सम्पादकीय

विरासतके वर्चस्वकी लड़ाईमें बिखरे परिवार


आनन्द शुक्ल

भारतका राजनीतिक इतिहास चाचा-भतीजे, पिता-पुत्र, ससुर-दामाद और यहांतक कि सास-बहूके बीच सियासी विरासतको लेकर आपसी संघर्षोंकी घटनाओंसे भरा पड़ा है। राजनीतिक वारिसको लेकर वर्चस्वकी लड़ाईके कारण अबतक कई परिवार बिखर गये। पूर्व केन्द्रीयमंत्री स्वर्गीय रामविलास पासवानकी लोक जनशक्ति पार्टीमें चाचा-भतीजेके बीच वर्चस्वको लेकर छिड़ी जंग उदाहरणके रूपमें सामने है। लोजपाके सांसद एवं स्व.पासवानके छोटे भाई पशुपति कुमार पारसने अपने भतीजे चिराग पासवानको पार्टीके सभी पदोंसे बेदखल कर कमान अपने हाथमें ले ली है। चाचा पारसने चिराग पासवानको पार्टीके संविधान ‘एक व्यक्ति एक पदÓ का हवाला देकर सभी पदोंसे हटा दिया है। इसके पहले चिराग लोजपाके राष्ट्रीय अध्यक्ष, पार्टी संसदीय दलके नेता और संसदीय बोर्डके अध्यक्ष रहे। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरलाने आनन-फाननमें पशुपति कुमार पारसको लोकसभामें पार्टी संसदीय दलके नेताके रूपमें मान्यता भी प्रदान कर दी। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय कार्यकारिणीकी आपात बैठक बुलाकर पारसको लोजपाका राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुन लिया गया। चिरागने भी पलटवार करते हुए पार्टीके पांच सांसदों, जिसमें उनके चाचा पशुपति कुमार पारस, चचेरे भाई प्रिंस राज, महबूब अली कैसर, वीणा देवी और चन्दन सिंह शामिल हैं, इन सभीको पार्टीसे निष्काषित कर दिया है। उल्लेखनीय है कि चिराग भी खुद जमुईसे सांसद हैं। लोजपामें विवादका पूरा मामला अब चुनाव आयोगके पास पहुंच चुका है। माना जा रहा है कि मोदी मंत्रिमंडलके विस्तारके अटकलोंके बीच चिरागके मंत्री बनाये जानेकी संभावनाको क्षीण करनेके उद्देश्यसे यह कुटिल चाल चली गयी।

ऐसा नहीं है कि राजनीतिक विरासतको लेकर पहली बार किसी सियासी परिवारमें फूट पड़ी है। इस तरहकी घटनाका सबसे पहला उदाहरण कांग्रेसमें देखनेको मिला, जब १९८० में संजय गांधीकी विमान दुर्घटनामें हुई मृत्युके बाद उनकी पत्नी मेनका गांधीने अपने पतिकी राजनीतिक विरासतको आगे बढ़ानेके सवालपर इन्दिरा गांधीसे अनबनके कारण बगावतका बिगुल फूंका। इस पारिवारिक विवादके चलते मेनका गांधीको नेहरू-गांधी परिवारसे निकलकर अपना अलग रुख अख्तियार करना पड़ा। १९७० के करीब स्व. चौधरी चरण सिंहने अपनी पार्टी भारतीय क्रांति दलको राष्ट्रीय स्वरूप देनेके उद्देश्यसे स्व. सांसद मोहन सिंह ओबेरायको पार्टीका अध्यक्ष बनाया, कुछ मतभेदके चलते स्व. मोहन सिंहने चौधरी चरण सिंहको पार्टीसे निकाल दिया था। इसी तरह देशकी सबसे ताकतवर महिला नेत्री पूर्व प्रधान मंत्री स्व. इन्दिरा गांधीको दो बार १९६९ और १९७७ में कांग्रेससे निकाला गया। इन दोनों पूर्व प्रधान मंत्रियोंका इतना विशाल व्यक्तित्व था और जनतामें इनकी इतनी अधिक चाहत थी कि यह दोनों नेता जहां खड़े हो गये, वहीं पार्टी बन गयी। १९९५ में चन्द्रबाबू नायडूने अपने ससुर आंध्रप्रदेशके तत्कालीन मुख्य मंत्री एन. टी. रामा रावके खिलाफ बगावत करके उन्हें न सिर्फ मुख्य मंत्री पदसे बेदखल किया, बल्कि तेलुगू देशम पार्टीसे भी निष्कासित कर दिया। आश्चर्य है कि जिस एन. टी. रामा रावने तेलुगू देशम पार्टीकी स्थापना की, जिन्होंने १९९४ के विधानसभा चुनावमें प्रदेशकी कुल २९४ सीटोंमेंसे २१४ सीटोंपर पार्टीको विजय दिलवायी, उन्हें बड़ी निर्ममताके साथ पार्टीसे निकाल दिया गया। इस बातपर ताज्जुब होता है कि संकटके समय २१४ मेंसे मुश्किलसे दो दर्जन विधायक ही उनके साथ खड़े थे।

