सम्पादकीय

तीसरे मोरचेको लेकर सुगबुगाहट तेज


आनन्द शुक्ल

देशमें २०२४ में लोकसभाके चुनावके मद्देनजर तीसरे मोर्चेके गठनको लेकर विपक्षी दलोंमें सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के प्रमुख शरद पवारके दिल्ली आवासपर हालमें हुई, विपक्षी दलोंके नेताओंकी बैठकको इसी दिशामें बड़ा कदम माना जा रहा है। हालांकि इस बैठकका मकसद मौजूदा राजनीतिक हालात और देशकी जर्जर अर्थव्यवस्थापर चर्चा करना बताया गया था। माना जा रहा है कि इस बैठकके बहाने अलग-थलग पड़े विपक्षी दलोंको एक-दूसरेके करीब लाने और २०२४ में राष्ट्रीय स्तरपर सशक्त मोर्चा तैयार करनेकी संभावनाओंको टटोलनेका प्रयास किया गया। पवारके घर बैठक आयोजित करानेमें राष्ट्रीय मंचके संयोजक एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोरकी अहम भूमिका रही। पश्चिम बंगालके हालके विधानसभा चुनावमें मोदी और भाजपाको पटकनी देकर ममता बनर्जीको जिस प्रकार तीसरी बार शानदार विजय हासिल हुई है, इससे पीके काफी उत्साहित हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश अवश्य इसके लिए अपवाद रहा। उत्तर प्रदेशके कांग्रेस नेताओंके भारी विरोधके चलते पार्टी पीकेके सुझावोंको जमीनपर नहीं उतार सकी, इसलिए वहां पीके चुनाव जितानेमें नाकाम साबित हुए। पीकेकी प्रभावी रणनीतिसे चुनावी बाजी मारनेके बाद ममता बनर्जीका उनपर इतना ज्यादा विश्वास हो गया है कि उन्होंने पीकेकी सेवाओंको २०२६ तकके लिए बढ़ा दिया है। बंगालके चुनाव नतीजोंसे राज्योंको भी मजबूत संदेश गया है कि क्षेत्रीय दल यदि चाह लें तो हिम्मत जुटाकर मोदीको हरा सकते हैं। समझा जाता है कि तृणमूल कांग्रेस नेता और पूर्व केन्द्रीयमंत्री यशवंत सिन्हा और सफल रणनीतिकार पीके ममता बनर्जीको तीसरे मोर्चाका चेहरा बनाकर मोदीके सामने २०२४ में एक मजबूत विकल्पके रूपमें पेश करना चाहते हैं। चूंकि इतनी बड़ी राजनीतिक लड़ाईको ममताके लिए अकेले लड़ पाना संभव नहीं है, इसलिए देशके कद्दावर और अनुभवी नेता शरद पवारको भी इसमे शामिल किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि तीसरे मोर्चेकी परिकल्पना करनेवाले रणनीतिकार ममता बनर्जीको मोर्चेका नेता और पवारको इसके संयोजकके रूपमें पेश करना चाहते हैं। गौरतलब है कि देशमें केंद्रीय सरकारोंके खिलाफ अबतक कई बार राष्ट्रीय स्तरपर मोर्चे बन चुके हैं। लेकिन इसकी विशेषता यह रही कि कभी यह सफल रहा तो कभी असफल। १९८९ में जनता दल, असमगण परिषद, तेलुगू देशम पार्टी और द्रमुकको मिलाकर स्व.विश्वनाथ प्रताप सिंहके नेतृत्वमें पहली बार राष्ट्रीय मोर्चा बना। इसके संयोजक स्व. एन.टी. रामाराव थे। राष्ट्रीय मोर्चाने भाजपा, वामदलों और निर्दलीयोंके सहयोगसे केंद्रमें सरकारका गठन किया और वी.पी. सिंह प्रधान मंत्री बने। लेकिन भाजपाके समर्थन वापस लेने और जनता दलकी आपसी फूटके चलते १९९० में सरकार गिर गयी। वी.पी. सिंह २ दिसम्बर १९८९ से १० नवंबर १९९० तक प्रधान मंत्री रहे। वी.पी. सिंहकी सरकार गिरनेके बाद कांग्रेसके समर्थनसे युवा तुर्क चन्द्रशेखर प्रधान मंत्री बने। उनकी सरकार १० नवंबर १९९० से २१ जून १९९१ तक रही। १९९६ में कामरेड स्व. हरकिशन सिंह सुरजीतके प्रयाससे सात दलोंको मिलाकर केंद्रमें एक बार फिर संयुक्त मोर्चा बना। कांग्रेस और माकपाका बाहरसे समर्थन लेकर एच. डी. देवेगौड़ा प्रधान मंत्री बने। १९९७ में प्रधान मंत्री बदलनेकी कांग्रेसकी मांगके चलते देवेगौड़ाको इस्तीफा देकर हटना पड़ा। देवेगौड़ा २१ जून १९९६ से २१ अप्रैल १९९७ तक प्रधान मंत्री रहे। इसके बाद इंद्रकुमार गुजराल प्रधान मंत्री बने। फिर १९९८ में कांग्रेसके समर्थन वापस लेने कारण संयुक्त मोर्चा बिखर गया। गुजराल २१ अप्रैल १९९७ से १९ मार्च १९९८ तक प्रधान मंत्री रहे। स्व. जयललिताने अब्दुल कलामको दूसरी बार राष्ट्रपति बनानेके लिए २००७ में संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधनकी घोषणा की। अब्दुल कलामके चुनाव लडऩेसे पीछे हट जानेसे न कई समीकरण टूट गये। इसके बाद उनका यह मोर्चा भी बिखर गया। सत्ताका स्वाद चख चुके देवेगौड़ाने २००९ में गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलोंको मिलाकर एक बार फिर मोर्चा बनानेका प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

