सम्पादकीय

सामाजिक तानेबानेकी नयी अभिव्यक्ति


डा. अजय खेमरिया

कभी बामन बनियों और बाजारवालों (मतलब शहरी इलाके) की पार्टी रही भाजपा आज अखिल भारतीय प्रभावके चरमपर है। पांच राज्योंके विधानसभा चुनावोंके शोरमें कुछ अहम सवालोंके साथ विमर्शको आमंत्रित करता है। सवाल यह कि क्या भाजपाका अभ्युदय केवल एक चुनावी हार-जीतसे जुड़ा घटनाक्रम है। हर दलके जीवनमें उतार-चढ़ाव आते हैं इसलिए क्या भाजपाका चरम भी समयके साथ उतारपर आ जायेगा। इस बुनियादी सवालके ईमानदार विश्लेषणमें एक साथ कई पहलू छिपे है बशर्ते संसदीय राजनीतिके उन पहलुओंको पकडऩेकी कोशिश की जाय जो स्वाभाविक शासक दल और उसके थिंक टैंककी कार्यनीतिसे सीधे जुड़े रहे हैं। बंगाल, सहित सभी पांच राज्योंमें भाजपा चुनाव हार भी जाये तब भी यह सुस्पष्ट है कि भारत नये संसदीय मॉडलकी राह पकड़ चुका है और यह रास्ता है बहुसंख्यकवादका। यानी भाजपाने शासन और राजनीतिको महज ४१ सालमें एक नये मॉडलमें परिवर्तित कर दिया है जिसे ६० सालमें कांग्रेसने खड़ा किया था। बेशक दूरसे यह मॉडल २०१४ के बादसे ही नजर आता है लेकिन इसकी बुनियाद ९५ साल पहले रखी जा चुकी थी जब एक कांग्रेसी डा. केशव बलिराम हेडगेवार भारतके स्वत्व केंद्रित सामाजिकीको भारतके भविष्यके रूपमें देख रहे थे। आरएसएस यानी संघ उस बुनियादका सामाजिक, सांस्कृतिक, नाम है जिसे आजके पॉलिटिकल पंडित मोदी-शाहकी सोशल इंजीनियरिंग कहकर अपनी सतही समझको अभिव्यक्त करते हैं। असलमें भाजपाका राजनीतिक शिखर महज एक पड़ाव है उस सुदीर्ध परियोजनाका जिसे संघने अपने सतत संघर्ष, बलिदान और तपस्यासे खड़ा किया है। सवाल यह है कि महज सात सालसे भी कमके दौरमें गैर-भाजपावादकी राष्ट्रीय मांग क्यों बेचारगीके साथ मुखर होने लगी, स्वाभाविक शासक परिवारके मुखिया अमेरिकासे हस्तक्षेपतककी मांगपर उतर आये, जबकि गैर-कांग्रेसवादको फलीभूत होनेमें ६० सालका समय लगा। मोदी-शाहके अक्समें इस राजनीतिक मांगको जबतक देखा जाता रहेगा यह न तो कभी बीजेपीके लिए चुनौती साबित होगा न निकट भविष्यमें उसके चुनावी पराभवको सुनिश्चित करेगा, जैसा कि हालिया कांग्रेसका हुआ है। भारतका भविष्य अब सेक्युलरिज्म या अल्पसंख्यकवादसे नही बहुसंख्यकवादसे ही निर्धारित होगा। इसलिए यदि निकट भविष्यमें बीजेपी चुनावी शिकस्त भी खाती है तब भी यह परियोजना सफलतापूर्वक आगे बढ़ेगी। पूर्वसे पश्चिम, उत्तरसे दक्षिण सब दूर ध्यानसे देखा जाय तो सियासी महल मोदी-शाहसे भयाक्रांत है। हकीकत यह है कि बीजेपीने भारतकी संसदीय राजनीतिको ७० साल बाद सही अर्थोंमें समावेशी और समाजवादी बनानेका काम भी किया है। यह नया मॉडल बहुसंख्यक भावनाओंपर मजबूतीसे आकर खड़ा हो गया है। यह भी तथ्य है कि भारतके साथ रागात्मक रिश्ता संसदीय व्यवस्थामें यदि किसीने खड़ा किया तो वह बीजेपी ही है और इसका श्रेय जाता है  उसकी मातृ संस्था संघको। ६० सालतक अल्पसंख्यकवाद भारतकी उदारमना बहुसंख्यक आबादीकी छातीको मानो रौंदते हुए खड़ा रहा। समाजवाद और सामाजिक न्यायकी अवधारणाओंको ध्यानसे देखिये कैसे सिंडिकेट निर्मित हुए इन चुनावी अखाड़ोंमें। सैफई, पाटलिपुत्र जैसे तमाम समाजवादी और फैमिली सिंडिकेटसको भाजपाने केवल २०१४ में आकर तोड़ दिया है यह मानना भी बचकाना तर्क ही है। कल मोदी-शाह नहीं होंगे तब क्या कोई प्रधान मंत्री हिन्दू भावनाओंको दोयम बनानेकी हिम्मत करेगा। क्या शांडिल्य गोत्री कोई ममता चंडीपाठकी जगह केवल कलमासे अपनी चुनावी वैतरणी पार कर सकेंगी। क्या बंगालमें अब कोई भी दल जय श्रीरामके जयघोष करनेवालोंको जेलमें बंद करानेकी हिम्मत करेगा। क्या आगे कोई राजकुमार अपने कुर्तेके ऊपरसे जनेऊ पहनकर खुदके दतात्रेय गोत्रको बांचनेसे बचेगा। क्या गारंटी है कि कोई  दिग्विजयसिंह जैसा सेक्युलर चैम्पियन राममन्दिरके लिए चंदा नहीं देगा। सबरीमालापर वाम और कांग्रेसी माफीकी मुद्रामें नहीं होंगे और स्टालिन कबतक खुदको नास्तिक कह पायेंगे। इस विमर्शको गहराईसे समझनेकी जरूरत है कि कैसे भारतकी चुनावी राजनीति नये संस्करणमें खुदको ढाल रही है। इसे भाजपाकी वैचारिक विजय कैसे नहीं कह सकते हैं। क्या यह सेक्युलरिज्मका बीजेपी मॉडल नही है जिसे संसदीय स्वीकार्यता मिल रही है।

