सम्पादकीय

इस्लामिक देशोंमें बदलावकी बयार


प्रणय कुमार

परिवर्तन प्रकृतिका शाश्वत नियम है। युगीन आवश्यकता एवं वर्तमान परिस्थिति-परिवेशके अनुकूल परिवर्तन सतत चलते रहना चाहिए। इसीमें अखिल मानवता और जगतीका कल्याण निहित है। परिवर्तनकी यह प्रक्रिया चारों दिशाओं और सभी पंथों-मजहबोंमें देखनेको मिलती रही है। इस्लाममें यह प्रक्रिया धीमी अवश्य है, परन्तु सतहके नीचे वहां भी परिवर्तनकी तीव्र कामना पल रही है। इस्लाम एक बंद मजहब है। वह सुधार एवं बदलावोंसे भयभीत और आशंकित होकर अपने अनुयायियोंपर भी तरह-तरहकी पाबन्दियां लगाकर रखता है। इन पाबंदियोंके कारण उसको माननेवाले बहुतसे लोग आज खुली हवा, धूपमें सांस लेनेके लिए तड़प उठे हों तो कोई आश्चर्य नहीं! तमाम इस्लामिक देशों और उनके अनुयायियोंके दिल और दिमागमें जमी सदियों पुरानी काई आज कुछ छंटने लगी है, उनके जेहनमें सुधार, बदलाव और उदारताकी उजली किरणें दस्तक देने लगी हैं। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देशोंमें पिछले कुछ वर्षोंमें आये बदलाव इसकी पुष्टि करते हैं।

हालमें कई इस्लामिक देशोंमें कुछ ऐसे बदलाव हुए जो सुधार एवं परिवर्तन, उदारता एवं सहिष्णुता, सहयोग एवं समन्वयकी उम्मीद जगाते हैं। २०१५ में सऊदी अरबमें महिलाओंको मत देनेका अधिकार सौंपा गया तो पूरी दुनियामें उसकी प्रशंसा हुई। सऊदी अरब सबसे अंतमें महिलाओंको मताधिकार सौंपनेवाला देश बना। वर्ष २०१८ में जब उसने महिलाओंको कार चलानेकी इजाजत दी तो उसकी भी चारों ओर प्रशंसा हुई। ऐसे अनेक सुधार पिछले कुछ वर्षोंसे वहां देखनेको मिल रहे हैं। चाहे महिलाओंको अकेले यात्रा करनेका मुद्दा हो या अपनी रुचि एवं मर्जीके परिधान पहननेका, यह सभी बदलाव इस्लामके युग विशेषसे आगे बढऩेकी ओर संकेत करते हैं। इसमें जो सबसे ताजा एवं उल्लेखनीय बदलाव है, वह है कुछ दिनों पूर्व सऊदी अरबके विभिन्न मस्जिदोंपर लगे लाउडस्पीकरोंपर नमाजके वक्त ऊंची आवाजमें दिये जानेवाले अजानपर कुछ शर्तों और पाबंदियोंका लगना। एक वहाबी विचारधारावाले देशमें ऐसी पाबन्दियां एवं शर्तें एक युगांतकारी निर्णय एवं घटना है। इसमें भविष्यके उजले संकेत निहित हैं। वहांके इस्लामिक मामलोंके मंत्री डाक्टर अब्दुल लतीफ बिन अब्दुल्ला अजीज अल-शेखने अपने आदेशमें लिखा, मस्जिदोंपर लगे लाउडस्पीकरोंका प्रयोग सिर्फ धर्मावलंबियोंको नमाजके लिए बुलाने और इजामत (नमाजके लिए लोगोंको दूसरी बार पुकारने) के लिए ही किया जाय और उसकी आवाज स्पीकरकी अधिकतम आवाजके एक-तिहाईसे ज्यादा न हो। इस आदेशको न माननेवालोंके खिलाफ प्रशासनकी ओरसे कड़ी काररवाई की जायगी। शरीयत एवं पैगम्बर मोहम्मदकी हिदायतोंका हवाला देते हुए कहा, हर इनसान चुपचाप अपने रबको पुकार रहा है। इसलिए किसी दूसरेको परेशान नहीं करना चाहिए और न ही पाठमें या प्रार्थनामें दूसरेकी आवाजपर आवाज उठानी चाहिए। सऊदी प्रशासनने अपने आदेशमें तर्क दिया है कि इमाम नमाज शुरू करनेवाले हैं, इसका पता मस्जिदमें मौजूद लोगोंको चलना चाहिए, न कि पड़ोसके घरोंमें रहनेवाले लोगोंको, बल्कि यह कुरान शरीफका अपमान है कि आप उसे लाउडस्पीकरपर चलायें और कोई उसे न सुने या सुनना न चाहे।

