सम्पादकीय

हंगामेकी भेंट चढ़ती उम्मीदें


आशीष वशिष्ठ

संसद लोकतंत्रका वह मंदिर जिसकी तरफ पूरे देश और देशवासियोंको उम्मीदें, आशाएं और विश्वास होता है। पूरे देशकी दृष्टिï इसपर लगी रहती है। यही बैठकर हमारे द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हमारे लिए कल्याणकारी नीतियां, कानून और भलाईके कार्य करते हैं। लेकिन कोरोना महामारीके समय मानसून सत्रमें जो दृश्य दिखाई दे रहे हैं, वह कोरोना महामारीके कहरके कारण निराश और टूट चुके समाजको एक और बड़ी निराशाकी ओर धकेल रहा है। सरकार और विपक्षमें आरोप-प्रत्यारोपकी प्रथा कोई नयी नहीं है। इसमें दोनोंको ही खूब आनन्द भी आता है। लेकिन कोरोना महामारीका संकट सिरपर मंडरा रहा है। तीसरी लहरकी आंशका जतायी जा रही है। ऐसेमें हंगामे और राजनीतिके मध्य आम जनमानसकी भलाईसे जुड़े गंभीर और अति महत्वके विषयोंकी घोर अनदेखी हो रही है। संसदका मानसून सत्र चल रहा है। संसद सत्र वह समय होता है जब देशभरके चुने हुए सांसद देशकी राजधानी दिल्लीकी ओर रुख करते हैं। रुख किया जाता है सत्रमें शामिल होनेके लिए। रुख किया जाता है कि दिल्ली पहुंचकर अपने प्रदेशकी जनताके लिए जितना हो सके किया जाय। यही कारण होता है वोट देकर सांसदोंको संसदमें भेजनेका भी। ताकि सालमें तीन बार जब-जब संसदका सत्र शुरू हो तब-तब आपके सांसदजी वहां जाकर अपने संसदीय क्षेत्रकी समस्याओंका समाधान करें। लेकिन सांसदजी ऐसा क्यों करेंगे? क्योंकि वह ऐसा करनेके लिए मोटा पैसा लेते हैं। लेकिन इतना पैसा लेनेके बाद भी आजकल यह देखना आम हो गया है कि सांसद फलाना समयके लिए स्थगित तो ढिमकाना समयके लिए स्थगित। यहांसे सांसद जी जाते हैं काम करने, वहां धरना, प्रदर्शन और हो-हल्लेमें मशगूल हो जाते हैं। अब वह पैसा जो उनके वहां जानेसे खर्च हुआ वह किसका होता है? वह पैसा आपका और हमारा होता है। एक रिपोर्टके अनुसार २९ जनवरीसे ९ फरवरी और ५ मार्चसे ६ अप्रैल २०१८ तक दो चरणोंमें चले बजट सत्रमें १९० करोड़से ज्यादा रुपये खर्च हुए। यानी प्रति मिनट संसदकी कार्यवाहीपर तीन लाख रुपयेसे ज्यादाका खर्च आया। संसदीय आंकड़ोंकी बात करें तो २०१६ के शीतकालीन सत्रके दौरान ९२ घंटे व्यवधानकी वजहसे बर्बाद हो गये थे। इस दौरान १४४ करोड़ रुपयेका नुकसान हुआ। जिसमें १३८ करोड़ संसद चलानेपर और छह करोड़ सांसदोंके वेतन, भत्ते और आवासपर खर्च हुए। एक सालके दौरान संसदके तीन सत्र होते हैं। इसमेंसे भी यदि साप्ताहांत और अवकाशको निकाल दिया जाय तो यह समय लगभग तीन महीनेका रह जाता है। यानी केवल ७०-८० दिन कामकाज होता है जिसमें भी संसद ठीक तरहसे चल नहीं पाती है। इसे ऐसे समझिये कि संसदके एक घंटेकी कार्यवाहीपर १.२ करोड़ रुपये खर्च होते हैं। यानी हर मिनट करीब २.५ लाख रुपये। यह संसदमें होनेवाले काम तीन सत्रोंमें बटे होते हैं। एक सत्र दो-चार महीनेका हो सकता है। लेकिन कुल महीनोंमेंसे पांच-सात महीने ही कामके होते हैं। उनमेंसे कमसे कम दो महीने निकल जाते हैं सप्ताहांत अवकाशोंमें। बाकी महीने सांसदोंके हंगामे और बहिष्कारमें निकल जाते हैं। तो सालमें ६०-७० दिन ही वैसे बचते हैं, जिनमें संसद काम कर पता हो।

