News सम्पादकीय

भारतके लिए चुनौती बना चीन


चीन ईरानमें ४०० अरब डालरका निवेश करेगा और दोनोंके बीचके व्यापारको ६०० अरब डालर करनेका लक्ष्य रखा गया है। चीन ईरान समझौता अमेरिकाके लिए चुनौती है क्योंकि नाभिकीय समझौताको रद कर अमेरिकाके पूर्व ट्रम्प प्रशासनने उसको प्रतिबंधित किया हुआ है। प्रतिबंधोंके बीच कोई देश ईरानसे समझौता कर रहा है तो उसे मालूम है कि यह अमेरिकाको दी गयी चुनौती है। चीनने घोषणा भी कर दिया है कि वह ईरानके नाभिकीय समझौतेके बचावके लिए प्रयास करेगा। सामान्य भाषामें यह ईरानको दी गयी गारंटी है कि जब मैं साथ आ गया हूं तो चिंता मत करिये। प्रतिबंध हटानेके बावजूद अमेरिका ईरानके नाभिकीय कार्यक्रमोंको लेकर अपनी सोच बदल नहीं सकता। अमेरिकी प्रतिबंध ईरानके अलावा रूसपर है और चीन भी व्यापारके मामलोंमें उसके आंशिक प्रतिबंधोंका सामना कर रहा है। चीन और रूस दोनोंका कहना कि अमेरिका जितनी जल्दी हो सके ईरानपर लगाये गये प्रतिबंध बिना शर्त वापस ले। यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है चीन, रूस और ईरानके अलावा पूर्वकी तुर्की तथा पाकिस्तान एक साथ आ रहे हैं। प्रश्न है कि भारतके लिए ये चुनौतियां कितनी बड़ी हैं।
भारतके लिए चीन कितनी बड़ी चिंताका कारण है, पड़ोसमें वह क्या कर रहा है, धरती, समुद्र और आकाशके साथ सम्पूर्ण अंतरराष्ट्रीय पटलपर वह कैसी चुनौतियां पेश कर रहा है इसे बतानेकी आवश्यकता नहीं। ईरानके चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़नेवाली परिवहन व्यवस्थाके निर्माणमें भारत काफी पूंजी लगा चुका है। चीन, ईरान, भारत चाबहार समझौतेके पक्षमें कभी नहीं रहा। भारतके लिए यह केवल व्यापारिक और आर्थिक नहीं रणनीतिक रूपसे भी काफी महत्वपूर्ण है। यदि चीन अपनी घोषणाके अनुरूप अगले २५ वर्षोंतक ईरानके हर क्षेत्रमें भारी निवेश करेगा तो जाहिर है वह दूसरे देशोंको रणनीतिक रूपसे प्रभावी न होने देनेकी भी कोशिश करेगा। चीन अफगानिस्तानसे लेकर पश्चिम एशिया, मध्य एशिया सब जगह अपना पांव पसार रहा है और इससे भारतकी मुश्किलें बढ़ रही है। पश्चिम एशियामें चीन ईरान सामरिक साझेदारीकी प्रतिक्रिया देखनी होगी लेकिन भारतीय विदेश नीतिके लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो रही है।
अमेरिकासे गहरे होते रिश्तोंके कारण रूसने भी भारतको लेकर नकारात्मक टिप्पणियां हालके दिनोंमें की है। क्वाडकी बैठक हुई तो रूसी विदेशमंत्री सर्जेई लावरोवने बयान दिया कि पश्चिमी ताकतें चीनविरोधी खेलमें भारतको घसीट रही हैं। इसके साथ ही पश्चिमी देश भारतके साथ रूसके घनिष्ठ सहकार और विशेष संबंधोंपर भी बुरा असर डालनेकी हरकतें कर रहे हैं। सैनिक और तकनीकी सहयोगके लिए भारतपर अमेरिकाके भारी दबावका यही मकसद है। रूसकी यह टिप्पणी न तो सही थी और न उचित ही। ऐसा नहीं है कि इसके पूर्व भारतने कभी रूस या पूर्व सोवियत संघकी इच्छाओंके विपरीत बयान नहीं दिया। भारत सोवियत संघ मैत्रीके रहते हुए भी अफगानिस्तानमें सोवियतकी लाल सेनाकी काररवाईका भारतने समर्थन नहीं किया। भारत कुछ संकेत देनेके लिए ही सर्जेई लावरोवने भारतके साथ पाकिस्तानकी यात्रा की है। चीनका बयान ज्यादा आक्षेपकारी था। उसने यहांतक कहा था कि भारत ब्रिक्स और एससीओ यानी शंघाई सहयोग संघटनके लिए नकारात्मक साबित हो रहा है। उसने यह भी कहा कि हमने फरवरीमें कहा था कि भारतमें ब्रिक्स सम्मेलनके लिए हम समर्थन करते हैं ऐसा लगता है कि चीनकी सद्भावनाको समझनेमें भारत विफल रहा है। सच यह है कि भारत चीनके सामरिक ब्लैकमेलमें लगा है। इस तरहके बयानोंके मायने समझनेके लिए कूटनीतिकी गहरी जानकारीकी आवश्यकता नहीं।
