अशोक
सावनके महीनेमें प्रत्येक शिवभक्तकी यही कामना होती है कि एक बार बाबा बैद्यनाथका दर्शन जरूर कर ले। कहते हैं सागरसे मिलनेका जो संकल्प गंगाका है वही दृढ़निश्चय भगवान शिवसे मिलनेका कांवडिय़ोंमें भी देखा जाता है। तभी तो श्रावणी मेलके दौरान धूप, बारिश और भूख-प्यास भूलकर दुर्गम रास्तोंपर दुख उठाकर अपने दुखोंके नाशके लिए वे बाबा बैद्यनाथकी शरणमें पहुंचते हैं। मान्यताओंके अनुसार परम शिव भक्त रावणने कैलाश पर्वतपर कठिन तपस्या कर तीनों लोकमें विजय प्राप्त करनेके लिए अपनी लंकानगरीमें विराजमान होनेके लिए औघड़दानी बाबा भोले शंकरको मना लिया। भगवान शंकरने रावणको वरदान देते समय यह शर्त रखा कि शिवलिंग स्वरूपको तुम भक्तिपूर्वक अपने साथ ले जाओ, लेकिन इसे धरतीपर कहीं मत रखना। अन्यथा यह लिंग वहीं स्थापित हो जायगा। रावणकी इस सफलतासे इंद्र सहित देवतागण चिंतित हो गये। कहते हैं कि रावण लिंग स्वरूप बाबा भोलेनाथको लंकानगरीमें स्थापित करनेके लिए जा रहा था कि रास्तेमें वनमें अवस्थित देवघरमें शिव मायासे उसे भारी लघुशंकाकी इच्छा हुई, जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था। रावण बैजू नामके एक गोपको लिंग स्वरूप सौंप कर लघुशंका करने चला गया। बैजू लिंग स्वरूपके भारको सहन नहीं कर सका और उसे जमीनपर रख दिया। जिससे देवघरमें भगवान भोलेनाथ स्थापित हो गये। लघुशंका कर लौटे रावणने देखा बाबा भोलेनाथ जमीनपर विराजमान हो गये हैं तो वह परेशान हो गया और उन्हें जमीनसे उठानेका बहुत प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सका। इससे गुस्सेमें आकर उसने लिंग स्वरूप भोलेनाथको अंगूठेसे जमीनमें दबा दिया, जिसके निशान आज भी बैद्यनाथ धाम स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंगपर विराजमान हैं। उस लिंगमें भगवान शिवको प्रत्यक्ष रूपमें पाकर सभी देवताओंने उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर उसका नाम बैद्यनाथ धाम रखा। इस दिव्य ज्योतिर्लिंगके दर्शनसे सभी पापोंका नाश और मुक्तिकी प्राप्ति होती है। बैद्यनाथ धामकी गणना उन पवित्र तीर्थ स्थलोंमें की जाती है, जहां द्वादश ज्योतिर्लिंगके अलावा शक्ति पीठ भी स्थापित है।