यह पैसा कई चीजोंपर खर्च होता है। जैसे सांसदोंके वेतनपर, उनको मिलनेवाले भत्तोंपर, संसद सचिवालयपर आनेवाले खर्चोंपर, उनके कर्मचारियोंके वेतनके रूपमे, सत्रके दौरान सांसदोंकी सुविधाओंके ऊपर। पिछले कुछ आंकड़ोंकी तुलना करें तो आप यह देखेंगे कि बजट सत्रमें बजटपर चर्चाके लिए निर्धारित घंटोंके २० फीसदी या ३३ घंटे बहस होती है। लेकिन पिछले कुछ सालोंसे इस आंकड़ेमें भारी गिरावट है। साल २०१० प्रोडक्टिविटीके नजरियेसे सबसे खराब साल रहा। २०१७ के बाद सबसे कम काम २०१६ शीतकालीन सत्रमें हुआ था। इस सत्रमें सांसदोंने लगभग ९२ घंटेके काममें व्यवधान डाला, जिसके कुल खर्चका अनुमान लगाया जाय तो वह १४४ करोड़ रुपयोंका होगा। सबसे हैरानीकी बात यह है कि पिछले कई सालोंकी तुलनामें २०१६ में संसदकी कार्यवाही सबसे ज्यादा बार स्थगित हुई है। हर सत्रमें लगभग १८ या २० दिन संसदकी कार्यवाही चलती है। राज्यसभामें हर दिन पांच घंटेका और लोकसभामें छह घंटेका काम होता है। वर्ष २०१६ में पहले सत्रमें हंगामेकी वजहसे १६ मिनट बर्बाद हुए, जिसकी वजहसे ४० लाखका नुकसान हुआ, दूसरे सत्रमें १३ घंटे ५१ में २० करोड़ सात लाखका नुकसान, तीसरे सत्रमें तीन घंटे, २८ मिनट कार्यवाही ठपमें पांच करोड़ २० लाखका नुकसान हुआ। चौथे सत्रमें सात घंटे, चार मिनटकी बर्बादीमें दस करोड़ ६० लाख रुपयेका नुकसान, पांचवें सत्रमें ११९ घंटे बर्बाद यानी १७८ करोड़ ५० लाखका नुकसान हुआ। एक अनुमानके अनुसार साल २०१० से २०१४ के बीच संसदके ९०० घंटे बर्बाद हुए। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कितना पैसा बर्बाद हुआ होगा।

पिछले रिकार्डकी तुलनामें संसदका इस वर्षका बजट सत्र काफी बेहतर रहा। इस वर्ष संसदका बजट सत्र २९ जनवरीसे २५ तक दो चरणोंमें सम्पन्न हुआ। सत्रके दौरान एक फरवरीको वित्तमंत्रीने कोविडके बादका बजट पेश किया और सदनमें कई अहम बिल पारित हुए। बजट सत्रके दौरान लोकसभाने करीब १३२ घंटे कामकाज किया। इस दौरान सदनमें कुल १७ बिल पेश किये गये और सदनने १८ बिलोंको पास किया। सदनमें राष्टï्रपतिके अभिभाषणपर धन्यवाद प्रस्तावकी चर्चा करीब १७ घंटे चली और लगभग १५० सांसदोंने इसपर अपने विचार रखे। इस तरह सदनकी उत्पादकता करीब ११४ प्रतिशत रही। राज्यसभाकी कार्यवाही भी बजट सत्रमें १०४ घंटेसे अधिक समयतक चली। सदनकी कुल २३ बैठकें हुईं। इस दौरान राज्यसभाने १९ बिलोंको पास किया। बजट सत्रके पहले चरणमें राज्यसभाकी प्रोडक्टिविटी ९९.६ प्रतिशत और दूसरे चरणमें ८५ प्रतिशत रही। इस तरह राज्यसभाने ९० फीसदीकी उत्पादकताके साथ काम किया।इस तथ्यसे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसान आंदोलन, पेट्रोल-डीजलकी बढ़ती कीमतों और दिल्ली शासन संशोधन विधेयकपर विपक्षके हंगामेके चलते संसदकी कार्यवाही कई बार बाधित हुई। राज्यसभामें कई मुद्दोंपर विपक्षकी एकजुटता देखनेको मिली और इसके चलते सदनका २१ घंटे २६ मिनटका समय हंगामेकी भेंट चढ़ गया। टीवीपर हंगामा देखकर आप बेशक चैनल बदल देते हैं, लेकिन संसदमें बैठे स्पीकरके पास कोई विकल्प नहीं बचता। कई बार तो दूसरे देशोंके प्रतिनिधियोंके सामने ही सांसद अभद्र भाषासे लेकर कुर्सियोंकी उठा-पटक शुरू कर देते हैं, जिससे स्पीकरको हार मानकर कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है। देशकी जनता द्वारा भरे गये टैक्ससे चलनेवाली संसद जिससे देशवासियोंको कितनी उम्मीदें होती हैं और संसदकी कार्यवाही बार-बार बाधित होती है तो देशका कितना पैसा भी बर्बाद होता है। लेकिन शायद ही हमारे कर्णधार अपनी राजनीति चमकाने और सरकारको बदनाम करनेके कारनामोंसे जिस दिन बाहर निकलेंगे, शायद उसी दिन इस दिशामें सोचेंगे।