सम्पादकीय

महंगीसे त्रस्त आमजनता


रविशंकर

कोरोना महामारीसे दो-चार होते हुए देशकी जनताको इस वक्त महंगीकी दोहरी मार भी झेलनी पड़ रही है। एक तरफ जहां पेट्रोल और डीजलके दामोंमें लगातार होती वृद्धिने जनताका बुरा हाल कर दिया है तो वहीं अब रसोईगैसके दामोंमें हुए इजाफेने भी लोगोंकी परेशानीको बढ़ा गिया है। दो महीनोंमें पेट्रोल-डीजलके दामोंमें करीब आठ रुपये बढ़े हैं तो एलपीजी गैस भी १२५ रुपये महंगा हो गया है। घरेलू गैसकी कीमत भी लगभग ८०० रुपयेके पार पहुंच चुकी है। पेट्रोल और डीजलके दाम जिस तरहसे बढ़ रहे हैं, उसका असर किसानोंपर भी पडऩे लगा है, क्योंकि अभी रबी सीजनकी खेती चल रही है। इस दौरान पेट्रोल और डीजलकी जरूरत होती है। विपक्षी पार्टियां महंगीको लेकर प्रदर्शन कर रही हैं तो आम जनता इस महंगीको लेकर त्रस्त है। पेट्रोल और डीजलकी कीमतोंमें वृद्धिसे साफ लग रहा है कि सरकारके पास डीजलकी कीमतें कम करनेकी गुंजाइश कम है। ऐसेमें सभी सेक्टरोंमें मालभाड़ा बढ़ा तो इसका सीधा असर रोजमर्राके जरूरी सामानके साथ खाद्य उत्पादोंपर भी पड़ेगा। इससे दोहरी मार पड़ेगी। एक तो खाद्य वस्तुएं महंगी होंगी, दूसरे खरीदारी कम होनेसे जीडीपी ग्रोथपर इसका सीधा असर होगा।

समाजका हर वर्ग आज मूल्य वृद्धि या मंहगीकी समस्यासे त्रस्त है। लेकिन निम्न और मध्यम वर्गके लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। महंगी बढऩेसे लोग अपनी आवश्यकतामें कटौती करने लगते हैं। यह ठीक है कि गरीबी रेखावाले लोगोंके लिए राज्य और केंद्र सरकारें भी मुफ्त सुविधाएं दे रही हैं लेकिन इसके बावजूद भी उनको जीवन निर्वाह करना कठिन हो जाता है। वही मध्यम वर्गको सरकारें कोई सुविधा देनेकी बजाय बिजली, पानी, सीवरेज, रसोई गैसके अलावा हर सामानके रेटोंमें लगातार विस्तार और नये-नये टैक्स लगाकर महंगीको ओर प्रोत्साहन दे रही हैं महंगी आज इतनी अधिक हो चुकी है कि जितनी प्रतिव्यक्ति आय नहीं है उससे ज्यादा खर्च हैं। मेहनत मजदूरीकी कमाईके साथ परिवारके वाजिब खर्च भी पूरे नहीं हो पाते। चुनिंदा वस्तुओं और सेवाओंकी कीमतोंमें कमी या वृद्धिसे महंगी दर तय होती है। रिटेल इन्फ्लेशन यानी खुदरा महंगी दर वह दर है जो जनताको सीधे तौरपर प्रभावित करती है। आम आदमीको महंगीके दंशसे फिलहाल कोई राहत दिखाई नहीं पड़ रहा।

बीते करीब छह सालसे सरकार दावा रही है कि मूल्यवृद्धिपर काबू पा लिया जायगा किंतु नतीजा एकदम शून्य रहा। अधिक मांगका दबाव न होने एवं फसलोंके भरपूर होनेके बावजूद कीमतोंकी उड़ान क्यों जारी रही है। बढ़ती महंगीकी मारसे लाचार आम लोगोंको राहत कब मिलेगी फिलहाल इस सवालका जवाब सरकार भी नहीं दे पा रही है। महंगीकी इस मारसे ग्राहक और दुकानदार दोनों परेशान हैं। साफ है कि महंगी रोकनेके मोर्चेपर सरकारकी कोशिशें लगातार नाकाम हो रही है। आखिर इसकी वजह क्या है। क्यों सरकार रिटेल कारोबारियोंके खिलाफ कुछ भी करनेमें असमर्थ नजर आ रही है। वैसे भी भारतकी अर्थव्यवस्था अब सटोरियों और बिचौलियोंके हाथोंमें ही खेल रही है। पिछले कुछ सालोंसे मंडियोंमें किसानोंसे अधिक बिचौलियों नजर आ रहे है। इसीलिए जमाखोरी बढ़ रही है। हालांकि यह किसान बाजारके बुनियादी उसूलोंके खिलाफ है। अपना खून-पसीना एक करके उत्पादन करनेवाले किसानोंकी कमर कर्जसे झुक चुकी है। रिटेल बाजारमें खाद्य पदार्थोंके दाम चाहे कुछ भी क्यों न बढ़ जायं, किसान वर्गको इसका फायदा कदाचित नहीं पहुंचता। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे उनके हाथसे उनकी जमीन भी छिनती जा रही है। सबसे अहम बात यह है आम चुनावोंके वक्त प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीने मंहगी कम करनेका वादा आम लोगोंसे किया था लेकिन अब ऐसा लगता है कि सरकार अपना वादा भूल गयी है। पुरानी सरकारकी तरह एनडीए सरकारको भी आम जनताके मुद्दोंसे कोई वास्ता नहीं है। खाद्य सामग्रियोंके बढतें दामोंपर सरकारकी ओरसे कोई खास टिप्पणी भी नहीं आ रही। सरकार इन चीजोंको काफी हल्केमें ले रही है। इस प्रकारका रवैया सरकारके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है।

