सम्पादकीय

देशका बेहाल मजदूर


रमेश सर्राफ धमोरा  

कोरोना संक्रमणके कारण देशके अधिकांश प्रदेशोंमें सरकारी स्तरपर पाबंदियां लगी हुई है। जिनके कारण देशमें मिनी लॉकडाउन जैसी स्थिति बनी हुई है। सरकारी पाबंदियोंके चलते देशभरमें बड़ी जनसभाएं, मीटिंग एवं अन्य कार्यक्रमोंके आयोजनपर रोक लगी हुई है। इस कारण इस बार भी मई दिवसपर मजदूरों द्वारा कहीं भी बड़े कार्यक्रमोंका आयोजन नहीं किया जायगा। दुनियाके सभी कामगारों, श्रमिकोंको समर्पित एक मईको मनाये जानेवाला मजदूर दिवस इस बार अन्य वर्षोंकी अपेक्षा अलग ढंगसे छोटे रूपमें मनेगा। कोरोनाके कारण देशके कई प्रदेशोंमें चल रहे लाकडाउन एवं पाबंदियोंके कारण देशके बहुतसे कारखाने, हाट-बाजार एवं अन्य व्यवसायिक संस्थान जहां मजदूर काम करते हैं बंद पड़े हैं। लाकडाउनके चलते काम बंद होनेके कारण देशभरमें अधिकांश मजदूर बेरोजगारीमें हैं। भारत सहित दुनियाके सभी देशोंमें मजदूर दिवस मनाया जाता है। जिसका मुख्य उद्देश्य उस दिन मजदूरोंकी भलाईके लिए काम करने एवं मजदूरोंमें उनके अधिकारोंके प्रति जागृति लाना होता है। परन्तु आजतक तो कहीं ऐसा हो नहीं पाया है। हमारे देशका मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थितिमें रह रहा है। उनको न तो मालिकों द्वारा किये गये कार्यकी पूरी मजदूरी दी जाती है और न ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवायी जाती है।

गांवमें खेतीके प्रति लोगोंका रुझान कम हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्यामें लोग मजदूरी करनेके लिए शहरोंकी तरफ पलायन कर जाते हैं। जहां न उनके रहनेकी कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढंगका काम मिल पाता है। परन्तु आर्थिक कमजोरीके चलते शहरोंमें रहनेवाले मजदूर वर्ग जैसे-तैसे कर वहां अपना गुजर-बसर करते हैं। किसी भी राष्ट्रकी प्रगति करनेका प्रमुख भार मजदूर वर्गके कंधोंपर ही होता है। लेकिन भारतका श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओंके लिए आज भी तरस रहा है। हमारे देशमें मजदूरोंका शोषण आज भी जारी है। बढ़ती महंगी और पारिवारिक जिम्मेदारियोंने भी मजदूरोंके उत्साहका कम कर दिया है। अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ कागजी रस्म बनकर रह गया है। बड़े शहरोंमें झोंपड़-पट्टी बस्तियोंकी संख्या तेजीसे बढ़ती जा रही है। जहां रहनेवाले लोगोंको कैसी विषम परिस्थितियोंका सामना करता है। इसको देखनेकी न तो सरकारको फुर्सत है ,न ही किसी राजनीतिक दलोंके नेताओंको। झोपड़पट्टी बस्तियोंमें न रोशनीकी सुविधा रहती है। न पीनेको साफ पानी मिलता है और न ही स्वच्छ वातावरण। शहरके किसी गंदे नालेके आसपास बसनेवाली झोपड़-पट्टियोंमें रहनेवाले गरीब तबकेके मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। परन्तु इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनतसे अपने मालिकोंके यहां काम करनेवाले मजदूरोंके प्रति मालिकोंके मनमें जरा भी सहानुभूतिके भाव नहीं रहते हैं। उनसे १२-१२ घंटे लगातार काम करवाया जाता है। घंटो धूपमें खड़े रहकर बड़ी-बड़ी कोठियां बनानेवाले मजदूरोंको एक छप्परतक नसीब नहीं हो पाता है।

