सम्पादकीय

मानवके बदलते स्वरूपसे उपजी समस्या


हंसराज ठाकुर
ज हांसे मानवने अपनी विकास यात्रा शुरू की थी, तमाम बुलंदियां छू लेनेके बाद उसकी जीवन यात्रा वहींपर थमेगी। मत भूलो कि पृथ्वी गोल है। मानव जीवनका कोई भी पक्ष, वर्ग या क्षेत्र नहीं है जहां वह किसी न किसी रूपमें पशुओंकी सेवाओंसे सेवित न हो, उनके प्रदेयोंसे लाभान्वित एवं उनका उपभोक्ता न हो। समाजका हर वर्ग अनंतकालसे ही पशुओंके सहचर्यसे धन्य एवं कृतज्ञ है। समाजके विकासमें पशुओंका भी कम योगदान नहीं है। चाहे दूध देनेवाले पशु गाय-भैंस हों, बोझा उठानेवाले पशु ऊंट-घोड़ा, खच्चर, गधा, हाथी हों या ऊन देनेवाले भेड़-बकरी, याक या खरगोश हों, इन सबकी उपयोगिता किससे छिपी है। पशु सदैव मानव विकासमें उसके सहायक बने रहे और युद्धोंसे लेकर मानव आजीविका कमानेमें मानवके सारथी बने रहे। आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकीका युग है और आनेवाली नस्लें नहीं जान पायगी कि घोड़ा-गाड़ी या बैलगाड़ी क्या चीज होती है, क्योंकि आज वायुयान एवं बुलेट ट्रेनका युग आ गया है। आज जो नस्लें समाजका हिस्सा हैं, उनकी कई पीढिय़ां, पूर्वज भी इन पशुओंके ऋणी हैं। इन्हींके साथ वह अपना जीवनयापन कर पाये जो आज नयी पीढ़ी एक नये मुकामतक पहुंच पायी। खेतीबाड़ी, जिसे आजका कोई भी युवा या वयस्क करना भी पसंद नहीं करता, किसी समय बैलोंपर निर्भर हुआ करती थी। परन्तु आज कई तकनीकी यंत्र ट्रैक्टर या ट्रिलर आ चुके हैं।
कोई भी आजके युगमें बैल पालना पसंद नहीं करता, सिर्फ ग्रामीण परिवेशके कुछ किसानोंको छोड़कर। तकनीकका उपयोग करना कोई बुरी बात नहीं है। समयकी बचत होती है, परन्तु तकनीककी आड़में पशुओंको आवारा छोडऩा बिल्कुल अमानवीय कृत्य है। धीरे-धीरे हमारा समाज अपने आपको पशु जीवोंसे अलग करनेकी यात्रापर निकल रहा है। शायद वह भूल रहा है कि प्रकृतिने सभी जीवोंकी रचना एक सामाजिक-प्राकृतिक संतुलन बनाये रखनेके लिए की थी। मानव भी उसी प्रकृतिका हिस्सा है। हां, यह बात अलग है कि मानव बहुत स्वार्थी है और अन्य जीव समाजके प्रति कृतज्ञ। पुराने समयमें भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहता था। गोमूत्र की उपयोगिता उन्हें मालूम थी। स्नानए वस्त्र धोने एवं एंटिबायोटिकके रूपमें। आज मानव इसे खरीदकर इस्तेमाल कर रहा है। गोबरसे जैविक खाद एवं स्वस्थ फसलें उगायी जाती थीं। बेशक पैदावार कम होती थी, परन्तु आज पैदावार बढ़ानेकी होड़में जमीन जहर उगलने लगी है। नकदी फसलों एवं सब्जियोंके उत्पादनको बढ़ावा देनेकी चाहतमें खरपतवारों एवं कीटनाशकोंका अंधाधुंध प्रयोग सभी जीवोंके लिए घातक सिद्ध हो रहा है। गिद्ध जैसे जीव तो विलुप्त होनेकी कगारपर हैं। आजका सभ्य इनसान गोमाता एवं बैलोंको पालतूसे आवारा बनानेपर तुला है। घरोंमें पाले जानेवाले जीव अब जंगलोंमें छोड़े जा रहे हैं और जंगलोंमें रहनेवाले जीवोंको घरोंकी शान बनाया जा रहा है।
