सम्पादकीय

बैंकोंके निजीकरणकी सही पहल


डा. भरत झुनझुनवाला

आगामी वर्षके बजटमें वित्तमंत्रीने एक महत्वपूर्ण घोषणा यह की है कि दो सार्वजनिक बैंकोंका निजीकरण किया जायगा। अबतक सरकारकी नीति सरकारी कम्पनियोंके आंशिक शेयरोंको बेचनेकी रही है। इस प्रकारके विनिवेशसे कम्पनियोंपर नियन्त्रण एवं उनके प्रबंधनकी जिम्मेदारी सरकारी अधिकारियोंकी ही रहती है। इसके विपरीत निजीकरणमें सरकारी इकाईके कंट्रोलिंग शेयर किसी निजी खरीददारके पक्षमें बेच दिये जाते हैं, निजीकृत कम्पनीके प्रबंधनपर खरीददारका सम्पूर्ण अधिकार हो जाता है और उसमें सरकारी दखल समाप्त हो जाती है। यह कदम इसलिए महत्वपूर्ण है कि बीते दशकमें लगभग हर वर्ष सरकारको अपने बजटमें सरकारी बैंकोंको जिन्दा रखनेके लिए, उनके भ्रष्टाचार तथा अकुशलतासे जनित घाटेको छिपानेके लिए एवं उस घाटेकी भरपाई करनेके लिए, सरकारी बैंकोंकी पूंजीमें लगातार रकमका निवेश करना पड़ रहा है। इन बैंकोंका निजीकरण कर देनेसे सरकारको रकमका निवेश करनेके स्थानपर रकम प्राप्त होगी। जैसे गराजमें पड़ी पुरानी कारको गतिमान रखनेके लिए प्रति वर्ष उसमें रुपया लगाना पड़ता है, किन्तु यदि उसे बेच दिया जाय तो मालिकको रकम मिलती है।

सरकारके इस कदमकी पहली आलोचना यह की जा रही है कि अर्जित रकमका उपयोग सरकारके वर्तमान चालू खर्चोंको पोषित करनेके लिए किया जायगा। यह आलोचना केवल आंशिक रूपसे ही ठीक बैठती है। पिछले वर्ष सरकारने विनिवेशसे बीस हजार करोड़ रुपये अर्जित किये थे, जो कि इस वर्ष १७५ हजार करोड़ अर्जित करनेका लक्ष्य है। यानी इस मदपर १५५ हजार करोड़ अतिरिक्त रकम अर्जित करनेका उद्देश्य है। इसके सामने पिछले वर्ष सरकारने पूंजी खर्च ४३९ हजार करोड़ रुपये किये थे, जो कि आगामी वर्षमें ५५४ हजार करोड़ खर्च करनेका लक्ष्य है। यानी इस मदपर ११५ हजार करोड़ अतरिक्त रकम खर्च करनेका उद्देश्य है। अत: कहा जा सकता है कि निजीकरणसे अर्जित १५५ हजार करोड़की रकमका ११५ हजार करोड़का मुख्य हिस्सा सरकार द्वारा पूंजी खर्चोंमें ही निवेश किया जायगा। इनसे चालू खर्च कम ही पोषित किये जायेंगे। निशिचत रूपसे और अच्छा होता कि यदि पूंजी खर्चोंमें और अधिक वृद्धि की गयी होती। लेकिन जो किया गया है उसका सम्मान करना चाहिए।

