सम्पादकीय

स्वास्थ्य सेवाओंकी सेवा सुनिश्चित हो


डा. वरिंदर भाटिया

एक कड़वे सत्यके रूपमें कोरोनाके इलाजसे लड़ते देशका वीभत्स मंजर हमारे समक्ष है। एक कहानी थी जिसमें दरवाजेपर लगा पर्दा बहुत खूबसूरत होता है और घरके अंदरका पूरा माहौल बहुत अधिक बदसूरत। कोरोनाकी वजहसे हमारी स्वास्थ्य प्रणालीपर यह पर्दा उठ गया है और भेद भी खुल गया है। पेशेवर प्रबंधनकी कमीसे जूझती स्वास्थ्य सुविधाओंकी जमीनी हकीकतका सबसे नाखुशगवार चेहरा जो हमारे सिस्टममें मौजूद है, वह सबको दिखने लगा है। अनेक समाचारोंके अनुसार देशमें काफी लोग ऑक्सीजनकी कमीसे दो-चार हो रहे हैं। वेंटिलेटरोंकी कमी है। बिस्तरोंकी कमी है। डाक्टरोंकी कमी है। दवाइयोंकी भी कमी है। अनेक जगह गैर-मानवीय माहौलने समाजके साथ यही सबसे खराब काम किया है। पूंजीवादके बढ़ते प्रभावसे सबको लगने लगा है कि पैसा सबसे बड़ा है और इनसानी जिन्दगी इससे छोटी चीज है। हकीकत केवल यह है कि पैसा विनिमयका एक तरहका साधन है, जिसके जरिये लेन-देन होता है। आज हमारे अस्पताल, आक्सीजन प्लांट, दवा कम्पनी, सब निजी हैं तो उनका डिजाइन ही इस तरह है कि औसत मांगके लिए मैनपावर, स्टॉक, इंफ्रा रखनेसे अधिक लाभ मिलेगा, अधिक  डिमांड के लिए रखनेसे उनकी नजरमें वेस्टेज ज्यादा होगी। आज निजी स्वास्थ्य ढांचा डिजाइण्ड ही ऐसे है कि वह औसत लोडपर दक्ष दिखेगा, ओवरलोड होते ही गिर जायगा।

यही इस समय हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संघटनके मुताबिक हर दस हजारकी आबादीपर तकरीबन ४४ स्वास्थ्य कर्मी (डॉक्टर, नर्स और सब मिलाकर) होने चाहिए। लेकिन भारतमें यह आंकड़ा महज २३ स्वास्थ्य कर्मी (डाक्टर, नर्स, केयरटेकर फिजीशियन सब मिलाकर) के आसपास पहुंचता है। भारतके तकरीबन १४ राज्योंमें हर दस हजारकी आबादीमें २३ से भी कम स्वास्थ्यकर्मी हैं। दस हजारकी आबादीपर हॉस्पिटलमें केवल तकरीबन आठ बिस्तर हैं। भारतकी ६८ फीसदी आबादी अपनी जरूरतके हिसाबसे दवाइयां नहीं खरीद पाती है। स्वास्थ्यपर होनेवाले कुल खर्चेको यदि हर आदमीपर बांट दिया जाय तो उनकी जेबसे तकरीबन ६० फीसदी हिस्सा खर्च होता है। आर्थिक असमानतासे भरे भारतीय समाजमें इन आंकड़ोंका मतलब यह है कि कई लोग बीमारीका खर्चा या तो उठा नहीं पाते होंगे या यदि उठाते भी होंगे तो मरनेके कगारपर पहुंच जाते हैं। यह भारतमें स्वास्थ्य सुविधाओंकी बदहालीकी तस्वीर है। इसी तरहके तमाम आंकड़े दिये जा सकते हैं जो भारतकी स्वास्थ्य संरचनाकी बदहालीको दिखाते हैं।

