सम्पादकीय

जीवनके दो पहलू


जग्गी वासुदेव

काम और खेल जीवनके दो पहलू हैं, जिनकी क्षमताओंको लोगोंने महसूस नहीं किया है। किसी खेलको खेलना जीवनका एक ऐसा पहलू है, जिसमें पूरी तरह शामिल न होनेका कोई सवाल ही नहीं उठता है या तो आप अंदर होंगे या बाहर। आध्यात्मिक प्रक्रिया भी बिलकुल ऐसी ही है। यदि यही चीज अपने हर काममें भी लायी जाय या तो आप काम करें या नहीं करें। कुछ भी आधे-अधूरे मनसे न करें तो आप खुदको कष्ट नहीं देंगे। यदि आप कोई ऐसा खेल-खेल रहे हों, जिसे खेलनेकी आपकी इच्छा नहीं है तो आप पूरे खेलके दौरान खुदको सताते रहेंगे। कोई खेल हो या जीवन प्रक्रिया यदि उसमें आप अनिच्छासे भाग लेते हैं तो काम और खेल दोनों ही आपके लिए कष्टका कारण बन जायंगे। लोगोंको अपने कामसे परेशानी होती है और काम न हो तो परेशानी दोगुना हो जाती है। छुट्टियोंके शुरुआती चार दिन तो अच्छे लगते हैं, उसके बाद दिक्कत होने लगती है। इसकी वजह यह है कि यदि आप काम ठीकसे नहीं कर सकते तो आप निश्चित रूपसे छुट्टियां भी ठीकसे नहीं बिता सकते। काम एक तरहसे वरदान है क्योंकि तब आपको खाली समय नहीं मिलता। खाली समयमें खुदको सही ढंगसे संभालनेके लिए काफी जागरूकताकी जरूरत होती है। कामकी कमसे कम एक रूपरेखा तो होती है, आप उसके हिसाबसे चल सकते हैं। इनसान अपने भीतर सबसे बुरी हालतमें तभी होता है, जब उसके पास कोई काम नहीं होता। मुझे लगता है कि परिवारोंमें जो सबसे जबरदस्त झगड़े होते हैं, वह रविवार या किसी छुट्टीके दिन होते हैं। कामके दिनोंमें मुझे नहीं लगता कि लोग बहुत ज्यादा लड़ते हैं। ऐसा पूरी दुनियामें होता है। रविवारको कुछ करनेको होता नहीं है, कुछ निश्चित योजना होती नहीं है, बस तभी यह सब होता है। कौन-सा टीवी चैनल देखा जाय, इसपर कितने झगड़े होते हैं। इसीलिए कई घरोंमें पांच-छह टीवी सेट भी होते हैं क्योंकि हर कोई अपने हिसाबसे अपना चैनल देखना चाहता है। ऐसे न जाने कितने दंपति हैं, जिनकी एक-दूसरेसे पटती ही नहीं, परिवारोंमें आपसी कलह रहती है। ऐसा नहीं है कि वह लगातार झगड़ा ही कर रहे हैं, लेकिन वह रिश्तोंको जैसे-तैसे निभा रहे होते हैं और एक खास किस्मका सन्तुलन बनानेकी कोशिश कर रहे होते हैं। जब हम आध्यात्मिक प्रक्रियाकी बात करते हैं तो हमारा मतलब खुदको मिटानेसे होता है। खुदको मिटानेका मतलब, आप जो भी हैं उस ढांचेको तोड़ देना।