सम्पादकीय

शुद्ध जलका अधिकार


जल ही जीवन है और जलके अभावमें जीवनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है लेकिन दुर्भाग्यकी बात यह है कि शुद्ध जल आज जन-सामान्यको सुलभ नहीं है। प्रदूषित जल ग्रहण करना मानवकी विवशता बन गयी है। इससे आम जीवनपर संकट बढ़ गया है क्योंकि जलजनित बीमारियोंका दंश निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इस सन्दर्भमें सर्वोच्च न्यायालयने स्पष्टïत: कहा है कि प्रदूषण मुक्त शुद्ध जल व्यक्तिका मौलिक अधिकार है और इसे सुनिश्चित करना राज्यका संवैधानिक दायित्व है। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए.बोबड़े, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी.रामासुब्रमणियम की पीठने बुधवारको नदियोंमें प्रदूषण और उससे लोगोंके स्वास्थ्यपर पडऩेवाले दुष्प्रभाओंपर चिंता व्यक्त करते हुए उक्त महत्वपूर्ण टिप्पणी की और कल्याणकारी राज्यको भी कटघरेमें खड़ा कर दिया है। न्यायालयने स्वत: संज्ञान लेते हुए यह भी कहा है कि संविधानका अनुच्छेद-२१ जीवनका अधिकार देता है और इसी अधिकारमें गरिमाके साथ जीवन जीने और प्रदूषणरहित शुद्ध जलका अधिकार भी शामिल है। शीर्ष न्यायालयका कहना है कि अनुच्छेद-४७ और ४८ में जनस्वास्थ्य ठीक करना और पर्यावरण संरक्षित करना राज्योंका दायित्व है। साथ ही न्यायालयने नागरिकोंके कत्र्तव्योंके प्रति भी उन्हें आगाह किया है और कहा है कि प्रत्येक नागरिक वन, नदी, झील और जंगली जानवरोंका संरक्षण और रक्षा करें। नदियोंमें अमोनियाका स्तर बढऩा गंभीर मुद्दा है। यह इंसानोंके स्वास्थ्यके अतिरिक्त जलपर निर्भर रहनेवाले हर जीवके लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है। नदियां और अन्य जल स्रोत जीवनका आधार है। चिंताकी बात यह है कि नदियोंमें प्रदूषण तेजीसे बढ़ा है। यह स्थापित सत्य है कि प्रदूषित जलकी आपूर्ति लोगोंमें बीमारियोंका मुख्य कारण है। शीर्ष न्यायालयकी टिप्पणी मानव जीवन रक्षासे जुड़ी है। साथ ही इसने सरकार, जनता और सरकारी एजेंसियोंको भी कटघरेमें खड़ा कर दिया है। इनमेंसे कोई भी अपने दायित्वोंका ईमानदारीसे निर्वहन नहीं कर रहा है। सरकार नदियोंको प्रदूषण मुक्त करनेके लिए काफी धन खर्च करती है लेकिन प्रदूषण कम होनेकी बजाय बढ़ता ही जा रहा है। यह इस बातका प्रमाण है कि लोग ईमानदारीसे अपना कार्य नहीं कर रहे हैं और सरकारसे उपलब्ध कराये धनका बड़ा हिस्सा भ्रष्टïाचारको भेंट चढ़ जा रहा है। प्रदूषणकी रोकथामके लिए बनायी गयी सरकारी एजेंसियां सफेदहाथी बन गयी हैं। ऐसी एजेंसियोंका औचित्य समाप्त हो गया है। प्रदूषण बढ़ानेमें जनताका भी काफी योगदान है। उद्योग, कल-कारखानेसे निकलने वाले विषाक्त जल नदियोंमें बहाये जा रहे हैं। आखिर यह कबतक ऐसे ही चलता रहेगा, इसका सटीक उत्तर ढूढऩा होगा।
स्मार्ट मीटरका औचित्य
स्मार्ट मीटर उपभोक्ताओंपर जहां बोझ बने हुए हैं वहीं बिजली कम्पनियोंके लिए कल्पवृक्ष साबित हो रहे हैं। एक तरफ उपभोक्ताओंका आर्थिक दोहन हो रहा है तो दूसरी ओर बिजली वितरण कम्पनियां मालामाल हो रही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और हरियाणा समेत कई राज्योंमें स्मार्ट मीटर लगानेकी जिम्मेदारी एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) संभाल रही है। ईईएसएलके अनुसार स्मार्ट मीटरसे वितरण कम्पनियोंका राजस्व २०.५ प्रतिशत बढ़ा है, साथ ही बिलकी एफिशिएंसीमें भी लगभग २१ प्रतिशतकी वृद्धि हुई है जो उपभोक्ताओंके आर्थिक शोषणको बयां करती है। कम्पनीके आंकड़ेके अनुसार मात्र ११ लाख स्मार्ट मीटरसे बिजली वितरण कम्पनियोंका सालाना राजस्व २६४ करोड़ बढ़ा है। अकेले बिहारमें लगभग ८५ हजार प्रीपेड स्मार्ट मीटरसे कम्पनियोंके राजस्वमें १४० फीसदीकी वृद्धि हुई है। ईईएसएलने सबसे ज्यादा मीटर उत्तर प्रदेशमें लगाये हैं। इसके बाद जम्मू कश्मीरका नम्बर है। कोरोना वायरसने बिजलीके मीटरको स्मार्ट बनानेकी गतिको कम किया है जो राहतकी बात है। हालांकि वर्ष २०२०-२१ के आम बजटमें तीन सालमें सभी बिजली मीटरको प्रीपेड स्मार्ट मीटरमें बदलनेकी घोषणा की गयी है। इसके तहत करीब २५ करोड़ पुराने बिजली मीटरको स्मार्टमें बदलनेकी योजना है। सरकारको इसपर पुनर्विचार करनेकी आवश्यकता है, क्योंकि यह व्यावहारिक नहीं है। पहले की अपेक्षा दसगुणासे भी अधिक बिजलीके बिलका भुगतान करना उपभोक्ताओंके सामथ्र्यके बाहर है। उपभोक्ताओंकी शिकायतकी भी सुनवाई नहीं हो रही है, जबकि शिकायतोंका त्वरित निस्तारण होना चाहिए। इसका प्रीपेड होना और मुसीबत बढ़ानेवाली है क्योंकि जैसे ही पैसा खत्म होगा बिजली खुद कट जायगी। साधारण वर्गके उपभोक्ताओंकी आर्थिक स्थिति ऐसे नहीं कि वह तत्काल रिचार्ज करा सकें। सरकारको उपभोक्ताओंकी दिक्कतोंको ध्यानमें रखते हुए प्रीपेड स्मार्ट मीटर लगानेकी योजनाको स्थगित कर देना चाहिए। इसके लिए ऐसे विकल्पकी तलाश करनेकी आवश्यकता है जो बिजली वितरण कम्पनियोंको लाभके साथ उपभोक्ताओंको भी राहत देनेवाली हो।