सम्पादकीय

संकटको अवसरमें बदल पायेंगे मोदी


राजकुमार सिंह

नरेंद्र मोदी-अमित शाहकी राजनीतिक समझपर संदेह नहीं है। फिर पंजाब नगर निकाय चुनावोंमें शिरोमणि अकाली दल विवादास्पद कृषि कानूनोंपर विलंबसे भाजपाका साथ छोडऩेकी कीमत चुकानी पड़ी है। तमाम कवायदके बावजूद आम आदमी पार्टी किसान असंतोषका लाभ उठानेमें विफल रही है। ऐसेमें सत्तारूढ़ कांग्रेस अगले विधानसभा चुनावसे महज एक साल पहले अपना परचम लहरानेमें सफल रही है। तीन नये कृषि कानूनोंके विरुद्ध किसान आन्दोलनसे उत्पन्न चुनौतियोंसे रूबरू भाजपा तर्क दे सकती है कि पंजाबमें वह मुख्य राजनीतिक दल कभी नहीं रही। तर्क गलत नहीं है। जिस गुरदासपुर लोकसभा क्षेत्रसे लोकप्रिय फिल्म अभिनेता सनी देओल सांसद हैं, वहां भी भाजपाका खातातक नहीं खुल सका। इसलिए दीवारपर लिखी इबारतकी तरह साफ इस चुनावी संदेशसे मुंह चुराना भाजपाके लिए आत्मघाती हो सकता है। दो महीने पहले हरियाणामें हुए नगर निगम और नगर परिषद चुनावोंमें भी, राज्यमें सत्तारूढ़ होनेके बावजूद, भाजपाका प्रदर्शन अपेक्षित नहीं रहा। पंजाबमें चार सालके शासनमें कैप्टन अमरेंद्र सिंहकी सरकारने ऐसा कोई करिश्मा नहीं किया कि लोग कांग्रेसके मुरीद हो जायें तो हरियाणामें भी मनोहर लाल खट्टर सरकारने दूसरे कार्यकालके पहले सालमें ऐसा तो कुछ भी नहीं किया कि लोग भाजपासे इस कदर खफा हो जायें। पहले कार्यकालमें तो एकके बाद एक चुनावी मोर्चे फतेह करते हुए मनोहर लाल खट्टर भाजपाके ऐसे स्टार प्रचारक बन गये थे कि जीतके टिप्सके लिए दूसरे राज्य भी उन्हें बुलाते थे। कृषि सुधारके नामपर बनाये गये तीन नये कानूनोंके विरुद्ध किसान आन्दोलन शुरू भले ही पंजाबसे हुआ हो, परन्तु गाजीपुर बॉर्डरके अलावा पिछले तीन महीनेसे बड़ी संख्यामें किसान दिल्लीकी दहलीजपर जहां-जहां धरनेपर बैठे हैं, वे सभी जगह हरियाणामें हैं। ऐसा भी नहीं है कि पंजाब-हरियाणामें भाजपाने किसानोंको इन नये कृषि कानूनोंके फायदे समझानेकी कवायद नहीं की, लेकिन चुनाव परिणाम उसकी नाकामीपर ही मुहर हैं। जाहिर है किसान इन कानूनोंको कृषि सुधारके बजाय अपने लिए नुकसानदेह ही मान रहे हैं। पंजाब-हरियाणाके बाद किसान आन्दोलनसे सर्वाधिक प्रभावित तीसरा राज्य उत्तर प्रदेश है। वहां भी मार्च-अप्रैलमें पंचायत चुनाव होने हैं। यदि उससे पहले किसान आन्दोलनका कोई स्वीकार्य हल नहीं निकला तो वहां भी चुनाव परिणाम पंजाब-हरियाणा जैसे ही आ सकते हैं। चुनाव परिणाम यह भी बतायेंगे कि किसान आन्दोलनका असर दिल्लीके करीबी जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेशतक ही सीमित है या पूरे राज्यमें फैला है। वैसे जयसिंहपुर खेड़ा बॉर्डरपर राजस्थान तथा पलवल बॉर्डरपर मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़के किसानोंका जमावड़ा यही संकेत देता है कि नये कृषि कानूनोंके विरुद्ध असंतोष अब किसी राज्य विशेषतक सीमित नहीं रह गया है। ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेशमें विधानसभा चुनाव महज सालभर दूर हैं तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़में लगभग डेढ़ साल। यदि उन चुनावोंमें भी परिणाम पंजाब-हरियाणा निकाय चुनाव जैसे आये तब क्या होगा।