यह सऊदी अरबकी सरकारका बिलकुल उचित एवं समयानुकूल फैसला है कि एक निश्चित समयके बाद एवं निश्चित ध्वनिसे ऊंची आवाजमें मस्जिदोंपर लाउडस्पीकर न बजायी जाय। कितने बुजुर्ग-बीमार, बूढ़े, बच्चे, स्त्री-पुरुष मस्जिदोंमें बजनेवाले लाउडस्पीकरोंकी ऊंची आवाजसे अनिद्रा एवं अवसादके शिकार हो जाते हैं। इससे बच्चोंकी पढ़ाईमें अत्यधिक बाधा पहुंचती है। भारत जैसे देश जहां नयी-नयी मस्जिदोंकी कतारें खड़ी होती जा रही हैं, वहांकी स्थितियां तो और भयावह एवं कष्टप्रद हैं। ऊपरसे आये दिन होनेवाले धरने-प्रदर्शन, हड़ताल-आन्दोलनने उनके दिनका चैन और रातोंकी नींद पहले ही छीन रखी है, जो थोड़ा-बहुत सुकून रात्रिके अंतिम प्रहर और भोरकी शांत-स्निग्ध बेलामें नसीब होती है, मस्जिदोंपर बजनेवाले लाउडस्पीकर उनसे वह भी छीन लेते हैं और यदि किसीने पुलिस-प्रशासनमें शिकायत भी की तो उसकी शिकायत दर्ज ही नहीं की जाती और कहीं जो वह मीडियाके माध्यमसे सुखियां बन जायं तो बात दंगे-फसाद, फतवे-फरमानतक पहुंच जाती है। शिकायत दर्ज करानेवाला या विरोधका वैध स्वर बुलंद करनेवाला स्वयंको एकांकी-असहाय महसूस करता है। कथित बौद्धिक एवं क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादी वर्ग उसका सहयोग करनेके स्थानपर सुपारी किलरकी भूमिकामें अधिक नजर आता है।

पूरा इस्लामिक आर्थिक-सामाजिक तंत्र हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाता है। पक्ष बदलते ही बहुतोंके लिए अभिव्यक्तिके अधिकारके मायने भी बदल जाते हैं। विरोध या शिकायत दर्ज करानेवाले व्यक्तिकी सार्वजनिक छविको येन-केन-प्रकारेण ध्वस्त करनेका कुचक्र एवं षड्यंत्र रचा जाता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रसिद्ध गायक सोनू निगम एवं अभिजीत भट्टाचार्या या हालके दिनोंमें कंगना रनौतको ऐसी ही मर्मांतक पीड़ा एवं यातनाओंसे गुजरना पड़ा है। अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताके संविधानप्रदत्त अधिकारोंका उचित एवं मुद्दा-आधारित उपयोग मात्र करनेके कारण उन्हें सोशल मीडियापर ट्रॉलका शिकार होना पड़ा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कानून-व्यवस्थासे संचालित, संविधानसम्मत, धर्मनिरपेक्ष देशमें कुछ ताकतवर लोगों और समुदायोंको किसीका गला रेतने, किसीको चैराहेपर टांगने जैसे अवैधानिक, बल्कि आपराधिक फतवे-फरमान जारी करनेकी खुली छूट मिली हुई है। जहां ऐसे फतवे-फरमान जारी करनेवालोंके विरुद्ध कानूनी काररवाई की जानी चाहिए, वहीं क्षद्म धर्मनिरपेक्षताकी आड़में उनके जहरीले बयानोंका बचाव किया जाता है, टेलीविजनपर आयोजित प्राइम टाइम बहसमें किया जाता है। यदि इस्लामिक देश सऊदी अरब वर्तमानकी आवश्यकता, सभ्य एवं उदार समाजकी स्थापना और अपने नागरिकोंके सुविधा-सुरक्षा-स्वास्थ्यको ध्यानमें रखते हुए मस्जिदोंमें ऊंची आवाजमें बजनेवाले लाउडस्पीकरोंपर शर्तें और पाबन्दियां लगा सकता है तो धर्मनिरपेक्ष देश भारतमें ऐसा क्यों नहीं हो सकता।