सम्पादकीय

मुआवजेका सुप्रीम आदेश


डा. श्रीनाथ सहाय    

कोरोना महामारीका दंश झेल रहे लोगोंके लिए सुप्रीम कोर्टका ताजा आदेश राहतभरी खबर लाया है। सुप्रीम अदालतने केंद्र सरकारको पिछले दिनों आदेश दिया है कि वैश्विक महामारी कोरोनासे जिसकी मौत हुई है, उसके परिजनोंको मुआवजा दिया जाय। केंद्र सरकारने कहा कि सरकारी संसाधनोंकी एक सीमा होती है। केंद्रने यह भी कहा है कि यदि इस तरहसे मुआवजा दिया गया तो वर्ष २०२१-२२ के लिए राज्य आपदा राहत कोष (एसडीआरएफ) के लिए आवंटित राशि २२१८४ करोड़ रुपये इस मदमें ही खर्च हो जायंगे और इससे महामारीके खिलाफ लड़ाईमें उपयोग होनेवाली राशि प्रभावित होगी। चार लाख रुपयेकी अनुग्रह राशि राज्य सरकारोंकी वित्तीय सामथ्र्यसे परे है। पहलेसे ही राज्य सरकारों और केंद्र सरकारके वित्तपर भारी दबाव है। एक तरफ जहां करोनाकी वजहसे स्वास्थ्य व्यवस्थापर सरकारको बहुत पैसा खर्च करना पड़ रहा है, वहीं टैक्स वसूली भी बहुत कम हो गयी है। ऐसेमें केंद्र और राज्य सरकारोंकी आर्थिक स्थितिपर काफी दबाव पड़ा है। इसलिए सरकार करोना पीडि़त परिवारको चार लाख रुपया मुआवजे या आर्थिक मददके तौरपर नहीं दे सकती। इतना पैसा खर्च करनेसे कोरोनासे लडऩेमें सरकारकी कोशिशोंपर असर पड़ेगा। मुआवजा देनेसे फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा।

भारत सरकारने कोरोनाके प्रत्येक मृतकके परिजनोंको चार लाख रुपयेका मुआवजा देनेमें असमर्थता जतायी थी, लिहाजा सर्वोच्च अदालतने राष्टï्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के विवेकपर ही यह निर्णय छोड़ दिया है कि मुआवजा कितना होगा। अब सुप्रीम कोर्टके आदेशके बाद एनडीएमएको ही छह सप्ताहमें दिशा-निर्देश तय करने होंगे और राज्योंके साथ साझा करने होंगे। अब सरकारें यह रोना नहीं रो सकतीं कि मुआवजा देनेमें ही पूरा फंड समाप्त हो जायगा। यह दलील भी नहीं चलेगी कि फिर कोरोनासे लडऩे, स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य प्राकृतिक आपदाओंके लिए धनराशि खर्च करना मुश्किल हो जायगा। सरकारने आपदा प्रबंधनके तहत १२ आपदाओंको तय कर रखा है, जिनमें मुआवजा देनेकी व्यवस्था है। भूकम्प, बाढ़, चक्रवात आदि ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएं मानी गयी हैं। क्या कोरोना जैसी महामारी सामान्य आपदा है? फिलहाल सर्वोच्च अदालतके न्यायमूर्ति अशोक भूषण सेवानिवृत्त होनेसे पहले यह ऐतिहासिक और मानवीय फैसला दे गये हैं कि मुआवजा देनेके लिए फंडके कुतर्क नहीं दिये जा सकते। यह सरकारका प्राथमिक, बुनियादी और मौलिक दायित्व है कि आपदा-पीडि़तोंके कष्टï साझा किये जायं। उन्हें दोबारा उठने और खुदको संजोनेके लिए प्रोत्साहित किया जाय। आजीविकाके संसाधन मुहैया कराये जायं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिलहाल यह दायित्व निभानेमें प्राधिकरण (और केंद्र सरकार भी) नाकाम रहे हैं। कोरोना वायरसके कारण कुल दर्ज मौतें चार लाखके करीब हैं। यदि प्रत्येक मामलेमें चार लाख रुपयेका भी मुआवजा दिया जाता है, तो कुल राशि १६,००० करोड़ रुपये बनती है। जिस सरकारने बीते साल पेट्रोलियम पदार्थोंपर एक्साइज टैक्स लगाकर ही चार लाख करोड़ रुपये वसूले हैं। जीएसटीके जरिये एक लाख करोड़ रुपयेसे ज्यादा जुटाया गया है। इस देशका प्रत्येक नागरिक प्रभारों, अधिभारों, उपकर, वैट, शिक्षा टैक्स आदि कोई न कोई टैक्स जरूर अदा करता रहा है। आयकर और कॉरपोरेट टैक्स देनेवालोंकी जमात तो निश्चित है। करीब तीन ट्रिलियन डालरकी अर्थव्यवस्थावाले देशमें १६,००० करोड़ रुपयेका अनुग्रह क्या मायने रखता है? सरकारके पास देशके नागरिकोंका ही पैसा है। उस पूंजीपर पहला अधिकार पीडि़त नागरिकका है। वह सकल राशि किसी सरकारकी बपौती नहीं है। यदि आपदाओं और त्रासदीमें भी मुआवजा देकर सरकार अपने ही नागरिकोंको संबल नहीं देगी, तो अनाम, असमय और अप्राकृतिक मौतोंके सिलसिले सामने दिखाई देने लगेंगे। तब सरकारकी जवाबदेही क्या होगी? भारत सरकार और हम नागरिक भी खासकर अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप, जापान आदिसे तुलनाओंके आदी हैं। हालांकि यह सैद्धांतिक रूपसे गलत है। फिर भी कोरोना-कालकी तुलना करें तो अमेरिकाने अपने नागरिकोंमें २.२० लाख करोड़ रुपये मुफ्तमें ही बांट दिये। औसतन नागरिककी जेबमें ३००० डालर डाल दिये गये। बेशक उनकी नौकरी बरकरार थी या छूट गयी थी। सामाजिक सुरक्षाका उदाहरण यह होता है।

