सम्पादकीय

सामाजिक समरसताको नष्टï करता सत्तालोभ


रवि कान्त त्रिपाठी

पांच राज्योंके चुनाव परिणाम आ गये जिसमें भाजपाको असममें पुन: सत्ता मिली और पुडुचेरीमें पहली बार भाजपा गठबंधनको सत्तामें आनेका मौका मिला। परिणाम आनेके बाद यह स्पष्ट हुआ कि तमिलनाडुमें भाजपाको अपने बूथोंका विस्तार करते हुए उसे और मजबूत करनेकी जरूरत है ताकि गठबंधनमें वह अपनी हिस्सेदारी बढ़ा सके या ऐसी तैयारी हो कि समय आनेपर एक मजबूत विकल्प बन सके। केरलमें भाजपाको ११ प्रतिशतसे ज्यादा वोट मिले जो भाजपाको दो संदेश देते हैं पहला यह कि बूथ स्तरपर भाजपा वहां अभी कमजोर है और बूथोंका विस्तार भी कम है उसे तेजीसे अपने बूथोंका विस्तार भी करना होगा और उन्हें मजबूत भी करना होगा दूसरा यह कि कांग्रेस गठबंधनका प्रदर्शन केरलके इस चुनावमें बेहद कमजोर रहा है और यदि भाजपा प्रयास करे तो केरलमें कांग्रेसका एक मजबूत विकल्प बन सकती है उसके पास पांच सालका वक्त है। सबसे महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक परिणाम पश्चिम बंगालका रहा भाजपाको सत्ताका दावेदार माना जा रहा था लेकिन ममता बनर्जी प्रचण्ड बहुमतसे लगातार तीसरी बार बंगालकी सत्तामें वापसी की। राजनीतिमें ऐसे अप्रत्याशित परिणाम देखनेको मिलते रहे हैं। ऐसे परिणाम बड़ा संदेश और सबक भी देते हैं। भाजपाके आक्रामक प्रचारोंने तो एक बार ममता बनर्जीको भी पिछले पांवपर ला दिया था लेकिन ममताके जुझारू और चालाक प्रवृत्तिने उस दबावसे अपनेको सहज किया। अब सवाल यह उठता है कि क्या ममताकी विजय पहलेसे निश्चित थी या अचानक मिल गयी जबकि ममताके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी थी और भाजपाको हिंदीभाषी क्षेत्रके लोगोंके साथ मतुआ समुदाय, दलित आदिवासी समुदाय, पिछड़ा वर्गका पूरा साथ मिला ही अन्य वर्गोंका भी साथ मिला यही कारण है कि भाजपाको ३८ प्रतिशतसे भी ज्यादा वाट मिले हैं। हालांकि ममता बनर्जीको नौ प्रतिशत वोट ज्यादा मिले।

आम तौरपर कहा जा रहा है कि ममताका जादू चला है लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि ममताका जादू चला होता तो वह अपनी सीट न हारती, ममता अपनी सीट हारीं इसका सीधा मतलब है कि ममताके प्रति जनतामें आक्रोश था और भीतर ही भीतर एक विरोधकी लहर थी जिसे ममता भी नहीं समझ पायी और अपनी सीट बदलनेकी गलती कर बैठी और परिणामस्वरूप उन्हें पराजित होना पड़ा। ऐसेमें ममताको बंगालका चेहरा कहना भी बेमानी ही होगा। वास्तवमें इस चुनावने स्पष्ट कर दिया कि बंगालके लिए ममता बनर्जी एक सेक्युलर समीकरण मात्र हैं जिनका इस्तेमाल अन्य कथित सेक्युलर पार्टियोंने भाजपाको रोकनेके लिए किया हैं। पहले दो चरणोंके चुनावके बाद यह संकेत मिल गया था कि ममताके खिलाफ एक विरोधकी लहर है ऐसा महसूस होते ही कांग्रेस और वाम दलोंने ममता बनर्जीको अपना मौन समर्थन दे दिया ताकि मुस्लिम मतोंका विभाजन रुके और भाजपाको सत्तामें आनेसे रोका जा सके। २०१६ में कांग्रेस और वामदलोंको सम्मिलित रूपसे ३२ प्रतिशत वोट मिले थे जबकि २०२१ में इन्हें सम्मिलित रूपसे लगभग आठ प्रतिशत वोट मिले अर्थात्ï कांग्रेस और वाम दलोंके वोट शेयरमें २४ प्रतिशतकी कमी हुई, उसी प्रकार भाजपाको २०१६ में लगभग दस प्रतिशत वोट मिला और २०२१ में ३८ प्रतिशतसे कुछ अधिक ही वोट मिले हैं यानी भाजपाका वोट शेयर २८ प्रतिशत बढ़ा ऐसे ही तृणमूल कांग्रेसके वोट शेयरमें केवल तीन प्रतिशतकी वृद्धि हुई। स्पष्ट प्रतीत होता है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही मतोंका जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है हिंदू मत भाजपाके साथ और मुस्लिम मत तृणमूलके साथ गये हैं फिर भी कुछ राष्टï्रवादी मुस्लिमोंने भाजपाको वोट दिया है लेकिन उनकी संख्या सीमित ही रही। यह बात सत्य है कि भाजपाको अपेक्षित सीटें नहीं मिली फिर भी जो वोट प्रतिशत भाजपाको मिला है वह किसी जीतसे कम नहीं है। भाजपाके लिए बंगाल एक नया राज्य था फिर भी उसने बूथ स्तरतक बेहतर काम किया है तभी तो बंगालमें मुख्य विपक्षी दलके रूपमें स्थापित हुआ है।

