सम्पादकीय

बैंकोंका निजीकरण आवश्यक


डा.जयंतीलाल भंडारी  

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमणने एक फरवरीको केंद्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए कुछ सरकारी बैंकोंके निजीकरण करनेकी घोषणा की थी। उनके मुताबिक अब सार्वजनिक क्षेत्रके बैंक भारतीय बैंकिंग प्रणालीके लिए पहलेकी तरह अहम नहीं रह गये हैं। अब कुछ सरकारी बैंकोंका निजीकरण अपरिहार्य है क्योंकि सरकारके पास पुनर्पूंजीकरणकी राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। ज्ञातव्य है कि पीजे नायककी अध्यक्षतावाली भारतीय रिजर्व बैंककी समितिने सार्वजनिक क्षेत्रके बैंकोंको सरकारके नियंत्रणसे बाहर निकालनेके लिए सिफारिश प्रस्तुत की थी। इसी तारतम्यमें हालमें सरकारने छोटे एवं मझोले आकारके चार सरकारी बैंकोंको निजीकरणके लिए चिह्निïत किया है। ये बैंक हैं, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक आफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक आफ  इंडिया। इनमेंसे दो बैंकोंका निजीकरण एक अप्रैलसे शुरू हो रहे वित्त वर्ष २०२१-२२ में किया जायगा। कहा गया है कि जिन बैंकोंका निजीकरण होने जा रहा है, उनके खाताधारकोंको कोई नुकसान नहीं होगा। निजीकरणके बाद भी उन्हें सभी बैंकिंग सेवाएं पहलेकी तरह मिलती रहेंगी। वस्तुत: सार्वजनिक क्षेत्रके दो बैंकोंका निजीकरण महज एक शुरुआत है। यदि इन चार छोटे-मझोले बैंकोंके निजीकरणमें सरकारको सफलता मिल जाती है तो आगामी वर्षोंमें कुछ अन्य बैंकोंको निजी हाथोंमें सौंपनेकी प्रक्रिया शुरू की जा सकती है।

यह भी उल्लेखनीय है कि जहां एक ओर सरकार बैंकोंके निजीकरणकी ओर आगे बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर सरकार देशमें चार बड़े मजबूत सरकारी बैंकोंको आकार देनेकी रणनीतिपर भी आगे बढ़ रही है। उल्लेखनीय है कि वर्ष १९९१ में बैंकिंग सुधारोंपर एमएल नरसिम्हनकी अध्यक्षतामें समितिका गठन हुआ था। इस समितिने देशमें बड़े और मजबूत बैंकोंकी सिफारिश की थी। इस समितिने यह भी कहा था कि देशमें तीन-चार अंतरराष्ट्रीय स्तरके बड़े बैंक होने चाहिए। इस समितिकी रिपोर्टके परिप्रेक्ष्यमें छोटे बैंकोंको बड़े बैंकमें मिलानेका फार्मूला केंद्र सरकार पहले भी अपना चुकी है। इस समय देशमें सार्वजनिक क्षेत्रके बैंकोंकी संख्या कम होकर १२ रह गयी है। यह माना जा रहा है कि भारतमें बैंकोंकी जन-हितैषी योजनाओंके संचालन संबंधी भूमिकाके कारण सरकारी बैंकोंकी मजबूतीके अधिक प्रयास जरूरी हैं। चूंकि सरकारकी जनहितकी योजनाएं सरकारी बैंकोंपर आधारित हैं, ऐसेमें मजबूत सरकारी बैंकोंकी जरूरत स्पष्ट दिखाई दे रही है। देशभरमें चल रही विभिन्न कल्याणकारी स्कीमोंके लिए धनकी व्यवस्था करने और उन्हें बांटनेकी जिम्मेदारी सरकारी बैंकोंको सौंप दी गयी है। सरकारी बैंकोंके द्वारा एक ओर मुद्रा लोन, एजुकेशन लोन और किसान क्रेडिट कार्डके जरिये बड़े पैमानेपर कर्ज बांटा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर बैंकरोंको लगातार पुराने लोनकी रिकवरी भी करनी पड़ रही है। यह कोई छोटी बात नहीं है कि जनवरी २०२१ तक जनधन योजनाके तहत सरकारी बैंकोंमें ४१.७५ करोड़ खाते खोले जा चुके हैं।