इसी तरह उत्तर प्रदेशके २०१७ के विधानसभा चुनावसे पहले समाजवादी पार्टीके मुखिया मुलायम सिंह यादवके परिवारमें विरोधके स्वर फूटे। चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेशके बीच विरासतको लेकर छिड़ी जंगको शांत करानेके लिए मुलायम सिंहने अखिलेशको पार्टी अध्यक्ष पदसे हटा दिया था। इसके बाद मुलायम सिंहको अध्यक्ष पदसे हटाकर अखिलेश खुद सपाके राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये। इसके साथ ही अखिलेशने चाचा शिवपालको सपाके प्रदेश अध्यक्ष पदसे हटाया। १९८७ में तमिलनाडुमें एम.जी. रामचंद्रनकी मृत्युके बाद उनकी विधवा जानकी रामचंद्रनने पतिकी विरासतको आगे बढ़ानेका जिम्मा लिया। यह मुश्किलसे २४ दिन चला। इसके बाद प्रदेश विधानसभामें अराजकताके कारण तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधीने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इसके बाद हुए चुनावोंमें एम.जी. रामचंद्रनकी करीबी रहीं जयललिताके हाथ राज्य शासनकी बागडोर आ गयी। जयललिता अपने जीवनकालतक तमिलनाडुकी राजनीतिमें खूब लोकप्रिय और सक्रिय रहीं। कर्नाटकमें पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी. देवेगौड़ाकी राजनीतिक विरासतको लेकर उनके बेटे कुमार स्वामीका अपने बड़े भाईके साथ झगड़ा हुआ। बादमें देवेगौड़ाके साथ लड़ाई-झगड़ेके बाद समझौता हुआ। पंजाबमें पूर्व मुख्य मंत्री प्रकाश सिंह बादलके भतीजे मनप्रीत बादलने वर्चस्वकी लड़ाईके चलते परिवारसे बगावत करके अपनी अलग पंजाब पीपुल्स पार्टी बना ली। हरियाणाके सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार पूर्व उपप्रधान मंत्री स्वर्गीय देवीलालके उत्तराधिकारी ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटालापर शिक्षा विभागमें भर्ती घोटालेका आरोप लगा। अजय चौटालाके छोटे भाई अभय चौटाला हरियाणाके मुख्य मंत्री पदका सपना देख रहे थे। इस बीच पार्टीमें वर्चस्वको लेकर कलह इस कदर बढ़ी कि अजय चौटालाके बेटे दुष्यंत चौटालाको राष्ट्रीय लोकदलसे निकाल दिया गया। भतीजे दुष्यंतने अपनी खुदकी जननायक जनता पार्टी बना ली। इस समय दुष्यंत भाजपाके सहयोगसे हरियाणाके उपमुख्य मंत्री हैं। महाराष्ट्रमें शिवसेना प्रमुख स्व. बाला साहब ठाकरेने जब अपने बेटे उद्धव ठाकरेको अपनी राजनीतिक विरासत सौंपा तो भतीजे राज ठाकरेने बगावत करके अपनी नयी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। हालांकि राज ठाकरेकी पार्टी राजनीतिमें कामयाब नहीं हो सकी। लेकिन उद्धव ठाकरे कांग्रेस और राकांपाके सहयोगसे महाराष्ट्रका मुख्य मंत्री बनकर सरकारका नेतृत्व कर रहे हैं। भाजपा नेता स्व. गोपीनाथ मुंडेने भतीजे धनंजय मुंडेको पार्टीमें शामिल किया, युवा मोर्चाका प्रदेश अध्यक्ष बनवाया। यही नहीं, धनंजय मुंडेको विधान परिषदका सदस्य भी बनवाया। लेकिन इतना सब कुछ करनेके बावजूद चाचासे बगावत करके धनंजय मुंडे राष्ट्रवादी कांग्रेसमें शामिल हो गये। धनंजय मुंडे अपनी चचेरी बहन पंकजा मुंडेको चुनाव हराकर विधायक बने और उद्धव ठाकरे सरकारमें वह मंत्री हैं। देशके कद्दावर नेता राकांपा प्रमुख शरद पवारके भतीजे अजीत पवारने २०१९ में पवारसे पूछे बिना देवेंद्र फण्नवीसके साथ महाराष्ट्रके उपमुख्य मंत्री पदकी शपथ ले ली थी। बादमें बहुमत न होनेके कारण देवेंद्र फण्नवीसको इस्तीफा देना पड़ा। मजबूर होकर अजीत पवार राकांपामें लौट आये।

