सम्पादकीय

मुश्किल है अफगानिस्तानमें तालिबानकी वापसी


संजय राय

अफगानिस्तान इन दिनों वैश्विक राजनय और कूटनीतिकी धुरी बना हुआ है। दो दशक बाद अमेरिकाकी सेना अफगानिस्तानसे वापस लौट रही है। अमेरिकी सैनिकोंकी वापसीके साथ ही तालिबान एक बार फिर अपनी पुरानी भूमिकामें आ गया है। तालिबान काबुलकी सत्तापर लोकतांत्रिक तरीकेसे बैठी अशरफ गनीके नेतृत्ववाली सरकारको हटाकर पूरे देशका शासन अपने कब्जेमें करना चाहता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्पके शासनकालके आखिरी कुछ महीनोंमें जब यह सहमति बन गयी कि अमेरिकाके नेतृत्वमें नाटोकी सेना अफगानिस्तान छोड़ देगी, तभीसे अफगान सरकारके प्रति तालिबानका तीखा रवैया दिखने लगा था। समय बीतनेके साथ अब तालिबानने उग्र रूप धारण कर लिया है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितिके कारण अफगानिस्तान हमेशा दुनियाभरके देशोंके लिए महत्वपूर्ण रहा है। प्रथम विश्वयुद्धके बाद अमेरिका और सोवियत संघके शुरू हुए शीतयुद्धके दौरान अफगानिस्तानपर सोवियत संघका प्रभाव रहा। अफगानिस्तानमें कम्युनिस्ट विचारधाराकी सरकारोंका शासन रहा। इन सरकारोंको सोवियत संघका पूरा समर्थन और सहयोग मिलता रहा।

१९८९ में विघटनके बाद जब अफगानिस्तानसे सोवियत संघकी सेना वापस लौट गयी और शीतयुद्धको समाप्त मान लिया गया तो तालिबानने बेहद क्रूर तरीकेसे वहांकी सत्तापर कब्जा कर लिया। जान बचानेके लिए तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्लाहको भारतसे गुहार लगानी पड़ी थी। भारतने उनके बीवी बच्चोंको शरण तो दे दी, लेकिन दुविधाके चलते उन्हें शरण देनेसे इनकार कर दिया। मजबूरन उन्हें संयुक्त राष्ट्रके कार्यालयमें शरण लेना पड़ा था। पाकिस्तान और ईरानने नजीबुल्लाहको अपने यहां शरण देनेकी पेशकश की थी जिसे उन्होंने खारिज कर दिया था, क्योंकि उन्हें इन दोनों देशोंपर भरोसा नहीं था। आखिरकार सितंबर १९९६ में तालिबानने संयुक्त राष्ट्रके कार्यालयमें घुसकर बहुत नृशंस तरीकेसे नजीबुल्लाह और उनके भाईकी हत्या कर दी थी। हत्याके बाद उनके क्षत विक्षत शवोंको लैंप पोस्टपर लटका दिया था।

