सम्पादकीय

सत्यकी वास्तविकता 


वी.के. जायसवाल

सत्यकी पहुंचका क्षेत्र व्यक्ति द्वारा केवल सत्य वचन बोले जाने या दैनिक जीवनमें लोगोंके विभिन्न प्रश्नोंके पूर्ण सत्यताके साथ उत्तर देनेतक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसकी पहुंच मनके भीतरकी गहराइयोंंतक होनी चाहिए जिससे स्वयंकी सत्यताकी शक्तिसे मनके भीतरके द्वार खुल जायं। इन द्वारोंके अन्दर जब सत्यकी शक्तिकी तेजस्वी किरणें पहुंचती है तब यह भीतरकी दुनियाको प्रकाशसे जगमगा कर सत्यकी पूर्णताका अहसास करा देती हैं। सत्य वास्तवमें ईश्वरके सत्य होनेका जीता-जागता प्रमाण है जो मानव मनके भीतरके द्वारोंकी वह पवित्र जगह होती है जहां पहुंचकर मस्तिष्कमें उभर चुके तमाम प्रश्न अपने आप ही विसर्जित हो जाते हैं। मस्तिष्कमें आनेवाले तरह-तरहके विचारों रूपी अनसुलझे प्रश्नोंका विसर्जन ही हमें अद्भुत शांतिकी ओर ले जाता है। यह अद्भुत शांति सत्यकी वास्तविक शक्तिसे हमें परिचित कराती है। वास्तवमें मस्तिष्कमें उभरते हुए तमाम प्रश्न और कुछ नहीं हैं, बल्कि यह सभी अशांत चित्तकी स्वाभाविक उपज हैं। हमारा चित्त जैसे-जैसे शांत होता जाता है वैसे-वैसे विभिन्न तरहके अनसुलझे प्रश्नोंका उभरना बंद हो जाता है। मस्तिष्कमें आनेवाले तमाम गूढ़ प्रकृतिके प्रश्न चाहे ईश्वरके अस्तित्वसे संबंधित हों या किसी जीवात्माके जन्म या मृत्युसे संबंधित हो, यह तबतक आते रहते हैं जबतक हमारा चित्त अस्वाभाविक रूपसे उद्विग्न रहता है किन्तु इसके शांत होते ही सारे प्रश्न विसर्जित हो जाते हैं। मस्तिष्कमें इस प्रकारसे आनेवाले प्रश्नोंका आना यदि एकदम बंद हो जाता है तो उस स्थितिमें व्यक्तिका मस्तिष्क एकदम नि:प्रश्न हो जाता है यही व्यक्तिकी आत्मिक अवस्था होती है। ध्यानकी अवस्था भी एक ऐसी ही अवस्था होती है जिसमें प्रश्नोंके उत्तर कदापि नहीं प्राप्त होते हैं, बल्कि अनसुलझे प्रश्नोंका विसर्जन अवश्य हो जाता है इसे ही समाधान कहा जा सकता है। समाधिके समान समाधान एक ऐसी अनमोल वस्तु है जो कोई दूसरा नहीं दे सकता है इसे स्वयंकी ही शक्ति द्वारा प्राप्त करनेका प्रयास किया जाता है। योगाभ्यास वास्तवमें वैदिक कालसे अंतरचक्षुओंको खोलनेका चमत्कारी ढंग रहा है जिससे हम यह जान सकनेमें समर्थ हो सकते हैं कि जिस भी सत्ताके अधीन हम लोग जीवनयापन कर रहे हैं उसे किस प्रकारसे अनुभव कर सकें या ईश्वरी सत्ताका किस प्रकारसे साक्षात्कार कर सकें। इस प्रकारसे उपजे प्रश्नोंपर अनावश्यक रूपसे विचार करने और उनके उत्तर जाननेकी कोई आवश्यकता शेष ही नहीं रह जायगी। इसलिए आवश्यकता इस बातकी है कि हम मस्तिष्कमें उभरनेवाले विचारोंका विसर्जन यथाशीघ्र करनेका प्रयास करते रहे और हृदय शांत रहेगा। मस्तिष्कके मूल स्वभावके अनुसार विचार आते ही रहेंगे किन्तु यदि इस प्रकारसे आ रहे विचारोंका त्वरित ढंगसे विसर्जन करना हम सीख लेते हैं तो ऐसी स्थितिमें हृदयके शांत रहनेके कारण यही शांति हमें ज्ञान प्राप्त करनेकी दिशाका बोध कराती रहेगी।