अमित बैजनाथ गर्ग
भारत जैव विविधता समृद्ध देश है। विश्वका २.४ प्रतिशत क्षेत्रफल होनेके बावजूद यह विश्वकी ७.८ प्रतिशत सभी दर्ज प्रजातियों (जिनमें ४५००० पादप प्रजातियां एवं ९१००० जंतु प्रजातियां) का पर्यावास स्थल है। विश्वके ३४ जैव विविधता हॉटस्पॉटमेंसे चार भारतमें हैं। विश्वके १७ मेगा&डायवर्सिटी देशोंमें भारत शामिल है। इस प्रकार जैव विविधता न केवल इको सिस्टमका निर्माण करता है, बल्कि यह देशमें आजीविकाको भी आधार प्रदान करता है। ऐसेमें भारतमें जैव विविधताका संरक्षण अपरिहार्य हो जाता है। जैव विविधताके संरक्षणके लिए कई उपाय किये गये हैं जैसे कि १०३ राष्ट्रीय उद्यानोंकी स्थापना, ५१० वन्य जीव अभ्यारणोंकी स्थापना, ५० टाइगर रिजर्व, १८ बायोस्फीयर रिजर्व, तीन कंजर्वेशन रिजर्व तथा दो सामुदायिक रिजर्वकी स्थापना। जैव विविधताके संरक्षणके लिए राष्ट्रीय जैव विविधता काररवाई योजना (एनबीएपी) तैयार की गयी है, जो कि वैश्विक जैव विविधता रणनीतिक योजना २०११-२० के अनुकूल है। इसे २०१० में कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिक डायवर्सिटीकी बैठकमें स्वीकार किया गया।
भारतमें वर्ष २००२ में जैव विविधता एक्ट तैयार किया गया। इसके क्रियान्वयनके लिए त्रिस्तरीय संस्थागत ढांचेका गठन किया गया है। एक्टकी धारा-८ के तहत सर्वोच्च स्तरपर वर्ष २००३ में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरणका गठन किया गया। इसका मुख्यालय चेन्नईमें है। राज्योंमें राज्य जैव विविधता प्राधिकरणकी भी स्थापना की गयी है। स्थानीय स्तरपर जैव विविधता प्रबंध समितियों (बीएमसी) का गठन किया गया है। देशके २६ राज्योंने राज्य जैव विविधता प्राधिकरण एवं जैव विविधता प्रबंध समितियोंका गठन किया है। जहां वर्ष २०१६ में बीएमसीकी संख्या ४११८० थी, जो वर्ष २०१८ में बढ़कर ७४५७५ हो गयी। अकेले महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेशमें ही ४३७४३ बीएमसीका गठन किया गया है। इन समितियोंका उद्देश्य देशकी जैव विविधता एवं संबंधित ज्ञानका संरक्षण, इसके सतत उपयोगमें मदद करना तथा यह सुनिश्चित करना कि जैविक संसाधनोंके उपयोगसे जनित लाभोंको उन सबसे उचित एवं समान रूपसे साझा किया जाय, जो इसके संरक्षण, उपयोग एवं प्रबंधनमें शामिल हैं। जहांतक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरणकी बात है तो यह देशमें जैव विविधताके संरक्षणके लिए दी गयी भूमिकाका बखूबी पालन कर रहा है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरणके अनुसार राष्ट्रीय जैव विविधता काररवाई योजनाका क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण है। इसके सफल क्रियान्वयनमें लोगोंकी भागीदारीकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केरलके वायनाड जिलेमें एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशनका सामुदायिक कृषि जैव विविधता केंद्र इस बातका बेहतरीन उदाहरण पेश करता है कि कैसे स्थानीय स्वशासनको सुदृढ़ करनेसे स्थानीय विकास योजनाओंमें जैव विविधता संरक्षणको समन्वित किया जा सकता है।
भारतके राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरणने हालमें संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रमकी मददसे ग्रामीणोंकी आजीविकामें बेहतरीके नये मानदंड स्थापित किये हैं। जैव विविधतापर कन्वेंशनके लक्ष्योंको हासिल करनेके लिए व्यापक कानूनी और संस्थागत प्रणाली स्थापित करनेमें भारत काफी आगे रहा है। आनुवांशिक संसाधनोंको लोगोंके लिए उपलब्ध कराना और लाभके निष्पक्ष, समान बंटवारेके कन्वेंशनके तीसरे उद्देश्यको जैव विविधता अधिनियम २००२ और नियम २००४ के तहत लागू किया जा रहा है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण