सम्पादकीय

व्यवस्थामें बुनियादी परिवर्तन अपेक्षित


आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

किसी भी देशकी अर्थव्यवस्थामें तेलकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसेमें तेलकी कीमतोंमें उछालका निश्चित अवधितक निर्णायक असर पड़ सकता है। ऐसेमें उत्पादनमें कटौतीके चलते तेलने लगभग १४ माहकी उच्चतम कीमत दर्ज की है। इसमें ओपेकके फैसलेने कटेपर नमक छिड़कनेका काम किया है। इससे सऊदी अरबने कहा है कि पिछले साल सस्तेमें जो तेल खरीदा था, उसका जमकर इस्तेमाल कर मौजूदा संकटसे निजात पाइये। ओपेककी प्रतिक्रिया तब सामने आयी जब विश्वके तीसरे सबसे बड़े आयातकने उससे आपूर्तिको फिक्स करनेका आग्रह किया था। तेलकी कीमतोंमें उछालके लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं लेकिन उसके पीछे कीमतोंकी राजनीतिकी भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण बतायी जाती है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। किसी देशकी कमजोरीका उचित-अनुचित लाभ उठाना एक तरहसे विश्व राजनीतिका अपरिहार्य अंग बन गया है। ऐसेमें तेलकी कीमतोंमें उतार-चढ़ाव भी इसका अपवाद नहीं है। प्रत्येक स्थितिमें विकल्प आवश्यक है। भारतके साथ एक दिक्कत यह है कि तेल विषयक उसकी सियासत कुशलतापूर्ण नहीं रही है। सरकारें आती-जाती हैं और उसीके साथ तेल जैसे संवेदनशील मुद्देपर सियासत भी अस्थिर होती रही है जो हानिकर साबित हुई है। विपरीत स्थितियोंसे किस तरह निबटा जाय, यह कोई आसान काम है भी नहीं। फिर यह बहुत कुछ देश विशेषकी मोलभावकी क्षमतापर भी निर्भर करता है। यदि यह क्षमता होती तो तेलके मुद्देपर हमारे देशका नेतृत्व इस कदर उपहासका पात्र न बनता। यह बात भारतके पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और इस्पातमंत्री धर्मेन्द्र प्रधानकी प्रतिक्रियासे दिनके तेज प्रकाशकी तरह स्पष्टï हो जाती है। मंत्री महोदयने महसूस किया कि तेलकी कीमतोंमें अन्तरराष्टï्रीय स्तरपर उछालसे आर्थिक रिकवरी और मांगपर बुरा असर पड़ रहा है।

पेट्रोल और डीजलकी रिटेल कीमतें पहलेसे ही ऐतिहासिक ऊंचाईपर हैं। तेल कम्पनियां यह वृद्धि उपभोक्ताओंके माथे मढऩा चाहेंगी। काबिलेगौर है कि भारतने उत्पादनमें कटौती सम्बन्धी ओपेक प्लसके गत वर्षके उस फैसलेका समर्थन किया था, जिसमें कोविडके चलते तेलकी मांगमें कमीसे जुड़े फैसलेका समर्थन किया था। आर्थिक विशेषज्ञोंका मानना है कि तेलके उत्पादनमें कटौतीका समर्थन कर भारतने खुद अपने पैरपर कुल्हाड़ी मारी थी। वैसे भी जब उत्पादन कम होगा तो कीमतें बढ़ेंगी ही। फिलहाल तेलकी कीमतें आकाश छू रही हैं और उनमें कमीके कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं। जबतक तेलकी कीमतोंमें कमी दर्ज नहीं होती, तबतक आयातक देशोंकी मुसीबतोंका ग्राफ भी नीचे नहीं आयगा। अन्य चीजोंकी तरह ही मूल्य भी नीतियोंसे प्रभावित होते हैं।

भारत, जो विश्वमें तेलका तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश है, महंगीसे बच नहीं सकता। ऐसेमें सहज ही यह सवाल उठता है कि क्या सरकार इस मुद्देपर आम उपभोक्ताको राहत देनेकी कोई योजना रखती है। आर्थिक विशेषज्ञोंका मानना है कि भविष्यमें ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है। ऐसी स्थितिमें तेलके सामान्य उपभोक्ताओंको आर्थिक परेशानियोंका सामना करनेके लिए दिमागी तौरपर तैयार रहना चाहिए। भ्रम पालने और उसके साथ बेहतर कलकी उम्मीद लिये जीनेका दौर बहुत पहले समाप्त हो चुका है। स्पष्टï है कि अभी तेल और तेलकी धार देखते रहिये। परिवर्तन एक अति दूरस्थ सम्भावना है। ऐसा इसलिए है कि जबतक देशकी अर्थव्यवस्थामें बुनियादी परिवर्तन नहीं होता, तबतक आशावादिताकी कोई गुंजाइश नहीं है। आर्थिक व्यवस्थामें किसी गुणात्मक परिवर्तनकी बातें करते हम कुछ लोगोंको अवश्य पाते हैं लेकिन वे मृग-मारीचिकाके रही है, न है लेकिन उनसे बुनियादी आर्थिक परिवर्तनकी उम्मीद करना दिवास्वप्न सरीखा है। जैसा कि हम कह चुके हैं, हमारा देश कच्चे तेलका तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। यह हमारी अर्थव्यवस्थाके लिए कोई सम्मानकी बात नहीं है। इसके विपरीत, यह घोर अपमानकी बात है। होना तो यह चाहिए कि हमारा देश तीसरा सबसे कम तेल आयात करनेवाला देश होता। लेकिन यह हकीकत नहीं, सपना हो सकता है दीर्घकाल तथा विशेषज्ञोंके एक तबकेका यहांतक कहना है कि मौजूदा व्यवस्थाके तहत यह स्थिति बदलने नहीं जा रही है, क्योंकि इसके लिए आवश्यक तत्वोंका अभाव है। यह अभाव बढ़ता ही जा रहा है।

कहनेकी जरूरत नहीं है कि इस निष्कर्षसे असहमत लोगोंकी संख्या बहुत ज्यादा है परन्तु संख्या और गुणवत्तामें अन्तर होता है और हमारे देशमें यह अन्तर बहुत अधिक है। हकीकत जो भी हो, इस तथ्यको कोई झुठला नहीं सकता कि हमारा देश कच्चे तेलका बड़ा उत्पादक न होकर, बड़ा निर्यातक है। इससे देशकी अस्मिताको खतरा है। इस स्थितिमें हम आयात घटाकर ही परिवर्तन ला सकते हैं। परन्तु अबतक इसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। विशेषज्ञोंका मानना है कि निकट भविष्यमें भी इसमें कोई खास परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। यह एक त्रासदी है। इसके लिए व्यवस्थामें बुनियादी परिवर्तन अपेक्षित है। इस परिवर्तनके लिए सब कुछ महज छलावा, भुलावा, मृग-मारीचिका है। अन्तिम विश्लेषणमें हमें हर हालतमें कच्चे तेलके आयातमें बुनियादी एवं गुणात्मक कमी लानी ही पड़ेगी। लेकिन जरूरी नहीं कि इस परिवर्तनका माध्यम सरकार ही हो। यह सब जनता भी कर सकती है लेकिन इसके चलते उसे अतिशय सक्रिय होना पड़ेगा। लेकिन यह सक्रियता दिशाहीन नहीं हो सकती। इस देशमें दिशाहीन सक्रियताकी कमी नहीं रही है लेकिन उससे बात बननेके बदले बिगड़ती ही रही है। इतिहासके इस सबकको हमें कभी भी नहीं भूलना चाहिए।