देखा जाय तो अति महत्वाकांक्षाके कारण राजनीतिक परिवारोंमें बगावत होती रही है। राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कोई किसीका नहीं है। यह संभावनाओंका खेल है, इसमें हर कोई आगे बढ़ऩा चाहता है। गौरतलब है १९८९ के बादसे कांग्रेसका पतन शुरू हुआ। इस दौरान मण्डल आयोगकी सिफारिश लागू होते ही देशभरमें सामाजिक न्यायके पैरोकार नव राजवंशोंका उदय हुआ। मण्डलके दौरान उभरे नेताओंने अपनी जातियोंको एकजुट करके अपना एक मजबूत राजनीतिक आधार तैयार किया, इसके बूते वर्षोंतक इन नेताओंने अपने प्रदेशोंमें शासन भी किया। कहना न होगा कि इन नेताओंने अपने खुद राजनीतिमें सक्रिय रहते हुए अपने कुनबोंको राजनीतिमें लाकर भारी भूल की। उनकी इसी गलतीके परिणामस्वरूप राजनीतिक परिवारोंमें विरासतको लेकर आज संघर्ष देखनेको मिल रहा है। लालू प्रसाद यादव चारा घोटालेके आरोपमें जब जेल जाने लगे तो वह पत्नी राबड़ी देवीको बिहारका राजपाठ सौंप गये। तेज प्रताप और तेजस्वीके बीच राजनीतिक वर्चस्वको लेकर तनातनी राजनीतिके इसी परिवारवादका नतीजा है। वहीं, मुलायम सिंह यादवने अपने बेटे, बहू, भाई, भतीजे सबको राजनीतिमें शामिल किया। किसीको विधायक, सांसद तो किसीको मुख्य मंत्रीतक बनाया। एक बार समाजवादी नेता शरद यादवने मुलायम सिंह यादवके कुनबेपर टिप्पणी करते हुए उत्तर प्रदेशकी एक चुनावी सभामें कहा था कि समाजवादी पार्टी, कोई राजनीतिक दल नहीं, बल्कि यह मुलायम सिंह यादवकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है। अभिप्राय यह है कि नेताओंको खुद राजनीतिमें सक्रिय रहते हुए परिवारके किसी भी सदस्यको सक्रिय राजनीतिमें नहीं उतारना चाहिए। क्योंकि परिवारको राजनीतिमें शामिल करनेसे उनकी महत्वाकांक्षा जगती है। इसी कारण राजनीतिक परिवारोंमें बगावत होती रही है।