सरकार यदि चाहे तो वह इस समय बढ़ते दामोंपर काबू पानेके लिए दो तरहसे हस्तक्षेप कर सकती है। पहला तो यह कि यदि बाजारसे छेड़छाड़ नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेहूं, चावल, दलहन, चीनी आदि वस्तुएं बाजारमें भारी मात्रामें उतारकर कीमतोंको नीचे लाये। ऐसा करनेसे उसे कोई नहीं रोक सकता, बशर्ते उसमें ऐसा करनेकी मजबूत इच्छाशक्ति हो। हस्तक्षेपका दूसरा तरीका यह है कि बाजारपर योजनाबद्ध तरीकेसे अंकुश लगाया जाय। इसके लिए उत्पादन लागतके आधारपर चीजोंके दाम तय कर ऐसी सख्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाय कि चीजें उन्हीं दामोंपर बिके, जो सरकारने तय किये हैं। जब सरकार कृषि उपजके समर्थन मूल्य तय कर सकती है तो वह बाजारमें बिकनेवाली चीजोंकी अधिकतम कीमतें क्यों नहीं तय कर सकती। इस समय महंगीकी मार झेल रही जनता सरकारकी गलत नीतियोंको कोस रही है। हालांकि इसका मुख्य कारण विनिर्मित वस्तुओंके दाममें तेजी आना है। कोरोना कालके बाद न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनियाके कई देश घोर महंगीकी समस्याका सामना कर रहे है, विश्व शक्ति अमेरिका हो या देश ब्रिटेन, जापान हो या फ्रांस, सभी देश महामारीके बादसे ही गिरती अर्थव्यवस्था और बढ़ती महंगीकी मारसे जूझ रहें है। कोरोनाके शुरुआती कालमें एशियाई विकास बैंकने पहले ही अनुमान लगाया था कि कोरोना संकटके कारण देशमें महंगीका स्तर बढ़ेगा। साथ ही २०२१ के अंततक ऐसी ही समस्या बरकरार रखनेकी चेतावनी भी दी थी। बैंककी रिपोर्टके मुताबिक २०२२ के पहले छमाहीमें हालातोंके कुछ सुधरनेके आसार भी बताये गये थे, अब कोरोना काल और लगे लॉकडाउनके बाद भारतकी अर्थव्यवस्थाको पटरीपर लानेके लिए महंगीका बढऩा तो लाजमी था।

महंगीपर नियंत्रण पाना सरकारके लिए एक चुनौती है। सरकारको कुछ न कुछ ऐसा करना होगा जिससे महंगी नियंत्रित हो सके। क्योंकि जनताके सामने आज सबसे बड़ी समस्या महंगी है, जिससे जनता व्याकुल हो उठी। महंगीकी मार ऐसी कि गरीब तो गरीब, मध्यम वर्गके लोगोंको भी चुभने लगी। कुल मिलाकर इस बढ़ती महंगीने आम आदमीको उसके सोचमें बदलाव लानेपर मजबूर कर दिया है। छोटी-मोटी नौकरियां कर रहे लोगोंके कई शौक तो अब महज सपने रह गये हैं। हर कदमपर लोगोंको हालातसे समझौता करना पड़ता है। दूसरी सचाई यह है कि पिछले दो दशकोंमें ऊंची वृद्धि दरके साथ ऊंची महंगी दरने लोगोंके मुंहसे निवाला छीन लिया है। ऐसे में क्या सरकारका यह दावा नहीं बनता कि वह देशकी बहुसंख्यक जनताको मंहगीसे राहत दिलानेकी संजीदा कोशिश करे। इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमीके लिए मंहगी आज सचमुच एक बड़ा मुद्दा है।