सामाजिक न्याय और समाजवादके उसके मॉडलको भी देखिये। गोकुल जाट, सुहैलदेव, कबीरसे लेकर सबरी और मतुआको लेकर, मथुरासे बंगालतक एक नया ध्रवीकरण भाजपाके पक्षमें दिखाई देता है। मौर्या, कोइरी, कुर्मी, लोधी, लिंगायत, निषाद, मुसहर, जैसी बीसियों पिछड़ी, दलित जातियां भाजपाकी छतरीके नीचे खुदको राजनीतिक न्यायके नजदीक पा रही हैं। जबकि संविधानके होलसेल डीलर इस न्यायको केवल परिवारशाहीकी हदबंदीमें बंधक बनाये रखें। इसका सीधा मतलब यही है कि माई और भूरा बाल जैसे समीकरण अब इतिहासके कूड़ेदानमें जा चुके हैं और सैफई महोत्सवकी समाजवादी रंगीनीयत भी शायद ही अब लौटकर आ पायें। इसे समाजीकरणकी प्रक्रियामें आप भव्य हिन्दू परम्पराका निरूपण भी कह सकते हैं। एक दौरमें देशने अटलजीके स्थानपर  देवेगौड़ा और गुजराल जैसे प्रधान मंत्री इसी हिन्दू राजनीतिकी प्रतिक्रियामें देखे थे। यानी कल जिस हिन्दूत्वने भाजपाको अलग-थलग किया था आज वही उसके उत्कर्षका आधार बन गया है। तो फिर इसे भाजपाकी वैचारिकीपर भारतकी बहुसंख्यक आबादीकी मोहर नहीं माना जाना चाहिए।