कन्वेंशनके प्रावधान लागू करनेके अपने कामके लिए विश्व स्तरपर मान्यता प्राप्त है। इसकी पहुंच बढ़ाने और लाभ साझाकरण प्रावधानोंके संचालनके लिए राष्ट्रीय स्तरपर लोगोंके जैव विविधता रजिस्टर और जैव विविधता प्रबंधन समितियोंका नेटवर्क तैयार किया जाता है। २००२ के अधिनियमके आधारपर बनी जैव विविधता प्रबंधन समितियां स्थानीय स्तरकी वैधानिक निकाय हैं, जिनमें लोकतांत्रिक चयन प्रक्रियाके तहत कमसे कम दो महिला सदस्योंकी भागीदारी जरूरी होती है। यह समितियां शोधकर्ताओं, निजी कंपनियों, सरकारों जैसे प्रस्तावित उपयोगकर्ताओंकी जैव संसाधनोंतक पहुंच संभव बनाने और सहमति बनानेमें मदद करती हैं। इससे जैव विविधता रजिस्टरों और जैविक संसाधनोंके संरक्षण और टिकाऊ उपयोगके फैसलोंके जरिये उपलब्ध संसाधनोंका स्थायी उपयोग और संरक्षण सुनिश्चित किया जाता है। प्रोजेक्टका शीर्षक है जैविक विविधता अधिनियम और नियमोंके कार्यान्वयनको सुदृढ़ करने एवं उसकी पहुंच और लाभ साझाकरण प्रावधानपर ध्यान।
परियोजनाका उद्देश्य जैविक संसाधनोंतक बेहतर पहुंच बनाना, उनके आर्थिक मूल्यका आकलन करना और स्थानीय लोगोंके बीच उनके लाभोंको बेहतर ढंगसे साझा करना है। इसे देशके २९ राज्योंमेंसे दस राज्यों आंध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, गोवा, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना और त्रिपुरामें चलाया जा रहा है। कम ही लोग जानते होंगे कि भारतमें जैव विविधताके कई आकर्षक वैश्विक केंद्र हैं। उदाहरणके लिए सिक्किममें पक्षियोंकी ४२२ प्रजातियां और तितलियोंकी ६९७ प्रजातियां, फूलोंके पौधोंकी साढ़े चार हजार प्रजातियां, पौधोंकी ३६२ प्रजातियां और सुंदर ऑर्किड फूलोंकी समृद्ध विविधता है।
जंतुओं और वनस्पतियोंकी अनगिनत प्रजातियां ही हिमालयको जैव विविधताका अनमोल भंडार बनाती हैं। यहां मौजूद हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर, बहुमूल्य जंगल, नदियां और झरने इसके लिए उपयुक्त जमीन तैयार करते हैं। हिमालय को कई जोनमें बांटा गया है, जिनमें मध्य हिमालयी क्षेत्र विशेष रूपसे इस बायोडायवर्सिटीका घर है। मध्य हिमालयमें बसे उत्तराखंड राज्यमें ही वनस्पतियोंकी ७००० और जंतुओंकी ५०० महत्वपूर्ण प्रजातियां मौजूद हैं। आज हिमालयी क्षेत्रमें जैव विविधताको कई खतरे भी हैं और इसकी कई वजहें हैं, जिनमें जलवायु परिवर्तनसे लेकर जंगलोंका कटना, वहां बार-बार लगनेवाली अनियंत्रित आग, जलधाराओंका सूखना, खराब वन प्रबंधन और लोगोंमें जागरूकताकी कमी शामिल है। इस वजहसे कई प्रजातियोंके सामने अस्तित्वका संकट है। ऐसी ही एक वनस्पति प्रजाति है आर्किड, जिसे बचानेके लिए उत्तराखंडमें पिछले कुछ सालोंसे कोशिश हो रही है।
आर्किड पादप संसारकी सबसे प्राचीन वनस्पतियोंमें है, जो अपने खूबसरत फूलों और पर्यावरणमें अनमोल योगदानके लिए जानी जाती है। पूरी दुनियामें इसकी पचीस हजारसे अधिक प्रजातियां हैं और हिमालयमें यह ७०० मीटरसे करीब ३००० मीटरतककी ऊंचाईपर पाये जाते हैं। उत्तराखंड राज्यमें आर्किड की लगभग २५० प्रजातियां पहचानी गयी हैं, लेकिन ज्यादातर अपना वजूद खोनेकी कगारपर हैं। जीव विज्ञानियोंका कहना है कि कमसे कम पांच या छह प्रजातियां तो विलुप्त होनेकी कगारपर हैं। खुद जमीन या फिर बांज या तून जैसे पेड़ोंपर उगनेवाला आर्किड कई वनस्पतियोंमें परागणको संभव या सुगम बनाता है। च्यवनप्राश जैसे पौष्टिक और लोकप्रिय आयुर्वेदिक उत्पादमें आर्किडकी कमसे कम चार प्रजातियोंका इस्तेमाल होता है जो उच्च हिमालयी क्षेत्रोंमें पायी जाती हैं। पिछले दो सालसे उत्तराखंड वन विभागके शोधकर्ताओंने कुमाऊंकी गोरी घाटी और गढ़वाल मंडलके इलाकोंमें आर्किडकी करीब सौसे अधिक प्रजातियोंको संरक्षित किया है।