सम्पादकीय

जीवन साधना 


श्रीराम शर्मा

एक गांवमें बड़े धर्मपरायण व्यक्ति रहते थे। समय-समयपर कथा आयोजन होते रहते, दान-पुण्यकी महत्ता बतायी जाती। अभीतक गांवमें किसी ऐसे महात्माका आगमन नहीं हुआ था, जो उन्हें अध्यात्मका मर्म समझाता, जीवन साधनाका महत्व समझाता। इसी कारण प्रत्यक्षत: धार्मिक क्रियाकलापोंमें रत दिखते हुए भी वह सभी अनगढ़ ही थे। एक बार एक साधु महाराज आये। बड़ी भव्य उनकी आकृति, दाढ़ीसे सुसज्जित, व्यक्तित्व एवं चेहरेपर तेज सभीको आकर्षित कर रहा था। उन्होंने अपने एक घंटेके पूरे प्रवचनमें स्वर्गलोककी महत्ताका गुणगान किया एवं बार-बार कहा कि वैराग्य लेनेसे स्वर्ग मिलता है जो भी दुनियाके सुखों, घर-गृहस्थीको त्याग कर वैरागी बन जाता है, वह स्वर्गमें जानेका अधिकारी बन जाता है। इसके लिए कैसे पात्रता उपार्जित करनी पड़ती है एवं क्या तप तितिक्षा करनी पड़ती है, यह न बताते हुए मात्र वैराग्य एवं स्वर्गकी गुणगाथा गाकर वह तो गांवसे दान-दक्षिणा लेकर प्रस्थान कर गये। सभी सोचने लगे कि यह जीवन व्यर्थ है। यदि स्वर्गप्राप्तिकी लक्ष्यसिद्धि करनी है तो खेती, व्यापार इत्यादिमें समयाक्षेप करनेसे क्या लाभ। वैराग्य ले लेना चाहिए एवं घर छोड़कर बाहर जंगलमें रहना चाहिए। सभीने अपने औजार, उपकरण घरोंमें डाले एवं गांवसे कुछ ही दूर एक आमके बागीचेमें डेरा डालनेका निश्चय किया। सोचा वहीं वैराग्यकी साधना करेंगे। बागीचेमें बनायी गयी झोपडिय़ोंमें बैठे-बैठे बहस होने लगी, स्वर्गमें चलकर क्या-क्या वस्तुएं प्राप्त करेंगे, यह तो विचार कर ही लेना चाहिए। वहां तो मनचाही वस्तुएं प्राप्त करनेकी छूट है। सब अपने मनोरथोंकी सूची बनाने लगे। किसीने यौवन रूप, किसीने धन, किसीने नयी पत्नी, किसीने पति, बेटे, पोते, महल, बागीचे आदि पाने, धनकुबेर बननेकी अपनी आवश्यकताएं जतायीं। एक व्यक्तिने याद दिलाया कि इससे पूर्व एक महात्मा आये थे, उन्होंने तपकी महत्ता भी बतायी थी, तब वैराग्यकी चर्चा की थी। उसे डांटकर चुप करा दिया गया। जब वैराग्यकी फलश्रुति व्यक्तित्व संपन्न महात्मा बताकर गये ही थे, फिर कौन तप साधनाके कष्टसाध्य झंझटोंमें पड़े, यही सबका दृष्टिकोण था। एक अकेला उस भीड़में क्या करता। आमके पेड़ोंमें एक बहुत पुराना वृक्ष भी था। पुरुषार्थके बलपर स्वर्गमें ही क्या, कहीं भी मनोरथ पूरे किये जा सकते हैं। तुम्हारे मनमें मात्र मनोकामनाएं ही तो हैं, कोई ऊंचा लक्ष्य तो है नहीं। मनोकामनाओंका मूल्य चुकाकर ही यदि पुरुषार्थ करना है तो स्वर्ग जाने और घर छोडऩेकी क्या आवश्यकता। यह सब तो घरमें रहकर अपनी कर्म-साधना करते हुए भी किया जा सकता है।