भारतमें कोई भी निश्चित सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा नहीं है। ऐसी सुरक्षाके नामपर कभी-कभार बीपीएल महिलाओंके खातोंमें पांच सौ रुपये डाल दिये जाते हैं या किसानोंको सालमें छह हजार रुपये दिये जाते हैं। हमारे देशमें कर्जदार नागरिकको और कर्ज लेनेकी योजनाएं पेश की जाती हैं, ताकि वह जिदगीभर सरकार और कर्जके बोझ तले दबा रहे। कारखानोंको लोनके लिए प्रेरित किया जाता है और बाजारमें धंधा गुल है। ऐसी तरलतासे कारोबारी क्या हासिल करेगा? देशमें अबतक कोरोनासे महामारीके कारण ३,८६,७१३ लोगोंकी मौत हो चुकी है। केंद्र सरकारने कहा कि सुप्रीम कोर्टने पहले ही स्पष्टï कर दिया है कि नीतिगत मामलोंको कार्यपालिकापर छोड़ देना चाहिए। ऐसेमें कोर्ट इस संबंधमें कोई फैसला नहीं सुना सकती है। कोरोना पीडि़तोंके लिए डेथ सर्टिफिकेटपर केंद्रने कहा कि कोरोनासे हुई मौतोंको मृत्यु प्रमाणपत्रोंमें कोरोना मौतोंके रूपमें प्रमाणित किया जायगा। आम उपभोक्ताके स्तरपर मांग नहीं है, क्योंकि उसकी जेब खाली है। देशकी मौजूदा हालत दुनियाभरके सामने है। मध्य श्रेणीवालोंको कोरोनाके थपेड़ोंने ‘गरीबÓ बना दिया। फिलहाल शीर्ष अदालतके आदेशके बावजूद मुआवजा आसानीसे मिल सकेगा, ऐसा नहीं होगा, क्योंकि नौकरशाहीकी पेंचीदगियां असंख्य हैं। मृतक प्रमाण-पत्रमें ‘कारणÓ के कॉलममें ‘कोरोनाÓ लिखा होगा, हमें यह भी सहज नहीं लगता। अंतत: सर्वोच्च अदालतको सख्त होकर बार-बार दखल देना होगा। कोरोना कालमें देशके आम नागरिकोंने जो कष्टï उठाये हैं वह किसीसे छिपे नहीं है। सरकारको कोई बीचका रास्ता निकालते हुए आम आदमीको राहत प्रदान करनी ही चाहिए। अब चूंकि सुप्रीम अदालतने सरकारको आदेश दिया है, ऐसेमें उम्मीद की जा सकती है कि आनेवाले दिनोंमें कोरोना पीडि़तोंके परिवारीजन मुआवजा पा सकेंगे। यदि ऐसा होता है तो यह घावोंपर मरहम लगानेका काम करेगा।