सवाल यह है कि देशकी मौजूदा राजनीतिक परिस्थितिमें कांग्रेसके नेतृत्ववाले संप्रग और भाजपाके राजग, इन दो बड़े मोर्चोंके रहते, क्या देशमें राष्ट्रीय स्तरपर कोई तीसरा मोर्चा बन सकता है। गौरतलब है कि इस समय राष्ट्रीय मंचको आगे करके तीसरा मोर्चा बनानेकी जो कवायद शुरू है, इसके बारेमें पहले कहा गया था कि इस मोर्चेसे कांग्रेसको बाहर रखा जायगा, लेकिन अब पीके कह रहे हैं कि कांग्रेसके बिना भाजपाके खिलाफ कोई ताकतवर मोर्चा नहीं बन सकता। विपक्षी दलोंके नताओंकी बैठकके दो दिन बाद शरद पवारने भी कहा कि कांग्रेसके बिना कोई मोर्चा बन नहीं सकता है। यह बात अब किसीसे छिपी नहीं रही कि अपनी लगातार घटती ताकत और सिकुड़ते आधारके कारण कांग्रेस राष्ट्रीय स्तरपर किसी मोर्चेका नेतृत्व करनेमें समर्थ नहीं है। मौजूदा परिस्थितिमें अपने कमजोर नेतृत्वके कारण कांग्रेस भले ही संप्रगका प्रभावी तरीकेसे नेतृत्व नहीं कर पा रही है, लेकिन चुनावके बाद किसी भी दल या मोर्चेकी सरकार बनानेमें वह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यद्यपि भाजपाके नेतृत्ववाले राजगके मुकाबले इस समय राष्ट्रीय स्तरपर कोई नया मोर्चा बनाना बहुत मुश्किल है। लेकिन पवार अपने संपर्कोंके चलते भाजपासे नाराज और कांग्रेससे निराश दलोंको अपने साथ जोड़कर और ममता बनर्जीको आगे करके भाजपाके मुकाबले एक प्रभावी मोर्चा अवश्य खड़ा कर सकते हैं। राजद, तृणमूल कांग्रेस, राकांपा, सपा, नेशनल कांन्फ्रेंस और रालोद सहित छोटे-बड़ेे करीब आठ दल इस मोर्चेमें शामिल हो सकते हैं। लेकिन मात्र इन दलोंके सहयोगसे केंद्रमें सरकार नहीं बन सकती। सरकार बनानेके लिए शिवसेना, बसपा और द्रमुकको भी साथमें लेना जरूरी है। शिवसेना और बसपाका इस मोर्चेमें शामिल होना संदिग्ध है। क्योंकि जबसे उद्धव ठाकरे प्रधान मंत्री मोदीसे दिल्लीमें बंद कमरेमें चर्चा करके लौटे हैं, तबसे अटकलें लगायी जा रही हैं कि अब वह कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टीसे मुक्ति पाना चाहते हैं। संभव है कि शिवसेना महाराष्ट्रका अगला विधानसभा और लोकसभाका चुनाव भाजपाके साथ मिलकर लड़े। यही स्थिति उत्तर प्रदेशमें बसपाकी है। बसपा लगातार सांघटनिक रूपसे कमजोर होती जा रही है। पार्टीने जिन नौ विधायकोंको कुछ समय पहले निष्कासित किया था, वह सभी सपामें शामिल होनेके लिए आवेदन लिए अखिलेशके दरवाजेपर खड़े हैं। ऐसी स्थितिमें बसपाको भाजपाका ही एकमात्र सहारा है। इसके पहले भाजपाके सहयोगसे उत्तर प्रदेशमें मायावती मुख्य मंत्रीकी कुर्सी संभाल चुकी हैं। इसलिए बदले राजनीतिक समीकरणोंके चलते इस नये मोर्चेमें शिवसेना और बसपाके शामिल होनेकी संभावना न के बराबर है।

यदि ममता बनर्जीके नेतृत्व और पवारके मार्गदर्शनमें देशमें कोई नया राष्ट्रीय मोर्चा बनता है तो आजकी परिस्थितिमें बढ़ती महंगी, बेरोजगारी, पेट्रोल, डीजल, रसोई गैसकी बढ़ती कीमतों और महिला सुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दोंपर इसे देशभरमें भारी जनसमर्थन मिल सकता है। सवाल यह है कि ममता यदि चेहरा बनती हैं तो उन्हें भाजपाविरोधी सभी दलोंका आसानीसे समर्थन हासिल हो सकता है, यहांतक कि कांग्रेस भी उनको समर्थन देनेपर विचार कर सकती है। लेकिन यदि पवार इसका चेहरा बनते हैं तो छोटे दलोंका तो उन्हें आसानीसे समर्थन मिल जायगा लेकिन कांग्रेस उन्हें समर्थन देगी, यह स्पष्ट तौरपर नहीं कहा जा सकता। हां, इतना जरूर है कि पवारके सभी दलोंमें मित्र हैं और उनका देशभरमें व्यापक संपर्क है। इसके साथ ही उनके पास अच्छा-खासा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव है। इस बातमें संदेह नहीं कि अपने संपर्कोंके आधारपर और ममता बनर्जीको आगे करके वह मोदी और भाजपाके खिलाफ देशमें एक तगड़ा मोर्चा खड़ा करके २०२४ में उन्हें कड़ी शिकस्त दे सकते हैं।