सम्पादकीय

प्राणवायुकी उपयोगिता


हृदयनारायण दीक्षित

कोरोना फेफड़ों और श्वसनतंत्रपर विपरीत प्रभाव डालती है। स्वाभाविक श्वसन क्रियामें फेफड़ोंके संकुचन एवं प्रसारसे शरीरको जरूरी प्राणवायु मिलती रहती है लेकिन संक्रमणमें फेफड़ोंका श्वसन स्वाभाविक नहीं रहता।

कोरोना पीडि़त विश्वका ध्यान आक्सीजनपर है। शरीरके लिए जरूरी  प्राणवायुके अभावमें जीवन नहीं चलता। प्राणरक्षाके लिए आक्सीजन जरूरी है। आक्सीजन आपूर्तिका विषय शीर्ष महत्वपर हैं आक्सीजन वायुका महत्वपूर्ण घटक है। सामान्तया वायुमें २० प्रतिशत आक्सीजन होती है। प्रदूषित वायुमें इससे बहुत कम होती है। शुद्ध वायु जीवनके लिए अपरिहार्य है। वायुके अभावमें जीवन असंभव है। ऋग्वैदिक कालमें ही वायुकी उपयोगिताका ज्ञान हो गया था। वैदिक पूर्वज वायुको आदरणीय देवता जानते थे, उसे बहुवचन ‘मरूद्गणÓ कहते हैं। ऋग्वेदके एक मंत्रमें वह वायुको मधुरससे भरा-पूरा पाना चाहते हैं- मधुवाता ऋतायते। वायु उपयोगी है। इसका कोई विकल्प नहीं हैं वह वायुको भी तत्वोंका रस बताते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद्के सुन्दर मंत्रमें पृथ्वी और अग्निके प्रति मधुदृष्टि बतानेके बाद वायुके लिए कहते हैं, अयं वायु: सर्वेर्षां भूतानां मध्वस्य- यह वायु सभी भूतोंका मधु (सभी भूतोंसे प्राप्त रस) है और सभी भूत इस वायुके मधु है- वायो: सर्वाणि भूतानि मधु। पूर्वजनोंने उनके ढेर सारे नाम बताये हैं। वह वायु हैं, वही मरूत् भी हैं। मरूत्का सीधा अर्थ है वायु। वायु अमर देव हैं। उन्हींकी अनुकम्पासे बोली भाषा और गान भी है। वायुसे आयु है। वायुका रूप नहीं होता। वायुकी तीव्र गति आंधी है। आंधीका शोर सुनाई पड़ता है लेकिन वायुका रूप नहीं। ऋग्वेदमें कहते हैं, ध्राजिरेकस्य दद्रुशे, न रूपम्- तीव्र गति दिखाई पड़ती है, रूप नहीं। लगता है कि ऋषि वायुका रूप देखनेके अभिलाषी हैं। वह उन्हें सोम पीनेका निमंत्रण देते हैं, वायु! आओ। सोम रस सजाकर रखा गया है। प्राणवायुसे ही जीवन है। प्राणसे प्राणी है। वायु हरेक प्राणी एवं जीवका प्राण हैं। वायु नमनके योग्य हैं। मरूद्गण शक्तिशाली देवसमूह हैं, वह रूद्र देवके पुत्र बताये गये हैं। इनके उद्भवका पता लगाना आसान नहीं। ऋग्वेदके ऋषि वशिष्ठकी जिज्ञासा है, एक जैसे तेजस्वी यह रूद्र पुत्र कौन है? अपने जन्मके बारेमें यह स्वयं जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता। जन्मके बिना परिचय अधूरा है लेकिन एक मंत्रमें उनकी बाकी बातें सुस्पष्ट हैं, इनकी माताने इन्हें अंतरिक्ष-उदकमें धारण किया था। वह ऋत-सत्यका आचरण करते हैं। स्वयं तेज चलते है, शायद इसीलिए वह तेजीसे काम करनेवाले लेागोंपर जल्दी प्रसन्न होते है। यहां सत्कर्ममें शीघ्रताका संदेश है।

