प्रमोद
अर्थव्यवस्थाके अन्य क्षेत्र जब नकारात्मक विकास दर दिखा रहे हों, तब देशके किसानोंका योगदान किसी वरदानकी तरह है। देशके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में ग्रामीण अर्थव्यवस्थाका योगदान लगभग ४५ फीसदी है। इसी वजहसे उन प्रवासी मजदूरोंको ग्रामोंमें रोजी-रोटी मिल पायी। हालांकि गैरकृषि कार्योंसे देशके ८० करोड़ लोगोंकी आजीविका चलती है, लेकिन इसमें बड़ा योगदान खेती-किसानीसे जुड़े उत्पादोंका ही रहता है। दरअसल कृषि ही देशका एकमात्र ऐसा व्यवसाय है जिससे ६० प्रतिशत आबादीकी रोजी-रोटी चलती है। इसके बावजूद भारतमें सिंचित क्षेत्र महज ४० फीसदी है, इसलिए खेतीकी निर्भरता अच्छे मानसूनपर टिकी है। वैसे तो इस बार मौसम विभागके पूर्वानुमानने अच्छी बारिशकी उम्मीद जगायी है, लेकिन विभागकी एक अन्य रिपोर्ट चौंकानेवाली है। ५० वर्षोंके अध्ययनपर केंद्रित इस रिपोर्टके अनुसार मौसममें जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इससे आशय यह निकलता है कि देशमें मानसूनमें बारिशका प्रतिशत लगातार घट रहा है। दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वह आसमानमें छहसे साढ़े छह हजार फीटकी ऊंचाईपर होते हैं। ५० साल पहले यह बादल घने होते थे, परंतु अब साल-दर-साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है।
यदि औसत मानसून आये तो देशमें हरियाली और समृद्धिकी संभावना बढ़ती है और औसतसे कम आये तो अकालकी क्रूर परछाइयां देखनेमें आती हैं। आजकल बादलोंके बरसनेकी क्षमता घट रही है। ऐसा जंगलोंके घटते जानेके कारण हुआ है। दो दशक पहलेतक कर्नाटकमें ४६, तमिलनाडुमें ४२, आंध्रप्रदेशमें ६३, ओडिशामें ७२, पश्चिम बंगालमें ४८, अविभाजित मध्यप्रदेशमें ६५ फीसदी वनोंके भूभाग थे, जो अब ४० प्रतिशत शेष रह गये हैं। इस कारण बादलोंकी मोटाई और सघनता घटती जा रही है। नतीजतन पानी भी कम बरसने लगा है और आपदाओंकी घटनाएं बढऩे लगी हैं। मौसम वैज्ञानिकोंका कहना है कि बीते एक दशकमें मौसममें आ रहे बदलावोंके चलते बीस गुना आकस्मिक घटनाएं बढ़ी हैं। इस बदलावमें भूस्खलन, भारी बारिश, ओलोंका गिरना और बादलोंके फटनेकी घटनाएं शामिल हैं। चक्रवात और बाढ़ प्रभावित जिलोंमें यह घटनाएं और अधिक संख्यामें देखनेमें आती हैं। इन्हें चरम जलवायु परिवर्तित घटनाएं कहा गया है। सन् १९७० से २००५ के बीच इनकी संख्या २५० थी जो २००५ से २०२० के बीच बढ़कर ३१० हो गयी। इस चरम बदलावके चलते जो बारिश पहले तीन दिनमें होती थी, वह अब तीन घंटेमें हो जाती है। पहले केरल और मुंबईमें बाढ़ आती थी, जिसका विस्तार गुजरात और राजस्थानके रेगिस्तानी इलाकोंमें भी हो गया है। बारिशके औसत दिन भी कम हुए हैं। पहले १ जूनसे ३० सितंबरके बीच १२२ दिनकी लंबी अवधितक बारिश होती रहती थी। इसका औसत ८८० मिलीमीटरके इर्द-गिर्द रहता था। अब बारिशकी मात्रा तो लगभग यही रहती है, लेकिन यह बारिश करीब ६० दिनकी भी हो जाती है।
इस वजहसे बाढ़, भूस्खलन और बादल फटनेके हालात बनते हैं, जो जानमालकी तबाहीसे जुड़े होते है। विडंबना यह है कि जिन क्षेत्रोंमें यह हालात बनते हैं, उन्हींमें बेमौसम बारिश, तेज गर्मी और सूखेके हालात भी निर्मित होते हैं। मौसम वैज्ञानिकोंकी मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारतमें मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है, तब कम दबावका क्षेत्र बनता है। इस कम दबाववाले क्षेत्रकी ओर दक्षिणी गोलार्धसे भूमध्य रेखाके निकटसे हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरतीकी परिक्रमा सूरजके इर्द-गिर्द अपनी धुरीपर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगानेकी इस प्रक्रियासे हवाओंमें मंथन होता है और उन्हें नयी दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्धसे आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखाको पार करते ही पलटकर कम दबाववाले क्षेत्रकी ओर गतिमान हो जाती हैं। यह हवाएं भारतमें प्रवेश करनेके बाद हिमालयसे टकराकर दो हिस्सोंमें विभाजित होती हैं। इनमेंसे एक हिस्सा अरब सागरकी ओरसे केरलके तटमें प्रवेश करता है और दूसरा बंगालकी खाड़ीकी ओरसे प्रवेश कर ओड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाबतक बरसता है। अरब सागरसे दक्षिण भारतमें प्रवेश करनेवाली हवाएं आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थानमें बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओंपर भूमध्य और कश्यप सागरके ऊपर बहनेवाली हवाओंके मिजाजका प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागरके ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसूनपर असर डालती हैं।
वायुमंडलके इन क्षेत्रोंमें जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसूनके रुखमें परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसातके रूपमें धरतीपर गिरता है। बरसनेवाले बादल बननेके लिए गरम हवाओंमें नमीका समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमानके मुताबिक प्रति एक हजार मीटरकी ऊंचाईपर पारा छह डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमंडलकी सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉजतक चलता है। इस परतकी ऊंचाई यदि भूमध्य रेखापर नापें तो करीब १५ हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्यसे ८५ डिग्री सेंटीग्रेट नीचे पाया गया है। यही परत ध्रुव प्रदेशोंके ऊपर कुल छह हजार मीटरकी ऊंचाईपर भी बन जाती है और तापमान शून्यसे ५० डिग्री सेंटीग्रेट नीचे होता है। इसी परतके नीचे मौसमका गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रामें भाप होती है। यह भाप ऊपर उठनेपर ट्रोपोपॉजके संपर्कमें आती है। ठंडी होनेपर भाप द्रवित होकर पानीकी नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वीसे पांच-दस किलोमीटर ऊपरतक जो बादल बनते हैं, उनमें बर्फके बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानीकी बूंदें और बर्फके कण मिलकर बड़ी बूंदोंमें तब्दील होते हैं और वर्षाके रूपमें धरतीपर टपकना शुरू होते हैं। फिलहाल मौसममें आ रहे बदलाव और बढ़ती घटनाओंके चलते हमें खेतीके तरीकोंमें ऐसे परिवर्तन लाने होंगे, जो जलवायुमें अचानक होनेवाले दुष्प्रभावोंसे सुरक्षित रहें।