इतना अथक प्रयासके बावजूद भी भाजपाको अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी इसमें उसकी भी कुछ गलती या चूक रही होगी। भाजपाको मतोंके ध्रवीकरणका तो स्पष्ट आभास रहा होगा लेकिन उसका सामना करनेके लिए उसके पास क्या रणनीति थी यह तो वही जाने लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि अब ममताके लिए राजनीति आसान नहीं रहनेवाली। पूर्वमें ममताके सामने विपक्षके रूपमें कांग्रेस और वामपंथी थे जो एक प्रकारसे निष्क्रिय भूमिकामें ही थे उनकी स्थिति विपक्षीकी कम सहयोगीकी अधिक थी परन्तु आज ऐसा नहीं है। भाजपा अब कठोर विपक्षकी भूमिकामें होगी और ममताके कार्योंका सूक्ष्मतासे पर्यवेक्षण और विस्तृत रूपसे आंकलन करेगी इसलिए आनेवाले समयमें ममता बनर्जीकी राह बहुत कठिन होनेवाली है। लगाम भले ही ममताके हाथमें हो परन्तु चाबुक भाजपाके हाथ होगी। लेकिन इससे कुछ अलग हटकर देखें तो यह विचारणीय है कि वोटोंका ध्रुवीकरण राजनीतिकी कौन-सी दिशाको बता रहा है। माना कि सत्ता हासिल करना हर राजनीतिक पार्टीका सपना और अधिकार है लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि क्या सत्ता पानेका उद्देश्य सिर्फ भाजपाको सत्तामें आनेसे रोकना है? आखिर यह किस अघोषित वैमनश्यताकी ओर देशकी राजनीति बढ़ रही है? सत्ता सुख पानेके लिए तुष्टीकरण और सेक्युलरिज्मकी राजनीतिने समाजका सत्यानाश किया है। परिणाम आनेके बाद तो पूरे बंगालमें एक अलग ही घटनाक्रम चल रहा है भाजपाके कार्यकर्ताओं और उनके वोटरोंको उनके घरोंमें घुसकर मारा जा रहा है उनकी बहन-बेटियोंके साथ दुव्र्यवहार किया जा रहा है वह भी सिर्फ इसलिए कि उन लोगोंने भाजपाको वोट क्यों दिया या उनका चुनाव प्रचार क्यों किया? ऐसा करनेवाले तृणमूलके ही कार्यकर्ता हैं, बड़ा अजीब है यह कौनसे लोकतंत्रका आविर्भाव हो रहा है बंगालमें? अभीतक ममता बनर्जीने इन आतताइयों और दुराचारियोंके खिलाफ कुछ भी नहीं बोला है इन्हें रोकनेकी अपील भी नहीं की और न ही इन दुरात्माओंके खिलाफ कोई काररवाईकी बात ही की है।

यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि आखिर बंगालकी सड़कोंपर उपद्रव करनेवाले कौन लोग हैं जो जान और इज्जत दोनोंसे खेल रहे हैं। यदि इस उपद्रवकी केंद्रीय एजेंसियोंसे जांच हो जाय तो यकीन मानें चौंकानेवाले तथ्य सामने आयेंगे। चुनाव बाद हो रहे बंगालके खूनी संघर्षमें बहुत उम्मीद है कि अवैध बंगलादेशी और उनके आश्रयदाता शामिल हों जिनके दमपर ममता बनर्जी जीत कर सत्तामें आयी हैं। यही लोग बंगालके संसाधनों सरकारी योजनाओं और सुविधाओंका लाभ भी उठायेंगे क्योंकि ममताको इन्हींकी बदौलत सत्ता मिली है लेकिन क्या यह उचित है कि बंगालके संसाधनोंपर तो अवैध घुसपैठियोंका हक हो और वहांकी जनता स्वयंको ठगा हुआ महसूस करे? ऐसे उदण्ड लोगोंके लिए एक ही उपाय है जिस प्रकार चुनावसे पूर्व या चुनावके समय भाजपा और खासतौरपर स्वराष्टï्रमंत्री अमित शाह लगातार यह कहते आये हैं कि बंगालमें सीएए और एनआरसी अवश्य लागू करेंगे तो अब उसका समय आ गया है और इस कार्यको करनेके लिए कोई उपाय ढूंढ़ा जाना चाहिए भले ही इस कार्यके लिए सुप्रीम कोर्टकी मदद ही क्यों न ली जाय, ताकि बंगालके निवासियोंके साथ न्याय हो सके और बंगालके संसाधनोंपर सुख भोगनेवाले घुसपैठियोंको देशसे बाहर निकाला जा सके। बंगालका अतीत वैभवशाली और सांस्कृतिक रूपसे समृद्ध रहा है लेकिन सत्तर के दशकके बाद बंगालकी जो दुर्दशा शुरू हुई वह आजतक निरंतर जारी है। ममता बनर्जीने सत्तालोभके कारण सामाजिक समरसताको नष्ट किया है और रक्तपातको बढ़ावा दिया है लेकिन अब उनका सामना एक शक्तिशाली विपक्षसे है क्या भाजपा अपने दायित्वपर खरा उतर पायगी और क्या सोनार बंगलाका सपना सच करनेकी राह आसान हो पायेगी।