कई विद्यार्थी डाक्टर नहीं बनना चाहते क्योंकि फीस बहुत अधिक है। लोग दवाई नहीं खरीद पाते क्योंकि दवाई बहुत महंगी है। इलाजको नहीं जाते हैं क्योंकि इलाज बहुत महंगा है। गांवोंमें ऐसे कई बच्चे हैं जिनकी आंखकी रोशनी कमजोर हो चुकी है। शरीर बचपनसे ही कई तरहकी परेशानियां ढो रहा है। यह बात परिवारमें सबको पता है, लेकिन न इलाज होता है, न दवा मिलती है। वजह यह कि कीमत बहुत अधिक है। जबकि देशभरमें स्वास्थ्य सुविधाओंकी घनघोर कमी है, इसलिए सरकारी अस्पताल, सरकारी डाक्टर, सरकारी इलाजकी बहुत जरूरत है। यह केवल चिंतन और मॉडल बदलनेकी बात है। सबसे जरूरी बात यह कि भारतकी जनसंख्या तकरीबन १३५ करोड़ है। इसमेंसे तकरीबन एक करोड़ ६० लाख लोग कोरोनाकी वजहसे संक्रमित हैं। भारतकी आबादीमें महज तकरीबन एक फीसदी हिस्सा। लेकिन इसके सामने ही भारतका पूरा हेल्थकेयर सिस्टम टूट गया है। भारत विकासशील और विकसित हो रही दुनियाके बीच फंस रहा है। कोरोना इन बीमारियोंका बेताज बादशाह बन गया है। आज देशके सकल घरेलू उत्पादका मात्र दो फीसदीके आसपास ही चिकित्सा सेवामें खर्च किया जाता है।

इसे बढ़ानेकी काफी जरूरत है। तभी आबादीके अनुपातमें डाक्टर, अस्पताल एवं अन्य सुविधाओंका विस्तार हो सकेगा। हमें यह भी सुनिश्चित करनेकी आवश्यकता है कि निजी चिकित्सा उद्योग सिर्फ चुनिंदा शहरोंतक सीमित न रहे, बल्कि यह अपनी सुविधाओंका विस्तार छोटे एवं पिछड़े शहरोंमें भी करे तथा प्रशासनको यह भी देखना चाहिए कि वह मरीजोंसे मनमानी रकम न वसूल सकें। इसके लिए भी समुचित तंत्रकी व्यवस्था की जानी चाहिए। वर्तमान समयमें देशको एक ऐसी स्वास्थ्य नीतिकी अति शीघ्र आवश्यकता है जो मौजूदा समयकी चुनौतियोंसे निबटनेमें सक्षम हो तथा लगातार परिवर्तित हो रहे परिवेशमें उत्पन्न होनेवाली संक्रामक बीमारियोंसे रक्षा कर सके। भारतमें स्वास्थ्यके क्षेत्रमें थोड़ी बहुत प्रगति हुई है, परंतु अब भी इस क्षेत्रमें काफी काम बाकी है। देशमें स्वास्थ्य संरचना, उपचार परीक्षण एवं शोधपर निरंतर कार्य करनेकी आवश्यकता है ताकि सबके स्वास्थ्यका सपना साकार हो सके। इलाजको तलाशते देशमें सबसे जरूरी बिंदु तो यह है कि फ्री कारगर और सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं सरकारी स्तरपर सबके लिए उपलब्ध हों। यह तभी हो पायगा जब सरकार खुद उम्दा स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करायगी, न कि शोषणकी सोच पाले कुछ निजी स्वास्थ्य इदारोंके समंदरमें असहाय जनताको फेंक देगी। भारतका मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत कमजोर है। कोरोना कालमें स्वास्थ्य सेवाओंकी जो पोल खुली है, उससे यह जाहिर होता है। अत: मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चरको मजबूत बनानेकी जरूरत है। इस क्षेत्रमें व्यापक निवेश होना चाहिए। यह भी ध्यान रखना होगा कि इस क्षेत्रमें यदि निजी निवेश होता है तो उस स्थितिमें लक्ष्य केवल पैसा कमाना हो जाता है। जबतक हम स्वास्थ्य सेवाओंको सेवाकी दृष्टिसे नहीं देखेंगे, तबतक सभीको सस्ता इलाज उपलब्ध करवाना मुश्किल होगा।