सम्पादकीय

प्रभु सुमिरन 


बाबा हरदेव

संत महापुरुष कहते हैं कि-

ज्यों तिरिया पीहर बसै, ध्यान रहे पिय माहिं।

तैसेई भगत जगतमें, हरिको भूलत नाहिं।

सुमिरनकी सुध यों करों ज्यों सुरभी सुत माहिं।

कह कबीर चारा चेरै बिसरत कबहूं नाहिं।

साधसंगत! इसीलिए गुरमुख हर समय सिमरन करता है, मनसे प्रभुका आठों पहर अहसास करता है और मनसे ही झुकता है। यह नहीं कि हाथ तो दूसरे गुरसिखके पांवकी तरफ आ रहे हों, लेकिन मनमें सोच रहा हो कि यह मेरे सामने कहांसे आ गया। ऐसी भावना कभी गुरमुखके हृदयमें नहीं होती और न होनी चाहिए। तभी वह सुख पा सकता है और हर प्रकारसे संसारमें आगे बढ़कर यश प्राप्त कर सकता है। यदि ऐसा नहीं करता तो बेडिय़ां उसे खुद ही बांध लेती हैं और वह कभी बढ़ नहीं पाता। जब यह ज्ञान प्राप्त होता है तो चारों तरफ यह कहनेको मन करता है कि यह मुझपर जो अहसान हुआ है, इससे ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे कोई कीमती लाल हिस्सेमें आ गया हो। इसका बदला तो जन्मों-जन्मोंतक नहीं चुकाया जा सकता। गुरुकी यह अपार कृपा हुई है। लेकिन यदि एक तरफ तो हम कहें कि इस दातारका अहसान नहीं चुकाया जा सकता और दूसरी तरफ इस बातकी हम कौड़ी कीमत न डालें। हमें मनमें भी यही महसूस न हो कि चौगिर्द हमारे यह दातार हैं तो समझो इसे जानकर भी हम अनजान बने हुए हैं। इस निराकारको अंग संग जाना गया है, लेकिन फिर सांसारिक इनसानकी तरह हम शायद इसे दूरियोंपर मान रहे हैं, शायद किसी अन्यकी नजरोंके मोहताज हम बने हुए हैं। परख करनेवाली निगाह कहीं सीमित है, शायद सत्संग भवनमें है, वहां कोई नहीं देख रहा। जहां व्यापार कर रहे हैं, लेकिन प्रभु द्वारा सर्वत्र सब कुछ देखा जाता है। सेवा भी तभी अच्छी होती है जब सिमरन भी साथ-साथ मनमें चलता रहे। देखनेवाला देखता है कि कड़कती धूपमें सारा दिन मैदानोंमें यह कहीं फावड़ा चला रहे हैं, कहीं तसले उठा रहे हैं, इनको कितना कष्ट हो रहा होगा। लेकिन जो सेवा कर रहा होता है उसके मनमें कितना आनंद फूट रहा होता है। इस तरहसे धन करके जो सेवामें योगदान देता है, वही जानता है। सेवाके साथ सिमरनसे ही यह आनन्द प्राप्त हुआ करता है। साधसंगत! जिस तरहसे एक बिजलीकी तार लगी हुई है और एक बल्ब भी वहीं लगा हुआ है, लेकिन उस तारका पीछेसे कनेक्शन यदि नहीं लगा हुआ तो उस बल्बतक रोशनी नहीं पहुंच सकती।