बाबा हरदेव
साधसंगत, कामधेनु हुआ करती हैए ये अपना फल दिए जाती है। लेकिन जरूरत होती है निमाणा बनने की। जैसे एक सज्जन थे। उन्होंने किसीको पानी भरने के लिए नल पर भेजा। काफी इंतजार की गई, तो वो बहुत व्याकुल हो उठे और सोचने लगे, देरी क्यों हो गयी। नल तो थोड़ी दूर पर है। क्या बात हो गयी है। उसे देखने चले गए। आ कर देखते हैं कि नल का पानी तो जोरों से बह रहा है, लेकिन बरतन जो नल के नीचे रखा था, वो उल्टा रखा हुआ है। अब वह समझे कि क्यों देर लग रही है। उन्होंने उसको समझा दिया कि भले मानस बरतन सीधा कर लो। इतना कहकर वे वापस आ गए। लेकिन फिर देरी लगने लगी। सोचने लगे, क्या बात अभी तो उसे समझा कर आया हूं। इतनी देर नहीं लगनी चाहिए। फिर देखने गए और क्या देखा कि बरतन तो सीधा पड़ा है, लेकिन उसके ऊपर से ढक्कन नहीं उतारा था। इसी प्रकार अभिमान का ढक्कन हटानेपर ही हृदयमें यह ज्ञानका अमृत भरता और सुरक्षित भी रहता है। निराकार दातार परमात्माका ज्ञान प्राप्त करके जिसने इसकी संभाल की है यानी इसको कभी मन में विसारा नहीं, इसको हमेशा हृदयमें बसा कर रखा है, तो ऐसे भक्त की अपनी संभाल भी हुई रहती है। उसको सहज अवस्था मिली रहती है। उसको एकाग्रता मिली रहती है। चाहे जीवनमें कैसा भी समय आ जाएए वह सहज अवस्था में रहता है। जब साधसंगत मिलती हैए गुरुमुखोंका संग मिलता है, तब इसकी संभालके बारेमें भी हमारा ध्यान चला जाता है। अगर सांधसंगत से दूर हो जाते है या अगर मनमुखोंकी संगति मिलती है, तो इसका ध्यान नहीं आता, इससे दूर चले जाते हैं। इससे परे हट जाते हैं। नतीजा कि हमेशा इस मन में बैचेनी बनी रहती है। निराकार परमात्मा का ध्यान करते रहने से चिंताएं नहीं रहतीं। आज संसार में हमें यही देखने को मिल रहा है। इनसानको चिंता लगी हुई है। लेकिन भक्तकी अवस्था क्या है। इस नामके अलावा इस हरिके अलावा भक्तों महापुरुषोंकी और कोई चिंता नहीं हुआ करती है। ये हरि नाम का ही चिंतन करते हैं। इस मालिक को ही याद करते हैं। दुनियामें जैसे कृपण इनसानको धन की चिंता होती है कि धन कहीं खो न जाए, ये कोई धन उठा के न ले जाए, इसी प्रकार महापुरुष भी नाम रूपी धनकी चिंता करते हैं कि ये नाम धन मेरे हाथ से न चला जाए। कहीं मैं इसको विसार न दूं, कहीं मैं इसको भुला न दूं। वैसे तो चिंताका कोई अंत नहीं। चिंताके बारेमें और भी कहा गया है कि जो चिंता होती है, वो तो मुर्दे को जलाती है, लेकिन चिंता जीते को जलाती है। ऐसी चिंता से इनसान का छुटकारा तभी होता है जब वह प्रभु परमात्माको विसारता नहीं, भुलाता नहीं और सदैव इस निरंकार के ज्ञान की संभाल करता रहता है। प्रभु, परमात्माको सदैव याद रखनेका साधन सत्संग है।