चीनका स्पष्ट बयान हमारे लिए इस बातकी चेतावनी है कि वह भारतके विरुद्ध अपनी हरसंभव कोशिशें जारी रखेगा। इसमें भारतके विरुद्ध दुष्प्रचार भी शामिल है। ऐसा नहीं है कि अमेरिकाके साथ संबंधोंको बेहतर करने या क्वाडको महत्व देनेके पहले भारतने चीनकी प्रतिक्रियापर विचार नहीं किया होगा। चीन भारतके विरुद्ध रहा है और रहेगा इसे लेकर किसीको संदेह नहीं। रूसको समझना चाहिए कि प्रतिबंधों और अमेरिकाके घोर विरोधके बावजूद भारतने उससे एस-४०० रक्षा प्रणाली खरीदा है। अमेरिकाके रुखकी अनदेखी कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी रूसके राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिनके बुलावेपर बातचीतके लिए गये। वास्तवमें रूस द्वारा क्रीमियाके अपहरणके बावजूद भारतने उसके विरुद्ध प्रतिबंधोंका समर्थन नहीं किया। बावजूद उसे भारतपर संदेश है तो उसे दूर करना कठिन है। रूसने पिछले दिनों अफगानिस्तानको लेकर जो सम्मेलन बुलाया उसमें भारतको आमंत्रित नहीं किया गया। इसके विपरीत अमेरिकामें अफगानिस्तान शांतिकी वार्तामें भारतको निमंत्रित किया है। रूसको पता है कि भारत और अफगानिस्तानके बीच सहयोग चरमपर है। वहां भारतके लिए प्रतिकूल घटनाएं होंगी तो हमारे लिए उसका माकूल उत्तर देना आवश्यक हो जायगा। रूसकी नीति परस्पर संतुलित नहीं है। भारत सहित विश्व शांतिके समर्थक देशोंकी सोच है कि चीन किसी तरह दुनियामें ऐसी स्थितिमें न आये कि उसे लगे कि उसपर किसी तरहका नियंत्रण है ही नहीं। यह नीति भारतके साथ रूसके भी हितमें है। चीनसे लगनेवाले रूसके सीमावर्ती क्षेत्रोंमें हान चीनियोंकी आबादी जिस तेजीसे बढ़ी है और चीन वहां जिस तरह महत्वाकांक्षी योजनाओंको अंजाम दे रहा है उसके रूसको चिंतित होना चाहिए। इसकी सार्वजनिक रूपसे अनदेखी करते हुए भी यदि वह चीनके साथ मिलकर अमेरिका विरोधी गोलबंदी करना चाहता है तो यह उसे मुबारक हो। भारतके लिए इसे स्वीकार करना हर दृष्टिसे आत्मघाती होगा। ईरानसे प्रतिबंध हटे लेकिन उसकी नाभिकीय शस्त्र महत्वाकांक्षाओंपर भी विराम लगना चाहिए। चीनके सहयोगसे पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देश नाभिकीय शस्त्र संपन्न होकर दुनियाके लिए खतरा बने हुए हैं।
भारतके लिए पश्चिम एशियामें अपने हितोंकी रक्षाके साथ, प्रशांत क्षेत्रमें अपनी उपस्थिति और सक्रियता सशक्त करना, हिंद महासागरमें सामरिक स्थितिको सुदृढ़ बनाये रखना तथा दक्षिण एशियाके देशों विशेषकर श्रीलंका, मालदीव आदिके द्वीपीय इलाकोंमें सतर्क रहना अत्यावश्यक है। इन क्षेत्रोंमें यदि कोई चुनौती है तो चीन। चीन हर जगह ऐसी गतिविधियां कर रहा है जिससे केवल क्षेत्रीय ही नहीं विश्व शांतिको खतरा पैदा हो सकता है। हिंद महासागरका जिस सीमातक सैनिकीकरण हो चुका है उसमें भारतके पास उसकी प्रतिस्पर्धामें शामिल रहनेके अलावा कोई चारा नहीं है। इसमें अमेरिकाके दिएगोगार्सिया जैसे सैन्य अड्डेतक प्रवेश भारतकी जरूरत है और वहांतक पहुंच हो रही है। रूस या चीन कोई भी चुनौती उत्पन्न करें भारत इससे अलग नहीं हो सकता। जब भी कोई देश खुलकर बेहिचक सामरिक हितोंको साधता है विरोध और दबाव बढ़ता है। भारत तो विश्व शांति और राष्ट्रोंके सहअस्तित्वके लक्ष्यका ध्यान रखते हुए अपना विस्तार कर रहा है जबकि चीनके लिए इसके कोई मायने नहीं। ईरानके आगे भी चीन भारतके लिए समस्याएं पैदा करेगा, रूस भी संभव है कई मामलोंमें हमारे विरोधमें रहे, पाकिस्तान, तुर्की जैसे देश तो होंगे ही, कुछ और देश भी उनके साथ आ सकते हैं। निश्चित रूपसे भारतीय रणनीतिकार इसके लिए कमर कस रहे होंगे। जरूरी है कि राजनीतिक दल विदेशी मोर्चेपर एकजुट रहें।