सम्पादकीय

लैंगिक भेदभावके पीछेका सच


आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

यह दारूण रूपसे दुखद है कि भारतका लैंगिक अनुपात बेहद लडख़ड़ा गया है और इसमें सुधारके कतई कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। पुरुषोंकी तुलनामें यहां महिलाओंकी आबादीमें भारी कमी दर्ज हुई है। फिलहाल दुनियामें पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें लिंगानुपात भारतके मुकाबले खराब है लेकिन इस स्थितिसे संतोष हासिल करना कतई उचित नहीं है। विशेषज्ञोंका मानना है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति अचानक नहीं पैदा हो गयी। यह गिरावट एक लम्बी प्रक्रिया दर्शाता है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थितिके लिए पुरुषप्रधान समाजके मूल्योंका बढ़ता वर्चस्व जिम्मेदार है। इन मूल्योंका वर्चस्व एक लम्बी प्रक्रियाका परिणाम है, क्योंकि ऐसा अल्प समयमें घटित नहीं हुआ। इस देशमें अन्य मुद्दोंकी तरह इस अतिशय महत्वपूर्ण मुद्देका भी लम्बा अतीत है, दीर्घकालिक इतिहास है। ऐसेमें कोई भी विवेकशील विचारक इस समस्याको एक अतिशय दीर्घकालिक समस्याके रूपमें ही रेखांकित करता है। वैसे इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि ऐसे लोगोंकी कमी है जो इस समस्याको आनन-फाननमें हल करनेका दावा कर इतराते हैं। लेकिन उनका इतराना एकदम बेमानी है, क्योंकि उनके इस तरहके तमाम दावोंके बावजूद यह समस्या समाधानसे दिन-प्रतिदिन दूर होती चली जा रही है। पाकिस्तानमें तो इससे भी बदतर स्थिति है। यह इस तथ्यसे स्पष्टï है कि वहां इस समस्याको उठानेवाले लगभग न के बराबर हैं।

भारतमें कमसे कम ऐसी स्थिति नहीं है। फिर भी इसे त्रासद ही कहा जायगा कि लिंगानुपातके लडख़ड़ानेसे अवगत होनेके बावजूद इस मुद्देपर व्यापक एवं गहन जन-जागरणके लिए अबतक कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जा सकता है जिसे राष्टï्रव्यापी कदम कहा जा सके। कुल मिलाकर लिंगानुपातके लडख़ड़ानेकी चेतना बुद्धिजीवियोंके एक सीमित तबकेतक ही सीमित रही है। ऐसे सामाजिक संकेत प्राप्त नहीं हो सके हैं जिनके आधारपर यह दावा किया जा सके कि इस मुद्देपर जन-जागरणके दायरेका विस्तार हुआ है। यह बहुप्रतीक्षित जन-जागरण अब भी एक सपना बना हुआ है और यह स्थिति कबतक बनी रहेगी, कोई भी नहीं कह सकता। ऐसेमें अनुमानोंका सिलसिला चल पड़ता है। इसी क्रममें एक अन्य तथ्य या तथ्याभास भी उभरकर सामने आया है और वह यह कि केवल पाकिस्तान ही नहीं, अफगानिस्तान भी इस दृष्टिïसे भारतसे पीछे है, क्योंकि उस देशमें भी महिलाओंकी आबादीके अलावा उनके प्राधिकारोंमें भी जबरदस्त गिरावट दर्ज हुई है। हकीकत जो भी हो, इन तीनों देशोंकी व्यवस्था दिनके प्रकाशकी तरह पुरुष प्रधान रही है। ऐसा अधिकारों और आबादी दोनों ही दृष्टिïयोंसे है। यह स्थिति कबतक बरकरार रहेगी, कोई भी ठीक-ठीक कह नहीं सकता। फिर भी इस स्थितिमें निकट भविष्यमें कोई परिवर्तन नहीं आनेवाला है।

दरअसल यह सारत: यथास्थितिवादवाली स्थिति है। यथास्थितिवाद व्यथास्थितिका ही एक रूप है। इसे व्यथास्थिति नहीं तो फिर और क्या कहा जायगा, जबकि लिंग-भेद इनसानियतपर हावी हो गयी है और मानवताके लिए जबरदस्त चुनौती बन गयी हैं। अब यह सवाल भी स्वाभाविक है कि जब लिंग भेदने विकृत रूप ले लिया हो तो कोई देश क्या करे। कुछ करनेके पहले ऐसे देशोंको सोचना पड़ेगा कि यह भेद आखिर किसके हितमें है और इसकी जड़ें समाजमें कहांतक गयी हैं। यह विशेष अध्ययनकी मांग करता है ताकि वस्तुस्थिति दिनके प्रकाशकी तरह अन्धेरेको चीरता हुआ अपना प्रमाद प्रदर्शित कर सके। जाहिर है कि जिन देशमें लिंग-भेद बड़े पैमानेपर है उस देशमें व्यापक एवं गहन जन-जागरणकी जरूरत हुआ है। बिना व्यापक एवं गहन जन-जागरणके पुरातनपर नूतनकी, प्रतिक्रियाशीलपर प्रगतिशील विजय सम्भव नहीं है। लेकिन यह विजय आनन-फाननमें हरगिज हासिल नहीं की जा सकती। जन-चेतनाके विकासके एक निश्चित स्तरपर ही यह वैचारिक परिवर्तन सम्भव है। ऐसे लोगोंकी कमी नहीं रही है जो इस तथ्यको नजरअन्दाज कर अन्धेरेमें तीर चलाते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अन्धेरा अज्ञानका प्रतीक है जिससे लिंग-भेदकी व्यवस्था कमजोर न होकर मजबूत ही होती है। लैंगिक असमानताके पीछे भी इस अज्ञानकी भूमिका हुआ करती है जिसे नजरअन्दाज कर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। अन्य भेदोंकी तरह ही लैंगिक भेदकी जड़ें भी समाजमें गहराईतक होती हैं। ऐसेमें उन जड़ोंको काटना एक दीर्घकालिक प्रक्रियासे गुजरनेकी मांग करता है। लैंगिक भेदकी जड़ें सामाजिक-आर्थिक आधारमें होती हैं। ऐसेमें बिना व्यापक एवं गहन सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनके इस विभेदसे मुक्ति सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर बिना व्यापक एवं गहन बुनियादी परिवर्तनके लैंगिक असमानतासे मुक्ति असम्भव है।

लैंगिक असमानता अन्य बुनियादी असमानताओंसे जुड़ी हुई है। यदि भारत जैसे देश इस असमानतासे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं तो इसकी एक बुनियादी वजह है उनका यथास्थितिवादसे लगाव। यह यथास्थितिवाद व्यक्तिको चेतनाविहीन बना दिया है। यथास्थितिवादसे लैंगिक भेदभावको जबरदस्त बढ़ावा मिलता रहता है। ऐसेमें चेतन एवं जागरूक स्तरपर यथास्थितिवादको बेनकाब करनेका एक भी मौका गंवाना नहीं चाहिए, क्योंकि इस बेहद संवेदनशील मुद्देपर ऐसा करना हानिकर साबित हो सकता है।