सम्पादकीय

सीमांत किसानोंको आत्मनिर्भर बनाना जरूरी


कुलभूषण उपमन्यु

भारतवर्षमें आधेसे ज्यादा किसान सीमांत किसान हैं जिनकी जोत एक हैक्टेयरसे कम है। कृषि ६० फीसदीके लगभग आबादीको रोजगार दे रही है, अर्थात्ï सीमांत जोतवाले बहुसंख्यक किसानोंको लाभकारी बनाना देशमें रोजी-रोटीकी समस्याके समाधानमें बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। किसानीको लाभकारी बनानेके दो पक्ष हैं। एक, कृषि उपजको सही कीमत दिलाना और दूसरा, किसानीकी लागतको कम करना। उपजकी सही कीमतके लिए किसान संघर्षरत हैं। सरकारें भी अपनी-अपनी समझके अनुसार इस दिशामें कार्य करती दिखना चाहती हैं, किंतु लागतको कम करनेकी बातकी आजके समयमें काफी अनदेखी हो रही है। कृषि ज्यादासे ज्यादा बाहरी सामग्री निवेश (इनपुट) पर निर्भर होती जा रही है।

अंधाधुंध मशीनीकरणने भी किसानीको एक ओर कम मेहनतवाला बनाया है तो दूसरी ओर अधिक खर्चीला भी बना दिया है। कृषि क्षेत्रकी कमाई उद्योग क्षेत्र और ऊर्जा क्षेत्रमें चली जा रही है। हालांकि मशीनीकरणकी दिशा बैल आधारित करके इसे सस्ता और आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बैल तो किसान ही पालेगा, इसलिए उसको बेचने और खरीदनेका पैसा किसानके ही पास जायगा। बैलसे चलनेवाले छोटे-छोटे कृषि उपकरणोंको बनाकर कृषिको सुविधाजनक भी बनाया जा सकता है। ऐसे उपकरणोंके निर्माणमें उद्योग जगतको भी कार्य मिलेगा ही। ट्रैक्टर आधारित कृषि छोटे किसानके लिए किसी भी तरह लाभकारी नहीं हो सकती। छोटे किसानके लिए तो ऐसी कृषि पद्धति सही है जिसमें अधिकांश वस्तुएं जो कृषिमें लगेंगी, वे किसानकी खेतीसे या वन क्षेत्रोंसे ही प्राप्त हो जानी चाहिए। छोटा किसान यदि बैल रखता है तो एक तरफ उसे कृषि कार्यके लिए ऊर्जा उपलब्ध होगी, दूसरी ओर खेतके लिए खाद भी मिलेगी। गोमूत्रसे भी उपयोगी खाद बनाकर रासायनिक खादोंसे मुक्ति पायी जा सकती है जिससे एक ओर रासायनिक खादपर खर्च बचेगा तो दूसरी ओर भूमिकी उपजाऊ शक्तिका संचय भी होगा।

रासायनिक खादोंसे भूमिकी उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे क्षय हो रही है। इसके अलावा रासायनिक स्प्रेसे बीमारी नियंत्रण भी खतरनाक सीमातक स्वास्थ्यके लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है और खर्चीला भी। इसलिए रासायनिक और ट्रैक्टर निर्भर मशीनी खेतीको बैल आधारित तकनीकों और जहांतक संभव हो, वहांतक हर्बल दवाइयोंके विकासके आधारपर स्वावलंबन और आत्मनिर्भरताकी ओर मोडऩा चाहिए, जिससे छोटे किसानको खेतीके लिए कर्ज लेनेकी जरूरत ही न पड़े। जैसे-जैसे खेती आत्मनिर्भर बनेगी, किसानका लाभ बढ़ता जायगा और खेतीसे इतर अन्य घरेलू जरूरतोंके लिए भी कर्जकी मजबूरियां कम होती जायंगी। बैलसे खेतीको पिछड़ा न माना जाय, बल्कि पर्यावरण-मित्र, जलवायु नियंत्रणमें सहयोगी, स्वास्थ्य-मित्र मानकर प्रोत्साहित किया जाय। ट्रैक्टरकी तरह ही बैल पालनपर सब्सिडी दी जाय।

गोबरसे बायो-गैस बनाकर वैकल्पिक ऊर्जाके क्षेत्रमें भी आशातीत विकास संभव हो सकता है। बायो-गैस निर्माणको ऊर्जा उद्योग घोषित करके लघु-कुटीर उद्योगके रूपमें प्रोत्साहित करना चाहिए, जिसमें खुद किसान ही उद्योग लगाकर लाभान्वित हो सकता है। बड़े पैमानेपर बायो-गैस निर्माण करके उसे सिलेंडर पैक भी किया जा सकता है। इससे नि:संदेह पेट्रोलियम बिल भी कम होगा और बेसहारा पशुधनकी समस्या भी हल होगी। बेसहारा पशुधन भी खेतीको उजाड़ रहा है और किसानके लिए समस्या बन गया है। बाहरी सामग्री निवेशपर न्यूनतम निर्भरतावाली टिकाऊ खेती जैसे कई सफल प्रयोग हो रहे हैं। जैविक कृषिकी कई पद्धतियां विकसित हो रही हैं। आवश्यकता है उन्हें प्रोत्साहित करने और वैज्ञानिक रूपसे सिद्ध करने की, ताकि प्रगति सुनिश्चित और टिकाऊ बन सके। कई प्रदेशोंमें इस दिशामें कार्य भी शुरू हुआ है, उसका अनुदर्शन और प्रचार-प्रसार होना चाहिए। तुलनात्मक आंकड़े संग्रह करके परिणाम सिद्ध किये जाने चाहिए, ताकि किसी भी नये इच्छुकको भय न लगे और पद्धतिका मानकीकरण किया जा सके।

सभी कृषि विश्वविद्यालयोंमें इस दिशामें शोध, उपकरण विकास और प्रशिक्षण कार्य आरंभ होने चाहिए। इस कृषिके लिए भारतीय मूलकी नस्लोंका बड़ा महत्व माना गया है। इसलिए देसी साहिवाल, थारपारकर, सिंधी, गीर आदि नस्लोंको पुनर्जीवित और संवर्धनका कार्य किया जाना चाहिए, जो दूध भी अच्छा देती हैं। इन नस्लोंके दूधमें यूरोपीय नस्लोंके मुकाबले अधिक गुणवत्ता है और स्वास्थ्यके लिए हानिकारक हिस्टेडीन जैसे पदार्थोंका अभाव है। भारतकी पारम्परिक कृषि पद्धति इसी दिशामें थी, इसलिए किसानको अपनी भूली परम्पराको विकसित करनेमें ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए, यदि इसे वैज्ञानिक आधारपर मानकीकरण करते हुए प्रचारित किया जाय। कई संघटन इसके लिए कार्यरत हैं। उनके अनुभव भी प्रयोग किये जाने चाहिए। सबसे जरूरी बात है छोटे किसानोंके ऐसे संघटन जो इन प्रयोगोंको अपने भविष्यके लिए मार्गदर्शक मानकर कार्यरत हों और आत्मनिर्भर टिकाऊ कृषिको अपने आत्म-सम्मानके साथ जोड़कर देख सकते हों।