कोरोनाके कहरके चलते आज सबसे ज्यादा परेशान देशके करोड़ों मजदूर हो रहे हैं। उनका काम धंधा एकदम चौपट हो गया है। उनके परिवारके समक्ष गुजर-बसर करनेकी समस्या पैदा हो रही है। हालांकि सरकारने देशके गरीब लोगोंको कुछ राहत देनेकी घोषणा की है। परन्तु सरकार द्वारा प्रदान की जा रही सहायता भी मजदूरोंतक सही ढंगसे नहीं पहुंच पा रही है। इस कारण बहुतसे लोगोंके समक्ष रोजी-रोटीका संकट व्याप्त हो रहा है। उद्योगपतियों एवं ठेकेदारोंके यहां अस्थायी रूपसे काम करनेवाले श्रमिकोंको न तो उनका मालिक कुछ दे रहा है, न ही ठेकेदार। इस विकट परिस्थितिमें श्रमिक अन्य कहीं काम भी नहीं कर सकते हैं। उनकी आयके सभी रास्ते बंद हो रहे हैं। हमारे देशमें आज सबसे ज्यादा काई प्रताडि़त एवं उपेक्षित है तो वह मजदूर वर्ग है। मजदूरोंकी सुननेवाला देशमें कोई नहीं हैं। कारखानोंमें काम करनेवाले मजदूरोंपर हर वक्त इस बातकी तलवार लटकती रहती है कि न जाने कब मालिक उनकी छटनी कर कामसे हटा दे। कारखानोंमें कार्यरत मजदूरोंसे निर्धारित समयसे अधिक काम लिया जाता है विरोध करनेपर कामसे हटानेकी धमकी दी जाती है। मजबूरीमें मजदूर कारखानेके मालिककी शर्तोंपर काम करनेको मजबूर होता है। कारखानोंमें श्रम विभागके मापदण्डोंके अनुसार किसी भी तरहकी कोई सुविधाएं नहीं दी जाती है। कई कारखानोंमें तो मजदूरोंसे खतरनाक काम करवाया जाता है जिस कारण उनको कई प्रकारकी बीमारियां लग जाती है। कारखानोंमें मजदूरोंको पर्याप्त चिकित्सा सुविधा, पीनेका साफ पानी, विश्रामकी सुविधातक उपलब्ध नहीं करवायी जाती है। मालिको द्वारा निरंतर मजदूरोंका शोषण किया जाता है परन्तु मजदूरोंके हितोंकी रक्षाके लिए बनी मजदूर यूनियनोंको मजदूरोंकी बजाय मालिकोंकी ज्यादा चिंता रहती है। हालांकि कुछ मजदूर यूनियने अपना फर्ज भी निभाती है परन्तु उनकी संख्या कम है। हमारे देशमें मजदूरोंकी स्थिति सबसे भयावह होती जा रही है। देशका मजदूर दिन-प्रतिदिन और अधिक गरीब होता जा रहा है। दिन-रात रोजी-रोटीके जुगाड़में जद्दोजहद करनेवाले मजदूरको तो दो जूनकी रोटी मिल जाय तो मानों सब कुछ मिल गया। आजादीके इतने सालोंमें भले ही देशमें बहुत कुछ बदल गया होगा। लेकिन मजदूरोंके हालात तो आज भी नहीं बदले हैं तो फिर श्रमिक वर्ग किसलिए मजदूर दिवस मनाये। हर बार मजदूर दिवसके अवसरपर सरकारे मजदूरोंके हितकी योजनाओंके बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है। जिनमें मजदूरोंके हितोंकी बहुत-सी बाते लिखी होती हैं। किन्तु उनमेंसे अमल किसी बातपर नहीं हो पाता है। देशमें सभी राजनीतिक दलोंने अपने यहां मजदूर संघटन बना रखे हैं। सभी दल दावा करते हैं कि उनका दल मजदूरोंके भलेके लिए काम करता है। परन्तु यह सिर्फ कहने सुननेमें ही अच्छा लगता है हकीकत इससे कहीं उलटी हैं।