सम्पादकीय

बाजारके हवाले न छोड़ें किसानको


राजेश माहेश्वरी
नये कृषि कानूनोंके खिलाफ किसानोंमें काफी गुस्सा है। किसान नेताओं और संघटनोंका मत है कि यह बिल उन अन्नदाताओंकी परेशानी बढ़ायंगे, जिन्होंने अर्थव्यवस्थाको संभाल रखा है। कुछ विशेषज्ञोंका कहना है कि इस कानूनसे किसान अपने ही खेतमें सिर्फ मजदूर बनकर रह जायगा।
हमें अपने देशकी स्थिति और किसानके हालातके मुताबिक योजनाएं बनानेकी जरूरत है। जिसमें किसानको बाजारके हवाले न छोड़ा जाय। एपीएमसीका दायरा बढ़ाना चाहिए। वहां निवेशकी जरूरत है। ग्रामीण अर्थव्यवस्थाको अब हर हालमें साधनेकी जरूरत है। किसानोंके विरोध प्रदर्शनके बीच सरकार खुले मनसे किसानोंसे बातचीत कर रही है। कई दौरकी बातचीत सरकार और किसान संघटनोंके बीच हो चुकी है। सरकार भी संशोधन करनेको तैयार है। ऐसेमें शीघ्र ही गतिरोध समाप्त होनेकी उम्मीद की जा सकती है।
कुछ संघटनोंका कहना है कि केन्द्र सरकार पश्चिमी दशोंके खेतीका मॉडल हमारे किसानोंपर थोपना चाहती है। कांट्रैक्ट फार्मिंगमें कम्पनियां किसानोंका शोषण करती हैं। उनके उत्पादको खराब बताकर रिजेक्ट कर देती हैं। दूसरी ओर व्यापारियोंको डर है कि जब बड़े मार्केट लीडर उपज खेतोंसे ही खरीद लेंगे तो आढ़तियोंको कौन पूछेगा। मंडीमें कौन जायगा। सौ आना सही और सच्ची बात यह है कि कृषि भारतकी जीवन रेखा है। इस क्षेत्रने हमेशा और विशेषकर संकटके समय देशको आर्थिक मोर्चेपर काफी हदतक संभालने और उभारने का काम किया है। आंकड़ोंके आलोकमें बात करें तो वर्तमानमें कृषि, राष्टï्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब १७ फीसदीका योगदान करती है और देशके श्रमिकोंके ४० प्रतिशतसे अधिक हिस्सेको आजीविका प्रदान करती है। आजादी मिलते वक्ततक भारतके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपीमें खेतीकी हिस्सेदारी आधीसे ज्यादा थी। लेकिन विकासके तेज पहियेने अब कृषिकी हिस्सेदारी घटा दी है। सरकारका कहना है कि इस कानूनके लागू हो जानेसे किसानोंके लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधाके हिसाबसे कृषि उत्पाद खरीदने और बेचनेकी आजादी होगी। ‘एक देश, एक कृषि मार्केटÓ बनेगा। कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगा। किसानोंको अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजारकी लागत कम होगी और उन्हें अपने उपजकी बेहतर कीमत मिल सकेगी। इस कानूनसे पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कम्पनी, सुपर मार्केट किसी भी किसानका माल किसी भी जगहपर खरीद सकते हैं। कृषि मालकी बिक्री कृषि उपज मंडी समितिमें होनेकी शर्त हटा ली गयी है। जो खरीद मंडीसे बाहर होगी, उसपर किसी भी तरहका टैक्स नहीं लगेगा। किसानोंकी चिंता और डरका कारण यह है कि जब किसानोंके उत्पादकी खरीद मंडीमें नहीं होगी तो सरकार इस बातको रेगुलेट नहीं कर पायगी कि किसानोंको न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है या नहीं। एमएसपीकी गारंटी नहीं दी गयी है। किसान अपनी फसलके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यकी गारंटी मांग रहे हैं। वह इसे किसानोंका कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेटसे कमपर खरीद करनेवाले जेल में डाले जा सकें। इस कानूनसे किसानोंमें एक बड़ा डर यह भी है कि किसान एवं कम्पनीके बीच विवाद होनेकी स्थितिमें कोर्टका दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता। एसडीएम और डीएम ही समाधान करेंगे जो राज्य सरकारके अधीन काम करते हैं। क्या वह सरकारी दबावसे मुक्त होकर काम कर सकते हैं? सरकार और आंदोलनकारियोंके मध्य कई दौरकी वार्ता हो चुकी है। एमएसपी, मंडी व्यवस्थासे लेकर कई बिन्दुओंपर सरकार और किसान संघटनोंके बीच मतभेद हैं। दोनों पक्ष धीरे-धीरे ही सही समाधानकी दिशामें आगे बढ़ रहे हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण २०१९-२० के मुताबिक कृषि क्षेत्रमें वृद्धि अस्थिर रही। यह २०१४-१५ में ०.