सम्पादकीय

शैक्षणिक व्यवस्थाके विकासकी आधारशिला है शोध


 डा. शंकर सुवन सिंह

शोध उस प्रक्रिया अथवा कार्यका नाम है जिसमें बोधपूर्वक प्रयत्नसे तथ्योंका संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धिसे उसका अवलोकन, विश्लेषण करके नये तथ्यों या सिद्धांतोंका उद्घाटन किया जाता है। रैडमैन और मोरीने अपनी किताब दि रोमांस आफ रिसर्चमें शोधका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि नवीन ज्ञानकी प्राप्तिके व्यवस्थित प्रयत्नको हम शोध कहते हैं। एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिशके अनुसार किसी भी ज्ञानकी शाखामें नवीन तथ्योंकी खोजके लिए सावधानीपूर्वक किये गये अन्वेषणको शोधकी संज्ञा दी जाती है। स्पार और स्वेन्सनने शोधको परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तकमें लिखा है कि कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य, तथ्योंके लिए, निश्चितताओंके लिए अन्वेषण है। वहीं लुण्डबर्गने शोधको परिभाषित करते हुए लिखा है कि अवलोकित सामग्रीका संभावित वर्गीकरण, साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक और व्यवस्थित पद्धति है। शोधसे व्यक्तित्वका बौद्धिक विकास होता है। शोध सामाजिक विकासका सहायक है। शोध जिज्ञासा मूल प्रवृत्तिकी संतुष्टि करता है। शोध पूर्वाग्रहोंके निदान और निवारणमें सहायक है।

शोध ज्ञानके विविध पक्षोंमें गहनता और सूक्ष्मता प्रदान करता है। शोधके कुछ मुख्य प्रकार वर्णनात्मक शोध-शोधकर्ताका चरोंपर नियंत्रण नहीं होता। सर्वेक्षण पद्धतिका प्रयोग होता है। वर्तमान समयका वर्णन होता है। मूल प्रश्न होता है, क्या है। विश्लेषणात्मक शोध-शोधकर्ताका चरोंपर नियंत्रण होता है। शोधकर्ता पहलेसे उपलब्ध सूचनाओं एवं तथ्योंका अध्ययन करता है। विशुद्ध-मूल शोध इसमें सिद्धांत निर्माण होता है जो ज्ञानका विस्तार करता है। प्रायोगिक-प्रयुक्त शोध समस्यामूलक पद्धतिका उपयोग होता है। किसी सामाजिक या व्यावहारिक समस्याका समाधान होता है। इसमें विशुद्ध शोधसे सहायता ली जाती है। मात्रात्मक शोध इस शोधमें चरोंका संख्या या मात्राके आधारपर विश्लेषण किया जाता है। गुणात्मक शोध इस शोधमें चरोंका उनके गुणोंके आधारपर विश्लेषण किया जाता है। सैद्धांतिक शोध,सिद्धांत निर्माण और विकास पुस्तकालय शोध या उपलब्ध डाटाके आधारपर किया जाता है। आनुभविक शोध, इस शोधके तीन प्रकार हैं-(क) प्रेक्षण, (ख) सहसंबंधात्मक, (ग)प्रयोगात्मक, अप्रयोगात्मक शोध वर्णनात्मक शोधके समान, ऐतिहासिक शोध- इतिहासको ध्यानमें रखकर शोध होता है। मूल प्रश्न होता है, क्या था। नैदानिक शोध, समस्याओंका पता लगानेके लिए किया जाता है। शोध प्रबंधकी रूपरेखा, सही शीर्षकका चुनाव विषय वस्तुको ध्यानमें रखकर किया जाय। शीर्षक ऐसा हो जिससे शोध निबंधका उद्देश्य अच्छी तरहसे स्पष्ट हो।

शीर्षक न तो अधिक लंबा, न ही अधिक छोटा हो। शीर्षकमें निबंधमें उपयोग किये गये शब्दोंका ही जहांतक हो सके उपयोग है। शीर्षक भ्रामक न हो। शीर्षकको रोचक अथवा आकर्षक बनानेका प्रयास होना चाहिए। शोध समस्याका निर्माण चरण। समस्याका सामान्य एवं व्यापक कथन समस्याकी प्रकृतिको समझना, संबंधित साहित्यका सर्वेक्षण, परिचर्चाके द्वारा विचारोंका विकास, शोध समस्याका पुनर्लेखन। बंधित साहित्यके सर्वेक्षणसे तात्पर्य उस अध्ययनसे है, जो शोध समस्याके चयनके पहले अथवा बादमें उस समस्यापर पूर्वमें किये गये शोध कार्यों, विचारों, सिद्धांतों, कार्यविधियों, तकनीक, शोधके दौरान होनेवाली समस्याओं आदिके बारेमें जाननेके लिए किया जाता है। संबंधित साहित्यका सर्वेक्षण मुख्यत: दो प्रकारसे किया जाता है- प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण प्रारंभिक साहित्य सर्वेक्षण शोध कार्य प्रारंभ करनेके पहले शोध समस्याके चयन तथा उसे परिभाषित करनेके लिए किया जाता है। इस साहित्य सर्वेक्षणका एक प्रमुख उद्देश्य यह पता करना होता है कि आगे शोधमें कौन-कौन सहायक संसाधन होंगे। व्यापक साहित्य सर्वेक्षण-व्यापक साहित्य सर्वेक्षण शोध प्रक्रियाका एक चरण होता है। इसमें संबंधित साहित्यका व्यापक अध्ययन किया जाता है।