तालिबानको अमेरिकाने पाकिस्तानके सहारे पैदा किया था, जिससे कि अफगानिस्तानमें सोवियत संघके वर्चस्वको तोड़ा जा सके। जब अमेरिकाका यह उद्देश्य पूरा हो गया और तालिबानको अफगानिस्तानकी सत्ता मिल गयी तो खेलका एक नया दौर शुरू हुआ। अमेरिकाके खेलको अलकायदाने कायदेसे समझा। तालिबानने अलकायदाके साथ गठजोड़ किया। पाकिस्तानने इसमें भरपूर सहयोग दिया और इस नये खेलकी चरम परिणति ११ सितंबर, २००१ को अमेरिकाके ट्विन टॉवरपर हवाई हमलेके रूपमें दिखी। तालिबान और अलकायदाने अमेरिकाको ही अपना दुश्मन बना लिया। उसके बाद अमेरिकाने अफगानिस्तानपर हमला करके तालिबान और अलकायदाको सत्तासे हटनेको मजबूर कर दिया और बीस सालतक अपनी सेनाके सहारे वहांपर एक लोकतांत्रिक व्यवस्थाकी बुनियाद रखी। अब जब तालिबान एक बार फिरसे अमेरिकाके साथ बातचीत करके सत्तामें भागीदारीके लिए नये सिरेसे तैयारी कर रहा है तो एक बार फिरसे उसका पुराना राक्षसी रूप दुनिया देख रही है। तालिबानको पाकिस्तानका भरपूर समर्थन मिल रहा है। अफगानिस्तानकी सरकारने खुला आरोप लगाया है कि पाकिस्तानने तालिबानके वेशमें दस हजार सैनिकोंको उसके देशमें भेजकर गृहयुद्ध करवाना चाहता है। बताया जा रहा है कि यह संख्या लगभग ३७ हजारके आसपास हो सकती है। पाकिस्तानने इन लोगोंको स्पष्ट निर्देश दे रखा है कि भारत द्वारा बनाये गये प्रतिष्ठानोंको नष्ट करें। अफगानिस्तानमें पिछले दो दशकके दौरान भारतने काफी रचनात्मक भूमिका निभायी है। तालिबानके कारण भारतका भारी निवेश खतरेमें पड़ चुका है। तालिबान अफगानिस्तानके राष्ट्रपतिको हटानेकी शर्त रख चुका है। उसे सत्तामें भागीदारी नहीं, बल्कि अब पूरी सत्ता चाहिए। लाखों अफगानी अपने ही देशमें शरणार्थी बन गये हैं। भारतकी चिंता यह है कि तालिबानके कारण यदि उसका निवेश डूबा तो आनेवाले समयमें कश्मीरमें आतंकका एक नया दौर भी शुरू हो सकता है। पाकिस्तान अपनी हरकतोंसे बाज नहीं आनेवाला है। इसके लक्षण अभीसे दिखने लगे हैं। चीनके सहयोगसे पाकिस्तान अब आतंकियोंको ड्रोनसे लैस कर रहा है। चीन और पाकिस्तान अफगानिस्तान सरकार और तालिबानके बीच मध्यस्थकी भूमिका निभाना चाहते हैं। दोनों देश चाहते हैं कि भारतको किसी न किसी तरीकेसे अफगानिस्तानसे बाहर रखा जाय, लेकिन अफगानिस्तान सरकारको न तो मध्यस्थता और न ही भारतसे दोस्ती तोडऩा मंजूर है। अपने हित सुरक्षित रहें इसलिए भारतने परदेके पीछे तालिबानसे बातचीत भी शुरू की है। भारतकी यह नीति सफल होगी या विफल यह तालिबानके रुखपर निर्भर करेगा। फिलहाल भारत वहांकी सरकारके साथ मजबूतीसे खड़ा है।

पिछले दिनों अफगानिस्तानके सेना प्रमुख और अमेरिकाके विदेशमंत्री दिल्लीमें मौजूद थे। अफगानिस्तानकी सरकार भारतसे सैन्य सहयोग चाहती है। लेकिन भारत एक बार फिरसे दुविधाके दोराहेपर खड़ा है। भारतको इस बातकी चिंता है कि यदि अफगानिस्तानमें सीधे सेना भेज देगा तो वहांकी आम जनताको नकारात्मक संदेश जायगा। इसीलिए भारत यही कह रहा है कि वह एक शांतिपूर्ण और समृद्ध अफगानिस्तानका पक्षधर है और इसके लिए जिससे भी बात करनी होगी करेगा। इस नीतिके तहत ही तालिबानसे बातचीतका दरवाजा खोला गया है। ऐसा माना जा रहा है कि बीस सालके दौरान तालिबानके रुखमें नरमी आयी है। वह सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि भारत, चीन, रूस, अमेरिका और यूरोपके देशोंके साथ मैत्रीपूर्ण संबंध कायम करना चाहता है। लेकिन जिस तरहसे तालिबानने अफगानिस्तानमें कत्लेआम मचा रखा है, उसे देखकर यही लग रहा है कि उसके पुराने रुखमें कोई बदलाव नहीं आया है।

सवाल यह है कि क्या इस रुखके साथ तालिबान अफगानिस्तानकी सत्तामें भागीदारी कर पायगा? इसका जवाब है, कतई नहीं। क्योंकि अमेरिका अपने हितोंको नष्ट होने नहीं देगा। भारत भी बीस सालतक की गयी मेहनतको बरबाद नहीं होने देगा। तालिबानकी बढ़तके बीच अमेरिकाने उसपर नये सिरेसे हमला करके यह संदेश दे भी दिया है। जानकारोंकी मानें तो भारत भी पर्देके पीछे रहकर अफगानिस्तानकी सरकारको तालिबानके खिलाफ लड़ाईमें भरपूर सहयोग कर रहा है और यह सहयोग तबतक जारी रहनेवाला है, जबतक भारतके हित सुरक्षित न हो जायं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इसबार तालिबानको सत्तातक पहुंचनेमें नाकों चने चबाने पड़ेंगे। वह पहलेकी तरह मनमानी करेगा तो उसे नुकसान ही उठाना पड़ेगा। भारत नहीं चाहेगा कि कश्मीरमें पाकिस्तानका नापाक आतंकी खेल फिरसे शुरू हो। इसके लिए भारतको जिस हदतक जाना होगा, जायेगा क्योंकि आजका भारत भी पहले जैसा नहीं है।