सम्पादकीय

जीवनका सार


सदानन्द शास्त्री

चार ही जीवनका सार होते हैं क्योंकि व्यक्तिके जैसे विचार होते हैं वैसी ही उसकी क्रियाएं होती हैं और उसकी क्रियाएं ही उसकी आदते बन जाती हैं और उसकी आदतें ही उसका चरित्र बनता है और व्यक्तियोंके चरित्रसे राष्ट्रका चरित्र बनता है। मनुष्यके अन्तर्मनमें आत्मशक्ति, स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति, संकल्प शक्ति, इच्छा शक्ति, संघटन शक्ति एवं विवेक शक्ति निवास करती है, इनको विकसित करना, समझना और सदुपयोगमें लेना उसकी क्षमतापर निर्भर करता है। एक आंखको दूसरी आंख देखनेके लिए जिस प्रकारसे दर्पणकी आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार मनुष्यकी सारी शक्तियोंको जानने-समझने और विकसित करनेके लिए असंभवको संभव बनानेके लिए अन्तर्दृष्टिकी आवश्यकता पड़ती है। आम तौरपर व्यक्तिको अपनी दो आंखें दिखती है, जिनसे वह बाहरका संसार देखता है, लेकिन ललाटपर जिस स्थानपर तिलक लगाया जाता है उस स्थानपर दिव्य दृष्टि होती है। जिसे ज्ञान चक्षु भी कहा जाता है और इसी दृष्टिसे भीतरका आनंद दिखता है। यह व्यक्ति ही होता है कि वह किसी अच्छे कामके लिए अपने दो हाथ भी नहीं उठा पाता है और यह भी व्यक्ति ही होता है उसके दो हाथ उठनेके साथ ही लाखों हाथ एक साथ उठ जाते हैं सर्वहितके लिए। आंखोंमें देखनेकी शक्ति, कानोंमें सुननेकी शक्ति, हाथोंमें करनेकी शक्ति, पैरोंमें चलनेकी शक्ति, नाकमें सूंघनेकी शक्ति और जिह्वाामें चखनेकी शक्ति होती है लेकिन जब यह सारी शक्तियां मिल जाती है तो संघटन शक्ति कहलाती है। इसलिए जिस प्रकार सारे अंग संघटित रहते हैं, पूरे शरीरको स्वस्थ-व्यस्त रखते हैं उसी प्रकार व्यक्तियोंको संघटित रहकर देशके लिए संघटित रहकर काम करना चाहिए। यह त्रासदी ही कही जायगी कि आज व्यक्ति चन्द्रमा और मंगलपर तो जा रहा है लेकिन वह अपने पड़ोसियोंके यहां दो कदम भी चलकर नहीं जा पाता है। चन्द्रमा-मंगलके बारेमें तो सब कुछ जानता है लेकिन अपने पड़ोसियोंके बारेमें कुछ भी नहीं जानता है। विज्ञानका युग है और इंसानका युग जा रहा है क्योंकि हम इंटरनेटसे तो जुड़े हैं लेकिन दिलोंसे बहुत दूर हैं। मोबाइल काल बन रहा है। जीवनका सौभाग्य इसपर निर्भर है कि वह कितनोंके जीवनको आबाद करता है, अपने सद्कर्मोंकी छाप छोड़ता है।