संबंधित साहित्यका व्यापक सर्वेक्षण शोधका प्रारूपके निर्माण तथा डाटा-तथ्य संकलनके कार्यके पहले किया जाता है। साहित्य सर्वेक्षणके स्रोत- पाठ्य-पुस्तक और अन्य ग्रंथ, शोध पत्र, सम्मेलन-सेमिनारमें पढ़े गये आलेख, शोध प्रबंध, पत्रिकाएं एवं समाचार पत्र, इंटरनेट, ऑडियो-विडियो, साक्षात्कार, हस्तलेख अथवा अप्रकाशित पांडुलिपि, परिकल्पना। जब शोधकर्ता किसी समस्याका चयन कर लेता है तो वह उसका एक अस्थायी समाधान एक जांचनीय प्रस्तावके रूपमें करता है। इस जांचनीय प्रस्तावको तकनीकी भाषामें परिकल्पना-प्राक्कल्पना कहते हैं।

इस तरह परिकल्पना-प्राकल्पना किसी शोध समस्याका एक प्रस्तावित जांचनीय उत्तर होती है। किसी घटनाकी व्याख्या करनेवाला कोई सुझाव या अलग-अलग प्रतीत होनेवाली बहुत-सी घटनाओंको आपसी सम्बन्धकी व्याख्या करनेवाला कोई तर्कपूर्ण सुझाव परिकल्पना कहलाता है। वैज्ञानिक विधिके नियमानुसार आवश्यक है कि कोई भी परिकल्पना परीक्षणीय होनी चाहिए। सामान्य व्यवहारमें परिकल्पनाका मतलब किसी अस्थायी विचारसे होता है जिसके गुणागुण अभी सुनिश्चित नहीं हो पाये हों। आम तौरपर वैज्ञानिक परिकल्पनाएं गणितीय माडलके रूपमें प्रस्तुत की जाती हैं। जो परिकल्पनाएं अच्छी तरह परखनेके बाद सुस्थापित हो जातीं हैं, उनको सिद्धान्त कहा जाता है। परिकल्पनाकी विशेषताएं-परिकल्पनाको जांचनीय होना चाहिए। बनायी गयी परिकल्पनाका तालमेल अध्ययनके क्षेत्रकी अन्य परिकल्पनाओंके साथ होना चाहिए। परिकल्पनाको मितव्ययी होना चाहिए। परिकल्पनामें तार्किक पूर्णता और व्यापकताका गुण होना चाहिए। परिकल्पनाको अध्ययन क्षेत्रके मौजूदा सिद्धांतों एवं तथ्योंसे संबंधित होना चाहिए। परिकल्पनासे अधिकसे अधिक अनुमिति किया जाना संभव होना चाहिए तथा उसका स्वरूप न तो बहुत अधिक सामान्य होना चाहिए और न ही बहुत अधिक विशिष्ट परिकल्पनाको संप्रत्यात्मक रूपसे स्पष्ट होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि परिकल्पनामें इस्तेमाल किये गये संप्रत्यय-अवधारणाएं वस्तुनिष्ठ ढंगसे परिभाषित होनी चाहिए। किसी भी देशका विकास वहांके लोगोंके विकासके साथ जुड़ा हुआ होता है। इसके मद्देनजर यह जरूरी हो जाता है कि जीवनके हर पहलूमें विज्ञान-तकनीक और शोध कार्य अहम भूमिका निभायें।

विकासके पथपर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है जब उसकी आनेवाली पीढ़ीके लिए सूचना और ज्ञान आधारित वातावरण बने और उच्च शिक्षाके स्तरपर शोध तथा अनुसंधानके पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। भारतीय वैज्ञानिकोंका जीवन और कार्य प्रौद्योगिकी विकास तथा राष्ट्रनिर्माणके साथ गहरी मौलिक अंत:दृष्टिके एकीकरणका शानदार उदाहरण रहा है। केंद्र और राज्योंके मध्य प्रौद्योगिकी साझेदारीको बढ़ावा देनेके लिए उपयुक्त कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकीके क्षेत्रमें शिक्षकोंकी संख्यामें वृद्धि की जाय, ताकि विश्वविद्यालयोंमें शिक्षकोंका अभाव जैसी मूलभूत समस्याको दूर किया जा सके। प्रतिभाशाली छात्रोंके लिए विज्ञान, शोध और नवाचारमें करियर बनानेके अवसर प्रदान करनेकी आवश्यकता है। इन सब बातोंके मद्देनजर एक ऐसी नीति बनानी होगी, जिसमें समाजके सभी वर्गोंमें वैज्ञानिक प्रसारको बढ़ावा देने और सभी सामाजिक स्तरोंसे युवाओंके बीच विज्ञानके अनुप्रयोगोंके लिए कौशलको बढ़ानेपर जोर दिया गया हो।