निजीकरणकी दूसरी आलोचना यह कहकर की जा रही है कि सरकार कल्याणकारी राज्यके अपने दायित्वसे पीछे हट रही है। वर्ष १९७१ में जब निजी बैंकोंका राष्ट्रीकरण किया गया था उस समय विचार था कि निजी बैंकों द्वारा गांवों एवं पिछड़े इलाकोंमें सेवाएं अर्जित नहीं करायी जा रही हैं इसलिए इसका राष्ट्रीकरण करके पिछड़े क्षेत्रोंमें शाखाएं खोलनेके लिए कहा जाय। सरकारका यह उद्देश्य पूरा भी हुआ है। आज सरकारी बैंकों द्वारा दूर-दराजके इलाकोंमें सेवाएं उपलब्ध करायी जा रही हैं। लेकिन दूसरी समस्या उत्पन्न हो गयी है कि सरकारी बैंकोंमें व्याप्त अकुशलता एवं भ्रष्टाचारके कारण इन्हें लगातार घाटा हो रहा है। इन्हें जीवित रखनेके लिए सरकार द्वारा हर वर्ष इनमें पूंजी निवेश किया जा रहा है। इस पूंजी निवेशके लिए किसी न किसी रूपसे जनतापर ही टैक्स लगाकर रकम अर्जित की जा रही है। इसलिए राष्ट्रीय बैंकों द्वारा एक तरफ पिछले इलाकोंमें सेवाएं उपलब्ध करायी जा रही हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं पिछड़े इलाकोंसे टैक्स अधिक वसूलकर इन्हें जीवित रखा जा रहा है। मेरा मानना है कि कुल मिलाकर पिछड़े इलाकोंको इनसे कुछ लाभ हुआ हो तो भी अर्थव्यवस्थापर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अर्थव्यवस्थाके कमजोर पडऩेसे पिछले क्षेत्र भी कमजोर पड़े हैं। वास्तवमें पिछड़े इलाकोंको बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध करानेके लिए बैंकोंका राष्ट्रीकरण जरूरी था ही नहीं। रिजर्व बैंकके पास पर्याप्त अधिकार उपलब्ध हैं जिनका उपयोग करके निजी बैंकोंको आदेश दिया जा सकता है कि वे चिह्निïत विशेष क्षेत्रोंमें अपनी शाखाएं खोलें और सेवाएं उपलब्ध करायें। १९७१ में सरकारने गलती यह की थी कि रिजर्व बैंककी इस नाकामीको ठीक करनेके स्थानपर सरकारने बैंकोंका निजीकरण किया और उनकी नौकरशाही द्वारा देशको कमजोर करनेका एक नया रास्ता खोल दिया। बैंकोंको घटा हुआ और हम पिछड़ गये। हम कुंएसे निकलकर खाईंमें आ पड़े। वर्तमानमें जरूरत यह है कि सरकारी बैंकोंका निजीकरण करनेके साथ रिजर्व बैंक द्वारा सख्तीसे निजी बैंकोंको पिछड़े इलाकोंमें सेवाएं उपलब्ध करानेके आदेश दिये जायं। रिजर्व बैंककी एक नाकामीको छिपानेके लिए सरकारको दूसरे संकटमें नहीं पडऩा चाहिए।

तीसरी आलोचना यह की जा रही है कि निजी मालिकों द्वारा बैंकोंसे मुनाफाखोरी की जाती है और अपने ही विशेष चहेतोंको रकम उपलब्ध करायी जाती है। यह बात सही है। इसका भी सही उपाय यह है कि रिजर्व बैंक इनपर निगरानी रखे और जब इनपर संदेह हो कि यह इस प्रकारके दुराचारमें लिप्त हैं तब इनपर अनुशासनात्मक काररवाई की जाय। वास्तवमें सरकारी बैंकों द्वारा भी इसी प्रकारके गलत लोगोंको ऋण दिया जाता है। जैसे विजय माल्या आदिको सरकारी बैंकोंने ऋण देकर अपने उपर संकट लाया। लेकिन सरकारी बैंकों द्वारा जब इस प्रकारका दुराचार किया जाता है तो वह दिखता नहीं है जबकि निजी बैंकों द्वारा वही दुराचार करनेपर दिखने लगता है। सरकारी बैंक जब मल्लया या नीरव मोदीको ऋण देते हैं तो मल्लया और नीरव मोदीपर काररवाई की जाती है और जिन सरकारी अधिकारियोंने उन्हें गलत ऋण दिये थे और घूस ली थी वे मस्त रहते हैं। इसलिए इस समस्याका निजीकरणसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। सरकारी और निजी दोनों प्रकारके बैंकोंकी विशेष लोगोंको गलत ऋण देनेकी प्रवृत्ति होती है जिसपर अंकुश रिजर्व बैंकको लगाना चाहिए। इन परिस्थतियोंको देखते हुए वित्तमंत्रीको बधाई है कि उन्होंने दो सरकारी बैंकोंके निजीकरणका फैसला किया है। जानकार बताते हैं कि दो छोटे सरकारी बैंकोंको प्रारंभमें पंजीकृत किया जा सकता है। वास्तवमें वित्तमंत्रीको इस दिशामें और तेजी और सख्तीसे बढऩा चाहिए और बड़े बैंकोंका भी तत्काल निजीकरण करना चाहिए जिससे सरकारको रकम मिले, जिसका निवेश नये और उभरते क्षेत्रों जैसे-जेनेटिक्स, डाटा प्रोसेसिंग और अंतरिक्ष इत्यादिमें किया जा सके और हर वर्ष सरकारी बैंकोंके दुराचारको ढकनेके लिए उनमें निवेश करनेकी जरूरत न रहे।