चीनकी दादागिरी रोकनेके लिए भारतकी विदेश नीति पूरी तरह सफल रही। सामरिक रूपसे महत्वपूर्ण हिन्द महासागर क्षेत्रमें पिछले साल सुरक्षा प्रदाताकी धारणापर केन्द्रित भारतकी ठोस विदेश नीति न सिर्फ देशकी शक्तिको प्रदर्शित करती है, बल्कि चीनको भी उसकी औकातमें ला दिया है। इस नीतिके तहत भारतने हिन्द महासागरमें सुरक्षा बढ़ायी है और आक्रामक अन्दाजमें चीनके बढ़ते हस्तक्षेपके प्रति कड़ा रुख अपना लिया है जिससे चीन सकतेमें है। वैश्विक चुनौतियोंसे निबटनेमें भारी विरोधके बावजूद भारतके अथक प्रयासको पूरे विश्वने सराहा है। कोरोनाकी शुरुआती दौरमें भारतने पूरे दक्षिण एशिया, पश्चिमके देशोंको चिकित्सा उपकरण उपलब्ध करानेसे लेकर विदेशोंमें फंसे भारतीय एवं अन्य दक्षिण एशियाई नागरिकोंको निकालनेमें सराहनीय भूमिका निभायी थी। यही कारण है कि देशमें तेजी बढ़ रहे कोरोना संक्रमण कालके संकटके दौरमें विश्वके ४० देश भारतके साथ खड़े हैं और हर तरहकी मददके लिए हाथ बढ़ाया है। यह भारतकी बढ़ती साख और विनम्रताका संकेत है। इन सबके बीच पूर्वी लद्दाखमें वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनकी ओरसे भारतीय क्षेत्रमें अतिक्रमणकी कोशिशके मुद्देपर सख्तीसे निबटा। इससे भारतीय सैन्य शक्तिको कमतर आंकनेका उसका भ्रम टूटा। भारतीय सैनिकोंके शौर्यके आगे घुटने टेकनेसे राष्टï्रपति शी जिनपिंगकी उनके ही देशमें किरकिरी भी हो रही है। चीनकी महत्वाकांक्षी योजनाओंको नेस्तनाबूद करनेके लिए भारतने चीनी मोबाइल एप और कम्पनियोंपर प्रतिबन्ध लगाकर अपनी विदेश नीतिको धार देते हुए आर्थिक मोरचा भी खोल रखा है जिससे चीन बौखलाया हुआ है। चीनके पास भारतसे गतिरोध दूर करनेके अलावा कोई और विकल्प नहीं है। इसके लिए उसे अपनी मानसिकता बदलनी होगी। भारतसे सम्बन्ध सुधारनेसे ही चीन लाभान्वित होगा, क्योंकि आनेवाले समयमें उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहनेवाली है।