सम्पादकीय

टीकेपर राजनीतिका औचित्य


राजेश माहेश्वरी      

कोरोना जैसी आपदाके चलते देशको जिन परिस्थितियोंका सामना करना पड़ा वह बहुत कष्टदायी और दर्दनाक हैं। प्रधान मंत्रीने अपने उद्ïबोधनमें कोरोनाकी स्वदेशी वैक्सीनको लेकर फैलाये गये भ्रमके बारेमें भी बात की। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चंद राजनीतिक दलोंने अपनी तुच्छ राजनीतिके लिए टीकेको लेकर भ्रम फैलाया, जिससे टीकाकरणकी रफ्तार मंद पड़ी। केन्द्रने अपने ताजा फैसलेमें टीकाकरणकी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। असलमें राज्य टीकाकरणका प्रबंधन ठीक तरहसे करनेमें नाकाम साबित हुए। प्रधान मंत्रीने अपने वक्तव्यमें इस बातको साफ किया। वैक्सीनकी बर्बादीको लेकर लगातार खबरें प्रकाशित हो रही हैं। एक आंकड़ेके अनुसार देशमें कोरोनाके औसतन ६.३ फीसदी टीके बर्बाद कर दिये जाते हैं। झारखंडमें करीब ३७ फीसदी टीके बर्बाद किये गये हैं तो छत्तीसगढ़में यह औसत ३१ फीसदीसे ज्यादा है। तमिलनाडुमें संक्रमित मरीजोंके आंकड़े अभीतक डराते रहे हैं, लेकिन वहां भी १५ फीसदीसे अधिक टीके बर्बाद किये गये हैं।

जम्मू-कश्मीर और मध्यप्रदेश सरीखे क्षेत्रोंमें करीब ११ फीसदी टीके बेकार कर दिये गये हैं। राजस्थानमें तो लापरवाही अपनी चरमसीमाको छू रही है, जहां कोरोना टीकेकी पांच सौ शीशियां कूड़ेदानमें पायी गयीं। उन शीशियोंमें औषधि शेष थी, जो किसी भी व्यक्तिके लिए ‘संजीवनीÓ साबित हो सकती थी। यकीनन यह आपराधिक लापरवाही है। वैक्सीनकी बर्बादी कई और राज्योंमें भी हुई है अथवा की गयी है। इसकी नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। वैक्सीनकी उपलब्धता, क्वालिटी और उसके मुफ्त वितरणकी बात तो विपक्षके सभी दल करते रहे हैं, लेकिन एक सोची-समझी रणनीतिके तहत विपक्षके एक भी दलने कभी टीकोंकी बर्बादीका सरोकार नहीं जताया है। लेकिन बड़ी निर्लज्जतासे राज्योंमें गैर-भाजपाकी सरकारोंने केंद्र सरकारकी कोरोनाको लेकर बनाये नियमों, नीतियों और खासकर वैक्सीनको लेकर सवाल उठानेमें कोई परहेज नहीं किया। देशकी जनता भी विपक्षकी इस मंशाको समझ रही है कि वह विशुद्ध राजनीतिके अलावा कुछ और नहीं कर रहा, लेकिन विपक्ष अपनी चालें चलनेसे बाज नहीं आ रहा है। अब चूंकि केंद्रने टीकाकरणकी पूरी जिम्मेदारी अपने कंधोंपर ले ली है, वहीं मुफ्त वैक्सीन उपलब्ध करवानेकी घोषणा भी कर दी, ऐसेमें विपक्ष सरकारको घेरनेके नये मुद्दे तलाश रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले साल जब कोरोनाने देशमें दस्तक दी उस समय देशमें डर और निराशाका वातावरण था। लेकिन आपदाके समय देशवासियोंके जीवनपर मंडरा रहे खतरोंसे मुक्ति दिलानेके लिए हमारे देशमें जो सकारात्मक परिस्थितियां निर्मित हुईं, उनसे न केवल देशवासियोंने, बल्कि दुनियाने प्रेरणा ली है। निराशा एवं खतरेकी इन स्थितियोंमें देशने मनोबल बनाये रखा, हर तरीकेसे महामारीको परास्त करनेमें हौसलोंका परिचय दिया और इसके लिए प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीने स्वयं मोर्चा संभाले रखा, लोगोंसे दीपक जलवाये और ताली बजवायी। वैक्सीन जल्दी बनकर सामने आये, उसके लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन इन संघर्षपूर्ण स्थितियोंमें विपक्षी राजनीतिक दलोंने कोई उदाहरण प्रस्तुत किया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता, बल्कि इन दलोंने और विशेषत: कांग्रेसने हर मोर्चेपर नकारात्मक राजनीतिको ही प्रस्तुत किया। जब वैक्सीन नहीं थी तब वैक्सीनका रोना रोया और जब वैक्सीन बन गयी तो उसपर ही सवाल खड़े कर दिये। कांग्रेसकी इस स्तरहीन राजनीतिमें तमाम दल शामिल होकर जनताको बचानेके उपायोंकी बजाय सरकारको ही कटघरेमें खड़े करते दिखे। याद होगा कि जब भारतमें पोलियो वैक्सीन लगानेका फैसला किया गया था, तब भी धार्मिक आधारपर उसका विरोध किया गया था। देशमें पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान १९९५ में शुरू किया गया था, लेकिन अब जाकर कहीं भारतसे पोलियो खत्म हुआ है। अभियानकी सफलतामें देरी इसी वजहसे लगी, क्योंकि धार्मिक अंधविश्वासके हिमायती मौलवियोंने मुस्लिम समाजसे टीकाकरणके विरोधकी अपीलें लगातार जारी की थीं। यदि ऐसा नहीं होता तो देश बहुत पहले पोलियो मुक्त हो गया होता। कोरोना वैक्सीनको लेकर राजनेताओंने भी बेतुके बयान देकर टीकाकरणकी गतिको मंथर करनेका काम किया, वहीं देशकी जनताकी जानको खतरेमें डालनेका कृत्य किया। कोरोनाके विस्तार और गहराते संकटके बीच सरकारी तंत्रकी सीमाएं सभी देख रहे हैं। इसलिए राजनीतिक दलोंको चाहिए कि सोशल मीडियामें एक-दूसरेपर दोषारोपणका अपना प्रिय खेल बादके लिए छोड़कर फिलहाल जमीनपर उतरें, जनताके बीच जायें। जाहिर है पीडि़तोंको चिकित्सकीय सुविधा राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता नहीं दे सकते, परन्तु जरूरी चीजोंमें मददका हाथ अवश्य बढ़ा सकते हैं।