उत्तर भारतकी बेरुखीके बाद तो किसी भी राजनीतिक दलको देशपर शासन करनेकी खुशफहमीमें नहीं रहना चाहिए। इसलिए विशुद्ध राजनीतिक समझदारीका तकाजा है कि कमसे कम प्रधान मंत्री मोदी तो कृषि कानूनोंपर गतिरोधको विपक्ष और सत्तापक्षके बीच रस्साकसीसे परे व्यापक नजरियेसे देखने-समझनेका प्रयास करें। किसानों और केंद्र सरकारके बीच दर्जनभर दौरकी बातचीतके बावजूद परस्पर विश्वास बढऩेके बजाय घटा ही है। अविश्वासके बीच वार्ताकी सफलता वैसे ही संदिग्ध होती है, उसपर गणतंत्र दिवस प्रकरणने अविश्वासको गहरी खाईंमें तबदील कर दिया है। यही कारण है कि खुद प्रधान मंत्री मोदी द्वारा अपने और किसानोंके बीच एक फोन कॉलकी दूरी बताये जानेके बावजूद, डिजिटल इंडियामें भी वह आजतक तय नहीं हो पायी। दिल्लीकी सीमाओंपर सरकार और धरना स्थलोंपर किसानोंकी तैयारियां लंबी जद्दोजहदका संकेत दे रही हैं, लेकिन उससे किसका भला होगा। किसान आन्दोलन, खासकर गणतंत्र दिवस प्रकरणमें किन संदेहास्पद तत्वोंकी कितनी संलिप्तता रही है, इसका खुलासा तो विश्वसनीय निष्पक्ष जांचसे ही हो पायेगा, लेकिन बढ़ते टकरावका लाभ भारत विरोधी निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उठाये जानेकी आशंकासे कौन इनकार कर सकता है। प्रधान मंत्रीने भी माना है कि लोकतंत्रमें संवादसे ही समाधान खोजा जाना चाहिए, परन्तु क्या बिना परस्पर विश्वासके संवाद संभव है। कटु सत्य यही है कि सरकारकी ओरसे वार्ताकार रहे मंत्रियोंमें आन्दोलनरत किसानोंका अब कोई विश्वास नहीं रह गया है। हां, इतना अवश्य हुआ है कि तीन दर्जनसे भी अधिक किसान संघटनोंके बीच अब तीन-चार नेता ऐसे उभरे हैं, जिनके साथ सरकार स्पष्ट और मुद्दा-केंद्रित बातचीत कर सकती है।

किसान बार-बार कह चुके हैं कि वह कानून वापसीसे कमपर नहीं मानेंगे। सर्वोच्च न्यायालयके हस्तक्षेपके बाद केंद्र सरकार भी नये कानूनोंपर डेढ़ सालतक अमल न करनेकी पेशकश कर चुकी है। ऐसेमें बीचका रास्ता तीनों नये कृषि कानूनोंपर अमल तीन साल या साफ कहें तो अगले लोकसभा चुनावतक रोकनेसे निकल सकता है। इसका अर्थ यह भी होगा कि अगले चुनावमें ये तीनों कृषि कानून मु्द्दा बनेंगे, भाजपा समेत सभी दलोंको उनपर या उनके संशोधित मसौदेपर अपना रुख स्पष्ट करना होगा। तब निश्चय ही नयी सरकारके पास नये जनादेशके अनुरूप उस दिशामें बढऩेका राजनीतिक तथा नैतिक अधिकार होगा, परन्तु सवाल वही है कि अक्सर दूसरोंको संकटको अवसरमें बदलनेकी नसीहत देनेवाले नरेंद्र मोदी खुद किसानोंसे सीधी बातका साहस कर अपने इस बड़े राजनीतिक संकटको अवसरमें बदल पायेंगे।