भारतीय चिंतनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश यह पांच महाभूत हैं। इनमें ‘वायुÓ को प्रत्यक्ष देव कहा गया है। वायु प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्मï भी। ऋग्वेदमें स्तुति है, नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्मïासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मï वदिष्यामि। तन्मामवतु-वायुको नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्मï है, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्मï कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें। ऋग्वेदका यही मन्त्र यजुर्वेद, अथर्ववेद एवं तैत्तिरीय उपनिषद्में भी जसका तस आया है। ब्रह्मï सम्पूर्णता है। आधुनिक ब्रह्मïाण्ड विज्ञानी भी ब्रह्मïमें उत्सुक हैं। भारतीय अनुभूतिका ब्रह्मï अंध आस्था नहीं है। वह अनुभूत है। प्रत्यक्ष है। कठोपनिषद्में कहते हैं, वायु ही सभी भुवनोंमें प्रवेश करता हुआ हरेक रूप रूपमें प्रतिरूप होता है- वायुर्थेको भुवनं प्रविष्टो रूपं-रूपं प्रतिरूपो वभूव:। सभी जीवोंमें प्राणकी सत्ता है, प्राण नहीं तो जीवन नहीं। प्राण वस्तुत: वायु है। मनुष्य पांच तत्वोंसे बनता है। मृत्युके समय सभी तत्व अपने-अपने मूलमें लौट जाते हैं। ऋग्वेदमें स्तुति है तेरी आंखे सूर्यमें मिल जायें और आत्मा वायुमें। यहां वायु आत्मा भी है। तैत्तिरीय उपनिषद्में कहा गया, अग्नि तत्व अग्निमें जाय और प्राण तत्व वायुमें- भुव इति वायौ।

वायु या मरूद्गण कोई भेद नहीं करते। उनकी कृपा एक समान है। वह धनी, दरिद्र सबको एक समान संरक्षण देते हैं। इन्हें अति प्राचीन भी बताया गया है, हे मरूतो आपने हमारे पूर्वजोंपर भी बड़ी कृपा थी। वशिष्ठकी ही तरह ऋग्वेदके एक और ऋषि अगस्त्य मैत्रवरूणि भी मरूद्गणोंके प्रति अतिरिक्त जिज्ञासु है। पूछतें हैं ‘मरूद्गण किस शुभ तत्वसे सिंचन करते हैं? कहांसे आते हैं? किस बुद्धिसे प्रेरित हैं? किसकी स्तुतियां स्वीकार करते हैं? फिर मरूतोंका स्वभाव बताते हैं, वे वर्षणशील मेघोंके भीतर गर्जनशील हैं। वह पर्वतोंको भी अपनी शब्द ध्वनिसे गुंजित करते हैं, राजभवन कांप जाते हैं और जब अंतरिक्षके पृष्ठ भागसे गुजरते हैं उस समय वृक्ष डर जाते हैं और वनस्पतियां औषधियां तेज रफ्तार रथपर बैठी महिलाओंकी तरह भयग्रस्त हो जाती है। तेज आंधी और पानीका ऐसा काव्य चित्रण अनूठा है। कहते हैं, वह गतिशील मरूद्गण भूमिपर दूर-दूरतक जल बरसाते हैं। वह सबके मित्र हैं। प्रकृति एक प्रीतिकर यज्ञ है। वायु प्राण हैं, अन्न भी प्राण हैं। अन्नका प्राण वर्षा है। वायुदेव/मरूतगण वर्षा लाते हैं। ऋग्वेदमें मरूतोंकी ढेर सारी स्तुतियां हैं। कहते हैं आपके आगमनपर हम हर्षित होते हैं, स्तुतियां करते हैं। लेकिन कभी-कभी वायु नहीं चलती, उमस हो जाती है। प्रार्थना है, हे मरूतो आप दूरस्थ क्षेत्रोंमें न रूकें, द्युलोक अंतरिक्ष लोकसे यहां आयें। ऋषि कहते हैं, रसा, अनितमा कुभा सिंध आदि नदियां वायु वेगको न रोकें। वह नदीके साथ पर्वतोंसे भी यही अपेक्षा करते हैं। ऋषियोंका भावबोध गहरा है। वायु जगत्का स्पंदन है। ऋषियोंकी दृष्टिमें वह देवता हैं। वैदिक पूर्वज मनुष्यके लिए उपयोगी और प्रकृतिमें दिव्य वस्तु या विचारको देवता कहते थे। वायु उपयोगी हैं। जीवनके संचालक हैं। इसीलिए वायुका प्रदूषण नहीं करना चाहिए। वह जीवन हैं, जीवनदाता भी हैं। वायुसे वर्षा है, वायुसे वाणी है। कण्ठ और तालुमें वायु संचारकी विशेष आवृत्ति ही मन्त्र है। गीत-संगीतके प्रवाहका माध्यम वायु हैं। गंध-सुगंध और मानुष गंधके संचरणका उपकरण भी वायु देव हैं। संप्रति महामारीमें वायुके महत्वपूर्ण घटक आक्सीजनकी कमी अनुभव की जा रही है। प्रधान मंत्री इसकी व्यवस्था और आपूर्तिके लिए युद्धरत हैं।