पार्टीने जिस नये मॉडलको सफलतापूर्वक लागू किया है उसमें शासन और राजनीति दोनोंका व्यवस्थित ढांचा नजर आता है। बेरोजगारी, आर्थिक संकटके स्वीकार्य वातावरणके बाबजूद यदि मोदीकी विश्वसनीयता बरकरार है तो इसके पीछे वैचारिक अधिष्ठानका योगदान भी कम नहीं है। गरीबी हटानेके नारे भले खोखले साबित हुए हो लेकिन कश्मीरसे ३७०,  सीएए और राममंदिर जैसे मुद्देपर पार्टीने जिस तरीकेसे काम किया वह उसकी विश्वसनीयताको बढ़ानेवाला ही साबित हुआ है। चीन और पाकिस्तानके मुद्दे भी उस बड़ी आबादीको बीजेपीसे निरन्तर जोडऩेमें सफल है जिसे एक साफ्ट स्टेटके रूपमें भारतकी छवि नश्तरकी तरह चुभती रही है। इंदिरा गांधीको जिन्होंने नहीं देखा उन्हें मोदी एक डायनेमिक पीएम ही नजर आते हैं और आज इस पीढ़ीकी औसत आयु ३६ साल है। दुनियाके सबसे युवा देशके लोग राहुल गांधीकी अनमनी राजनीतिको सिर्फ परिवारके नामपर ढोनेको तैयार नही है। जेपी, लोहिया, कांशीराम और कर्पूरी ठाकुरके नामसे खड़ी की गयी वैकल्पिक विरासत भी इसलिए खारिज प्राय: नजर आती है क्योंकि यह विकल्प केवल कुछ परिवारों और जातियोंके राजसी वैभवपर आकर खत्म हो गया। भाजपाने करीनेसे इस नवसामन्ती समाजवादको अपने राजनीतिक कौशलसे हटा लिया है। मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश, आसाम, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, छतीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्योंमें पार्टीकी नयी पीढ़ीको ध्यानसे देखनेकी जरूरत है। यहां जिस नेतृत्वको विकसित किया गया है वह आम परिवार और उन जातियोंको सत्ता एवं संघटनमें भागीदारी देता है जो संख्याबलके बाबजूद राजनीतिक विमर्श और निर्णयनसे बाहर रहे हैं। यानी जातिकी राजनीतिको समावेशी जातीय मॉडलसे भाजपाने रिप्लेस कर दिया है। बंगाल और आसाममें पार्टीका जनाधार बामन, बनिये या ठाकुर नहीं बना रहे हैं, बल्कि आदिवासी औऱ दलितोंने खड़ा किया है। हिंदीपट्टीमें आज पिछड़ी जातियां उसके झंडेके नीचे खड़ी है। यह नहीं भूलना चाहिए कि देशके प्रधान मंत्री भी एक पिछड़ी जातिसे आते है। द्विजके परकोटेमें पिछड़ी और दलित जातियोंको समायोजित करनेका राजनीतिक कौशल ७० सालमें बीजेपीसे बेहतर कोई भी अन्य दल नहीं कर पाया है। नजीरके तौरपर मध्यप्रदेशमें १६ सालसे सत्ता चलानेका जिम्मा तीन ओबीसी मुख्य मंत्रीके पास ही है। जाहिर है बीजेपीने चुनावी राजनीतिको एक प्रयोगधर्मितापर खड़ा किया है और सतत सांघटनिक ताकतने इसे सफलतापूर्वक लागू भी करा लिया। वैचारिकीपर खड़े संघटनके बलपर बीजेपीका चुनावी ढलान भी शायद ही कांग्रेसकी तरह शून्यतापर कभी जा पाये, क्योंकि यहां परिवारशाही नहीं वंचित, पिछड़े समूह पार्टीके नये ट्रस्टी बनते जा रहे हैं।