इन बैंक खातोंमें जमा राशि एक लाख करोड़ रुपयेके आंकड़ेको पार कर गयी है। कोविड-१९ की चुनौतियोंके बीच आत्मनिर्भर भारत अभियानके तहत किसान एवं गरीब परिवारोंको जो प्रत्यक्ष राहत मिली है, वह जनधन खातोंमें देखते ही देखते जमा हो जानेके कारण छोटे हितग्राही कोविड-१९ की आर्थिक चुनौतियोंसे राहत प्राप्त कर सके। ऐसेमें भारतकी नयी जनहितैषी बैंकिंग जिम्मेदारी भी छोटे-छोटे बैंकों या प्राइवेट सेक्टरके बैंकोंसे संभव नहीं है। अतएव ऐसी जिम्मेदारी मजबूत सरकारी बैंकके द्वारा ही निभायी जा सकती है। निश्चित रूपसे सरकारी बैंकोंके एकीकरणसे बड़े और मजबूत बैंक बनाया जाना एक अच्छी रणनीतिका भाग है। यह कदम उद्योग-कारोबार, अर्थव्यवस्था और आम आदमी, सभीके परिप्रेक्ष्यमें लाभप्रद होगा। इसमें बैंकोंकी बैलेंसशीट सुधरेगी, बैंकोंकी परिचालन लागत घटेगी। पूंजी उपलब्धतासे बैंक ग्राहकोंको सस्ती दरोंपर कर्ज मुहैया करा सकेंगे। मजबूत बैंकोंसे धोखाधड़ीके गंभीर मामलोंको रोका जा सकेगा, साथ ही फंसा कर्ज (एनपीए) भी घटेगा। बैंकोंके विलयके साथ ही बैंकोंके लिए नये परिचालन सुधार भी दिखाई देंगे। सरकारी बैंक मजबूत बनकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाका सामना करते हुए अर्थव्यवस्थाको गतिशील कर सकेंगे। सरकारी बैंकोंके विलयसे बैंकोंकी ग्राहक सेवा बेहतर होगी। बैंकोंमें नयी तकनीकी विशेषज्ञता आ सकेगी और बैंक कर्मियोंमें वेतन असमानता दूर होगी। चूंकि सरकारी बैंकोंके निजीकरणकी डगरपर सरकार पहली बार आगे बढ़ी है, अतएव सरकारके द्वारा बैंकोंके निजीकरणपर स्पष्ट खाका पेश करना होगा।

नि:संदेह अपेक्षाकृत छोटे एवं मध्यम बैंकोंके निजीकरणसे शुरुआत करके बैंकोंके निजीकरणके हालातका उपयुक्त जायजा लिया जा सकता है। यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि मजबूत सरकारी बैंकोंके गठनकी तुलनामें बैंकोंका निजीकरण अधिक कठिन काम है। सबसे पहले सरकारको रिजर्व बैंकके साथ विचार-मंथन करके यह निर्धारित करना होगा कि बैंकोंके निजीकरणके लिए किस तरहके संभावित खरीददार होंगे। रिजर्व बैंक ऑफ  इंडियाके कार्य समूहकी इस अनुशंसापर भी ध्यान दिया जाना होगा कि बड़े कारपोरेट और औद्योगिक घरानोंको भी खरीददार बननेकी इजाजत दी जा सकती है। नि:संदेह बैंकोंके निजीकरणके लिए सरकारको अगले वित्त वर्ष २०२१-२२ में शीघ्र शुरुआत करनी होगी क्योंकि पूरी प्रक्रियामें काफी समय लगेगा। इसके अलावा सरकारको परिचालनके कई मुद्दोंपर भी विचार-मंथन करना होगा। सरकारको तय करना होगा कि चयनित सरकारी बैंकमें सरकार अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचेगी या कुछ हिस्सेदारी अपने पास रखकर प्रबंधका कार्य खरीददार को सौंपेगी।

सरकारको कर्मचारियोंके मसलेसे निबटनेके लिए भी रणनीति बनाना होगी। चूंकि सरकारी बैंकोंमें बड़ी तादादमें कर्मचारी हैं, अतएव निजीकरणके बाद खरीददार कर्मचारियोंको किस तरह रोजगारमें बनाये रखेगा, इस विषयपर भी विस्तृत खाका तैयार करना होगा। साथ ही सरकारी बैंकोंके सफल निजीकरणके लिए सरकारके द्वारा परिचालनके मसलोंको भी प्रभावी ढंगसे निबटाना होगा। उम्मीद है कि देशके बैंकिंग सेक्टरमें एक ओर छोटे एवं मध्यम आकारके सरकारी बैंकोंका निजीकरण पुनर्पूंजीकरणकी राजकोषीय चुनौतियोंकी चिंताओंको कम करेगा, वहीं दूसरी ओर स्टेट बैंक सहित कुछ मजबूत सरकारी बैंक ग्रामीण इलाकों सहित विभिन्न सेक्टरोंमें सरल बैंकिंग सेवाओंके साथ सरकारकी जनकल्याणकारी योजनाओंके लिए और अधिक विश्वसनीय वाहक भी दिखाई देंगे।