हर प्राणी विशिष्टकी अपनी भूमिका है। मानव जीवनमें पशुओंकी भागीदारीसे प्राप्त परिणामका सुखद फल है जिसके फलस्वरूप शिक्षाविदों, साहित्यकारोंने पशु आधारित शिक्षाप्रद कथाओं पंचतंत्र एवं हितोपदेशकी रचना की। भगवान विष्णुके मत्स्य एवं नरसिंह अवतार भी मानव जातिके कल्याणमें पशुओंके महत्वको दर्शाते हैं। आज भी भारत सरकारकी मुद्रा (सील) पर अश्व-वृषभके साथ तीन मुखवाला शेर अंकित है। आज भी जंगलके सारे पशु साथ विचरण करते हैं, चाहे एक-दूसरेके रक्षक या भक्षक हों। परन्तु मानव अब अपनेको प्रकृतिकी इन सब कृतियोंसे अलग रखना चाहता है। ज्यादा बुद्धिमान होनेका उसे फितूर भी हो सकता है या सभी जीवोंका मसीहा बन बैठा है कि जब चाहे उन्हें इस्तेमाल करे, जब मन चाहे उन्हें त्याग दे। कौन पूछता है या कोई क्या बिगाड़ लेगा। आज भी दीपावलीको गोधन पूजा होती है। नलवाड़ी मेले बैलोंके नामपर होते हैं, परन्तु पूजनके लिए बैल ढूंढ़कर लाने पड़ते हैं। कभी हमारे देशमें पशुओंको पशुधन कहा जाता था। जिसके पास जितना ज्यादा पशुधन होता था, वह उतना ही स्मृद्धशाली माना जाता था। पर्यावरण संरक्षणमें भी पशु अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं। गोबरसे घर लीपने एवं उपले जलानेसे रोग-कीटाणुओंका नाश होता है। खैर गोबर गैस प्लांट तो अब लोग भूल ही गये होंगे। मनोचिकित्सक जेम्स लिंच और एरन कैचरके अनुसार पालतू जीवोंके संसर्गमें रहनेवालोंको मानसिक तनाव और रक्तचापसे भी छुटकारा मिल सकता है।
इतना ही नहीं, दिलके दौरे पड़े हुए मरीजोंको जानवर पालनेसे चमत्कारी लाभ प्राप्त होता है। समय-समयपर सरकारें भी पशुओंको लेकर संरक्षण एवं संवर्धन प्रोजेक्ट लाती रहती हैं एवं अक्तूबरके प्रथम सप्ताहमें वन्य प्राणी संरक्षण सप्ताह भी मनाया जाता है। परन्तु सरकार आवारा पशुओंकी संख्यापर नियंत्रण नहीं कर पायी। यह बेजुबान आजकल सैंकड़ोंकी टोलियोंमें हर दो-चार किलोमीटरपर समूहोंके रूपमें दिखाई देते हैं और रातको किसानोंकी फसलोंपर एक साथ धावा बोलकर सुबह होते-होते पूरी फसल तबाह कर देते हैं। इसे कहते हैं कि करे कोई और भरे कोई। बमुश्किल खेतीसे परिवारका गुजर-बसर करनेवालोंकी दुनिया एक ही रातमें गमगीन हो जाती है एवं इन बेजुबानोंको छोडऩेवाले अपने आपको निर्दोष समझते रहते हैं। पशुओंको टैग लगानेकी योजना कहां है और अधूरी क्यों है और यह बिना टैगके पशु कहांसे आते हैं। सब सुधर सकता है, यदि चाहे तो। जिम्मेदारी प्रशासन एवं सरकार भी उठाये। जिनकी फसल उजड़ गयी, उनका क्या अन्यथा आनेवाले समयमें पालतू पशुओंके नामपर सिर्फ कुत्ते, बंदर एवं पिंजरेमें तोते ही रह जायंगे और बुद्धिजीवी मानव एक कदम आगे बढ़कर धीरे-धीरे अपने बुजुर्गोंको भी पशुओंकी तरह आवारा छोडऩेके नये कीर्तिमान स्थापित करेगा। सरकार और समाजके सहयोगसे आवारा पशुओंकी समस्याको सुलझाया जा सकता है।