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि देशमें सत्तर प्रतिशत वयस्क आबादीको टीका लगाये बिना कोरोना संकटसे मुक्त होकर जीवन सामान्य बनाना असंभव है। देशमें टीकेकी उपलब्धताको देखते हुए यह लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं लगता। सरकारकी दलील है कि वह वैश्विक वैक्सीन निर्माताओंके साथ बातचीत करके टीकाकरण अभियानको तेज करनेके प्रयासोंमें लगी हुई है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिसने भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीसे बातचीत करके कुछ टीकोंकी आपूर्तिकी बात कही है लेकिन सवा अरबसे ज्यादा आबादीवाले देशमें इतने टीकोंसे क्या होगा। यही वजह है कि कोर्टने केंद्र सरकारसे पूछा था कि बजटमें टीकोंकी खरीदके लिए जो ३५००० करोड़ रुपयेका प्रावधान किया गया था, उसका लाभ देशकी वयस्क आबादीको क्यों नहीं मिल पा रहा है? कोरोनाकी तीसरी लहरकी आशंकाने सभी देशोंको अलर्ट कर दिया है। महामारीकी प्रत्येक लहरमें अलग-अलग आयु वर्गके लोग चपेटमें आये हैं। चूंकि भारतमें अब १८ सालसे ऊपरके व्यक्तियोंको टीकाकरण जारी है।

केंद्र सरकारने आगामी जुलाई-अगस्तसे एक करोड़ लोगोंमें हर रोज टीकाकरण हो सकेगा, लिहाजा दिसंबरतक देशकी अधिकतम आबादी टीकाकृत हो सकेगी। यह खूबसूरत लक्ष्य माना जा सकता है, लेकिन टीकोंकी बर्बादी, टीकोंके कम उत्पादन और आधे-अधूरे ढांचेके कारण अक्तूबरतक ५० लाख लोगोंमें टीकाकरणका औसत लक्ष्य भी हासिल किया जा सका तो बड़ी उपलब्धि होगी। फिलहाल रूसी टीकेकी ३० लाख खुराकोंकी नयी खेप हैदराबादमें आयी है। अमेरिकी टीकोंका आयात अभी तय नहीं है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन अपने तय लक्ष्योंसे कम उत्पादन कर रहे हैं। हमारा मानना है कि यदि मंथर गतिसे ही टीकाकरणकी निरंतरता बरकरार रहे, तो २०२२ के मध्यतक हमारा देश लगभग टीकाकृत हो चुका होगा। इस मुद्देपर तुच्छ राजनीति जरूर बंद होनी चाहिए। आम आदमीके स्वास्थ्यसे जुड़े इस गंभीर मसलेपर राजनीतिसे देश और देशवासियोंका नुकसान ही होगा। वक्तका तकाजा है कि दलगत राजनीतिसे उबरकर देश-समाजपर मंडराते संकटसे निबटनेकी समझदारी और एकजुटता दिखायें।