सम्पादकीय

जागरूकतासे बचाव सम्भव


ज्ञानेन्द्र रावत

बीती १२ फरवरीको रात्रि ताजिकिस्तानमें आये ६.३ रिएक्टर स्केल और अमृतसरमें ठीक उसके ३ मिनट बाद ६.१ रिएक्टर स्केलके भूकंपसे कोई जन-धनके नुकसानकी सूचना नहीं है। ताजिकिस्तानमें जमीनके अंदर ८० किलोमीटर इस भूकंपका केन्द्र बताया जा रहा है। उत्तर भारतके हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, चंडीगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, नोएडा सहित राजधानी दिल्लीमें भूकंपके झटके महसूस किये गये। कहीं मकानकी दीवारोंमें दरारें आनेकी खबरें हैं तो कहीं छत चटकने की। गौरतलब है कि बीते साल १२-१३ अप्रैल, ३ मई, १० मई, १५ मई, २८-२९ मईके बीच भी देशकी राजधानी दिल्लीमें तकरीबन १८ भूकंपके झटके महसूस किये गये थे। उस समय दिल्लीके मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवालने भूकंपसे बचाव हेतु एक जागरूकता अभियान भी चलाया था। इससे पहले २४ सितम्बर २०१९ को पाकिस्तानअधिकृत कश्मीरमें आये ५.८ रिएक्टर पैमानेके भूकंपसे भारी तबाही हुई थी। भूकंपसे इस बार ताजिकिस्तान या भारतमें भले ही जानमालका नुकसान न हुआ हो लेकिन इतना तय है कि भारतमें भूकंपके खतरेसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

भले दावे कुछ भी किये जायें, असलियत यह है कि भूकंपके खतरेसे निबटनेकी तैयारीमें हम बहुत पीछे हैं। यह कटु सत्य है कि मानव आज भी भूकंपकी भविष्यवाणी कर पानेमें नाकाम है। अर्थात भूकंपको हम रोक नहीं सकते लेकिन जापानकी तरह उससे बचनेके प्रयास तो कर ही सकते हैं। जरूरी है हम उससे जीनेका तरीका सीखें। हमारे देशमें सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि लोगोंको भूकंपके बारेमें बहुत कम जानकारी है। फिर हम भूकंपको दृष्टिगत रखते हुए विकास भी नहीं कर रहे हैं, बल्कि अंधाधुंध विकासकी दौड़में बेतहाशा भागे ही चले जा रहे हैं। दरअसल हमारे यहां सबसे अधिक संवेदनशील जोनमें देशका हिमालयी क्षेत्र आता है। हिन्दूकुशका इलाका, हिमालयकी ऊंचाईवाला और जोशीमठसे ऊपरवाला हिस्सा, उत्तर-पूर्वमें शिलांगतक धारचूलासे जानेवाला, कश्मीरका और कच्छ एवं रणका इलाका भूकंपकी दृष्टिसे संवेदनशील जोन-५ में आते हैं। इसके अलावा देशकी राजधानी दिल्ली, जम्मू और महाराष्ट्रतकका देशका काफी बड़ा हिस्सा भूकंपीय जोन-४ में आता है। देखा जाये तो भुज, लातूर और उत्तरकाशीमें आये भूकंपके बाद यह आशा बंधी थी कि सरकार इस बारेमें अतिशीघ्र ठोस रणनीति बनायगी, परन्तु ऐसा हुआ नहीं।

देशकी राजधानी दिल्ली सहित सभी महानगरोंमें गगनचुम्बी बहुमंजिली इमारतों, अट्टालिकाओंकी शृंखला शुरू हुई, जिसके चलते आज शहर-महानगरों-राजधानियों और देशकी राजधानीमें कंक्रीटकी आसमान छूती मीनारें ही मीनारें दिखाई देती है। यह सब बीते पंद्रह-बीस सालोंके ही विकासका नतीजा है। जाहिर-सी बात है कि इनमेंसे दो प्रतिशत ही भूकंपरोधी तकनीकसे बनायी गयी हैं। यही बहुमंजिली आवासीय इमारतें भूकंप आनेकी स्थितिमें भारी तबाहीका कारण बनेंगी। हमारे यहां अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बढ़ती आबादीके कारण अनेक समस्याएं हैं। आधुनिक निर्माण सम्बंधी जानकारी, जागरूकता एवं जरूरी कार्यकुशलताका अभाव है, इससे जनजीवनकी हानिका जोखिम और बढ़ गया है। ऐसी स्थितिमें पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते लेकिन भूकंप संभावित क्षेत्रोंमें नये मकानोंको हल्की सामग्रीसे बना तो सकते हैं। इसमें मात्र पांच फीसदी ही अधिक धन खर्च होगा। हमें संकटके समय खतरोंके बारेमें जानना एवं उसके लिए तैयार रहना चाहिए।

इस बातका ध्यान रखें कि देश ही नहीं, दुनियामें संयुक्त राष्ट्रके नियमोंके मुताबिक बचाव नियमोंका पालन नहीं हो पा रहा है और देशवासी मौतके मुहानेपर खड़े हैं। इसलिए उन्हें खुद कुछ करना होगा। सरकारके बूते कुछ नहीं होनेवाला, तभी भूकंपके सायेसे कुछ हदतक खुदको बचा सकेंगे। स्थितिकी चुनौतीको सरकार खुद स्वीकार भी कर चुकी है। निष्कर्ष यह कि भूकंपसे बचा जा सकता है लेकिन इसके लिए समाज, सरकार, वैज्ञानिक और आम जनता सबको प्रयास करने होंगे। जहांतक सरकारका सवाल है, उसे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंटके भूकंपसे बचावके प्रस्तावपर अमल करनेमें अब देरी नहीं करनी चाहिए। यह समयकी मांग है।