२ फीसदी थी, जबकि २०१६-१७ में ६.३ फीसदी और २०१९-२० में यह फिर गिरकर २.८ फीसदी हो गयी। कृषिमें सकल स्थिर पूंजीगत निर्माण २०१३-१४ में सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) के १७.७ फीसदीसे गिरकर २०१७-१८ में जीवीएका १५.२ फीसदी हो गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कोरोना महामारीके संकटमें सभी सेक्टर प्रभावित रहे हैं, उस दौरान एकमात्र सेक्टर एग्रीकल्चर है जिसमें पॉजिटिव ग्रोथ हुई है। एग्रीकल्चर सेक्टरमें ग्रोथ रेट ३.४ सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) रही है। इससे स्पष्टï हो गया कि एग्रीकल्चर ही देशकी लाइफ लाइन है। एग्रीकल्चरने ही देशकी अर्थव्यवस्थाको संभाला है और अब देशका दायित्व बनता है कि वह किसानोंको संभाले। क्योंकि जिन लोगोंने देशको संभाला है कभी उन लोगोंको भी तो संभाला जाना चाहिए। इससे नीति-निर्धारकोंको भी स्पष्टï हो जाना चाहिए कि कृषि क्षेत्रकी क्या भूमिका है। इस लाइफ लाइनको और सुदृढ़ करनेकी जरूरत है। इस झटकेसे एग्रीकल्चर सेक्टरका महत्व भी स्पष्टï हुआ है और अब उसे भी उतना ही महत्व मिलना चाहिए। आजादीके समय ८६ फीसदी भारतीय किसान कृषिपर निर्भर थे। वर्तमानमें यह आंकड़ा घटकर करीब ६० फीसदी हो गया है। यह चिंताजनक है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसानोंको उनके उत्पादनका उचित मूल्य मिलना चाहिए। बाजारकी सुविधा हो, ताकि मुनाफा मिल सके। वहीं किसानोंको भी बदलावका साथी बनना होगा। वर्तमानमें खेती करनेके तरीकेमें बदलाव आया है। खेतीके लिए मशीनोंका सहारा लेना होगा, तभी उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है। कृषि क्षेत्रमें पूरे देशमें एक नियम लागू नहीं हो सकता। सरकारको चाहिए कि कृषिके लिए क्षेत्रीय स्तरपर योजना बनाये। अच्छी खेतीके लिए ग्राम स्तरपर कार्य करना होगा। वहीं किसानोंकी आय दोगुनी करनेके लिए कुछ मुद्दोंपर काम किये जानेकी जरूरत है जैसे ऋणकी उपलब्धता, बीमा कवरेज और कृषिमें निवेश। खेतीके नये तरीके अवश्य ही किसानोंमें आत्मविश्वास जागृत करेंगे। वहीं भारतमें कृषि क्षेत्रमें मशीनीकरण अपेक्षाकृत कम है, जिसे लक्षित किये जानेकी जरूरत है। इसके अतिरिक्त खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्रपर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि यह फसल बादके नुकसानको कम करनेमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कृषि उत्पादनके लिए अतिरिक्त बाजार तैयार करता है। कोरोना कालके संकटको देखते हुए मोदी सरकारने लाख करोड़ रुपयेका कृषि अवसंरचना कोष (फंड) घोषित किया है। ये फंड देशके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्रका योगदान बढ़ानेमें महत्वपूर्ण साबित होगा। वास्तविकता यह है कि किसानोंकी खुशहालीसे ही देश एवं संपूर्ण मानवता खुशहाल होगी।
नये कृषि कानूनोंके पक्षमें यह तर्क दिया जा रहा है कि किसानको मंडीके तामझामसे आजाद कर दिया गया है। यह प्रयोग अमेरिका और यूरोपमें किया जा चुका है और वहां यह प्रयोग असफल रहे हैं। तो क्या वजह है कि हम अमेरिका और यूरोपसे फेल योजनाएं अपना रहे हैं। हमें अपने देशकी स्थिति और किसानके हालातके मुताबिक योजनाएं बनानेकी जरूरत है। जिसमें किसानको बाजारके हवाले न छोडा जाय। एपीएमसीका दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। वहां निवेशकी जरूरत है। ग्रामीण अर्थव्यवस्थाको अब हर हालमें साधनेकी जरूरत है। किसानोंके विरोध प्रदर्शनके बीच सरकार खुले मनसे किसानोंसे बातचीत कर रही है। कई दौरकी बातचीत सरकार और किसान संघटनोंके बीच हो चुकी है। सरकार भी संशोधन करनेको तैयार है। ऐसेमें शीघ्र ही गतिरोध समाप्त होनेकी उम्मीद की जा रही है, जो सुखद संकेत है। यह बात जान लीजिए यदि हमारा अन्नदाता दुखी रहेगा तो कोई सुखी नहीं रह पायगा।